आदिवासी और वन प्रबन्धन

वनों की सुरक्षा पर आधारित राज्य वन प्रबन्धन प्रणाली और अनेक कठोर उपायों के बावजूद न तो वनों का विनाश रुका है और न ही वनों पर निर्भर लोगों की हालत में कोई विशेष सुधार हुआ है। लोकतांत्रिक, विकेन्द्रीकृत और निरन्तर विकास आज की आवश्यकता है। लेखक के विचार में इस दिशा में मानव-विज्ञानियों की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो सकती है।

देश के भौगोलिक क्षेत्र का करीब 23 प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित है। आँकड़ों के अनुसार भारत का कुल वन क्षेत्र 7 करोड़ 70 लाख 10 हजार हेक्टेयर है। विश्व के कुल वन क्षेत्र का दो प्रतिशत आज भारत में है जबकि विश्व जनसंख्या का 15 प्रतिशत यहाँ निवास करता है। वनों की भारत के आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यह एक जाना-माना तथ्य है कि अधिकांश आदिवासी भारत के वन क्षेत्रों में सदियों से सभ्य समाज से दूर आपस में मिल-जुल कर पूरे विश्वास और सुरक्षा के वातावरण में रहते आए हैं। वनों के साथ उनका सम्बन्ध सहजीवी का है।

वनों का पर्यावरण आदिवासियों की वनों से गहराई से जुड़ी परम्पराओं और भावनाओं को जीवनपर्यन्त सन्तुष्टि प्रदान करता है। मृत्यु के बाद भी वनोपज बटोरने वाली तथा शिकार करने वाली जन-जातियों के अधिकांश लोगों को वनाच्छादित क्षेत्र में ही दफनाया जाता है। इस प्रकार मृत्यु के बाद भी वे वनों के आगोश में ही रहते हैं।

आदिवासियों तथा वनों के निकट रहने वाले समुदायों को वनों से अग्रलिखित चीजें प्राप्त होती हैं- आवास, आश्रय और छाया; घरेलू उपकरणों के लिए कच्चा माल; भौतिक संस्कृति की अन्य वस्तुएँ जैसे राल (रेजिन), गोंद, रंग सामग्री आदि; औजार बनाने, बाड़ लगाने और मकान बनाने के लिए लकड़ी; ईंधन, जड़-बूटी, पशुओं के लिए चारा तथा चारागाह; भौतिक संस्कृति वाली कुछ अन्य वस्तुएँ जैसे आभूषण और धार्मिक सामग्री आदि। वनों से आदिवासियों और अन्य देशी समुदायों को प्राप्त होने वाले ये प्रत्यक्ष लाभ हैं।

भारत में आदिवासी लोगों का जीवन और उनकी अर्थव्यवस्था वनों से गहराई से जुड़ी हैं। अधिकांश आदिवासी वनों के भीतर ही रहते हैं और खाने योग्य कंद-मूल जैसे वनोपज एकत्र कर अपनी आजीविका चलाते हैं।

अपने जीवन-यापन के लिए छोटे वन्य पशुओं का शिकार भी करते हैं। शिकार और वनोपज संग्रह पर जीने वाली ये आदिम जातियाँ संख्या में कम ही हैं और मुख्य रूप से उड़ीसा, बिहार, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में रहती हैं। इन आदिम जातियों का अस्तित्व महुआ के फूल, साल बीज, साल और तेंदू का पत्ता, कंद-मूल, बांस और जंगली फलों जैसी लघु वनोपजों पर निर्भर करता है।

उड़ीसा, मध्य प्रदेश और बिहार के आदिवासियों के जीवन के अध्ययन से पता चलता है कि 80 प्रतिशत से अधिक वनवासी अपने भोजन का 25 से 50 प्रतिशत भाग वनों से ही प्राप्त करते हैं। इस प्रकार बिरहोर, कोरवा, पहाड़िया, असुर, विरजिया, चेंचू, कदार और पलियाँ जैसे शिकार और वनोपज संग्रह करने वाले आदिम समुदायों के लिए लघु वनोपज ही उनके अस्तित्व का मुख्य आधार है। इसके विपरीत संथाल, मुंडा, ओरांव, हो, झील, गौंड़, बैगा और कुछ अन्य जनजातियाँ कृषि को अपना चुकी हैं और उन्हें मध्य भारत के आदिवासी कटिबन्ध की प्रमुख जातियाँ माना जाता है। इन लोगों की आर्थिक स्थिति मध्य और पूर्वी भारत के वन क्षेत्रों में रहने वाली अल्पसंख्यक जनजातियों की अपेक्षा बेहतर है। पूर्वोत्तर भारत की अनेक मंगोल जनजातियाँ यथा-नगा, कुकी वन क्षेत्रों में झूम खेती के जरिए अपना जीवन यापन करती हैं। झूम खेती को बस्तर के माड़िया आदिवासी ‘पेंदा’ कहते हैं, जबकि उड़ीसा के खोंड आदिवासी इसे ‘पोदू’ कहते हैं। झूम खेती के कारण वनों का ह्रास भी कुछ हद तक होता है परन्तु आज की स्थिति में क्या यह फिजूलखर्च है और उससे बचा जा सकता है, यह एक बहस का विषय है क्योंकि इन आदिवासियों का अस्तित्व झूम खेती पर ही निर्भर है।

वन नीति


अंग्रेजी शासन के पहले भारत में वनवासियों और अन्य देशज समुदायों को अपने जीवनयापन के लिए वनों के उपयोग और वन संसाधनों के दोहन की पूरी स्वतंत्रता थी। वनोपज और वनभूमि पर लोगों के अधिकार के बारे में केवल रिवाजी नियम थे। इस रिवाजी नियमन से कोई समस्या नहीं थी क्योंकि वन क्षेत्र अधिक थे और आबादी भी कम थी। वनवासियों और वनों के आसपास रहने वाले लोगों को केवल गिरी हुई पत्तियाँ, टहनियाँ और फल बटोरने की ही अनुमति थी। पेड़ काटने की अनुमति नहीं थी। इसी कारण प्राकृतिक वनों का संरक्षण आसानी से होता रहता था।

ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने वनों के वाणिज्यिक महत्व को पहचानते हुए उनका उपयोग राजस्व बढ़ाने के लिए करना शुरू किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने वनवासियों और अन्य देशज लोगों के वनाधिकारों को सीमित करने के बारे में नियम बनाने का प्रयास भी किया।

1855 में वनवासियों के अधिकारों को सीमित करने सम्बन्धी मार्ग-निर्देशों वाला एक ज्ञापन जारी किया गया। 1865 में पहली बार सरकारी वनों के संरक्षण और प्रबन्धन के नियमों को लागू करने का आदेश जारी किया गया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वनों पर सरकारी नियन्त्रण कायम करना था। एक और व्यापक अधिनियम- भारतीय वन अधिनियम-1878 में जारी किया गया। इसमें वनों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था- (1) आरक्षित वन, (2) संरक्षित वन, और (3) ग्रामीण वन। आरक्षित वनों में अनधिकृत प्रवेश और पशुओं का चरना प्रतिबन्धित था यद्यपि स्थानीय शासन को यह अधिकार दिया गया था कि वनों और बंजर भूमि पर सरकार और निजी व्यक्तियों का अधिकार किस सीमा तक है तथा उसका प्रकार कैसा है, इसका पता लगाने के बाद उसे संरक्षित वन के रूप में अधिसूचित कर सकें।

1894 में ब्रिटिश सरकार ने वन नीति की घोषणा की जिसमें वनों के वाणिज्यिक उपयोग पर विशेष तौर पर जोर दिया गया था। इस नीति ने वन भूमि और उसकी उपज पर वनवासियों के अधिकारों और विशेषाधिकारों को नियमित करने का रास्ता साफ कर दिया। व्यापक भारतीय वन अधिनियम 1927 में बना जिसमें इससे पहले वाले अधिनियम की सभी मुख्य धाराएँ शामिल थीं। 1935 में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत प्रान्तों में विधानसभाएँ बनी और वन का विषय प्रांती सूची में शामिल कर दिया गया। उसके बाद अनेक प्रांतों ने वनों और वन भूमि तथा वनोपज पर वनवासियों के अधिकारों से सम्बन्धित नियम बनाने के लिए अपने-अपने कानून बनाए। ब्रिटिश वन नीति मुख्यतः वाणिज्यिक हितों पर ही आधारित थी और इसका उद्देश्य वनाधारित औपनिवेशिक उद्योगों को इमारती लकड़ी और वन संसाधनों की आपूर्ति करना भर था। वनवासियों, आदिवासियों और अन्य देशज समुदायों के हितों की अपेक्षा औपनिवेशिक शासकों के हितों का पोषण करने के लिए वनों के वाणिज्यिक दोहन को बढ़ावा दिया गया। उन्होंने लाइसेंस-शुदा ठेकेदारों को हर कीमत पर वन सामग्री एकत्रित करने की अनुमति दे रखी थी बिना यह सोचे कि भविष्य में इसका क्या परिणाम होगा।

औपनिवेशिक कानूनों के कारण भारत की कुल वनभूमि का 97 प्रतिशत क्षेत्र राज्य के अधिकार में आ गया जिसकी वजह से लोगों का वनों में प्रवेश सीमित हो गया। वनाच्छादन में कमी और तेजी से हो रहे वन ह्रास के कारण देशज समुदायों पर सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय संघात अत्यन्त तीव्र हो गया। आस-पास के पर्यावरण के ह्रास और कठोर वन कानूनों ने खाद्य पदार्थों की सुलभता पर विपरीत प्रभाव डाला है। स्थानीय समुदायों की जीविका के विकल्पों और उनके जीवन-स्तर पर इसका विपरीत असर पड़ा है। वास्तविक जीवन में वनभूमि के ह्रास और कड़े वन नियमों के कारण वन संसाधनों की घटती सुलभता, दोनों ने इन समुदायों पर गम्भीर प्रभाव डाला है।

स्वतंत्रता के बाद वन नीति के मुद्दे पर पुनर्विचार शुरू हुआ। भारत सरकार ने 1952 में नई राष्ट्रीय वन नीति की घोषणा की जिसमें वानिकी के पारिस्थितिकीय और सामाजिक पहलुओं पर ही जोर दिया गया था। व्यापार और उद्योग की आवश्यकताओं और राजस्व की वसूली को गौण स्थान दिया गया था। एक प्रकार से यह नीति ब्रिटिश शासनकाल की वन नीति का विस्तार ही थी जिसमें कहा गया था कि वनों के आस-पास रहने वाले समुदायों का दावा राष्ट्रीय हितों के खिलाफ नहीं होना चाहिए। वनों के निकट रहने वाले आदिवासियों को वनों और वनोपजों का उपयोग करने के प्रति हतोत्साहित किया जाने लगा। राष्ट्रीय कृषि आयोग ने 1976 में वनों को तीन वर्गों में विभाजित किया- (1) संरक्षण वन, (2) उत्पादन वन और (3) सामाजिक वन। आयोग ने ग्रामीण लोगों की आवश्यकताओं पर तो विचार किया परन्तु वनवासियों तथा आदिवासियों की लघु वनोपजों की आवश्यकता पर शायद ध्यान नहीं दिया। ऐसा लगता है कि आयोग ने छप्पर डालने, मकान बनाने के लिए लकड़ी, फल-फूल और खाने के उपयोग में आने वाले कंद-मूल तथा खाद्य तेल निकालने के लिए बीजों सम्बन्धित आदिवासियों की वन सामग्री की आवश्यकताओं पर पर्याप्त जोर नहीं दिया। राष्ट्रीय कृषि आयोग वन सम्बन्धी कार्यों में आदिवासियों को रोजगार देने की बात तो करता है परन्तु वह यह भूल जाता है कि आदिवासियों की जीविका का मुख्य स्रोत वन विभाग द्वारा प्रदत्त प्रत्यक्ष रोजगार नहीं बल्कि छोटे जानवरों का शिकार और वनोपज संग्रह है।

1980 के भारतीय वन विधेयक का झुकाव अमीरों और शहरी लोगों के प्रति ज्यादा है। ग्रामीण विरोधी इस अधिनियम में आरक्षित और संरक्षित वनों में प्रतिबन्धित कार्यों का ब्यौरा दिया गया है। विधेयक में कठोर दंड का प्रावधान है तथा शासकीय अधिकारियों को अधिक अधिकार तथा सुरक्षा प्रदान की गई है। वनों पर ही निर्भर रहने वाले आदिवासी इस विधेयक से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं क्योंकि वे अब सदा ही वन अधिकारियों की दया पर जीने के लिए बाध्य हैं।

भारत की कुल जनसंख्या के आठ प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले आदिवासियों के लिए वन ही जीवनयापन का मुख्य साधन हैं। राष्ट्रीय कृषि आयोग की सामाजिक वानिकी की धारणा आदिवासियों और निर्धन ग्रामीणों की ईंधन, चारा और अन्य लघु वनोपज की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकती। इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि आदिवासी अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से भरण-पोषण वाली अर्थव्यवस्था है। पारम्परिक रूप से वे केवल अपने लिए और अपने अत्यन्त निकट के लोगाों के लिए ही उत्पादन करते हैं। वन विभाग की यह आम धारणा है कि आदिवासी लोग झूम खेती और ईंधन के लिए बेरहमी से पेड़ों को काटकर वनों को नष्ट कर रहे हैं।

1988 की राष्ट्रीय वन नीति इस मामले में पूर्व की सभी वन नीतियों से हट कर है। इसमें खासतौर पर यह स्वीकार किया गया है कि हमारे वनों का बुनियादी कार्य पारिस्थितिकीय स्थायित्व को बनाए रखना है। नीति में कहा गया है कि ‘‘वन नीति का मुख्य लक्ष्य वातावरण सन्तुलन सहित पारिस्थितिकी सन्तुलन और पर्यावरणीय स्थायित्व को सुनिश्चित करना होना चाहिए। यही मानव, पशु, पौधों और सभी प्रकार के जीवों के अस्तित्व के लिए महत्त्वपूर्ण है।’’ नई वन नीति का स्पष्ट उद्देश्य भारत की वन-सम्पदा का संरक्षण करना, वनों की उत्पादकता बढ़ाना, बंजर भूमि पर वनीकरण को बढ़ावा देना और भारतीय वनों के आनुवांशिक संसाधनों का संरक्षण करना है। राष्ट्रीय वन नीति, 1988 का सबसे उल्लेखनीय पहलू यह है कि इसमें वनों के प्रबंध में वनवासियों, आदिवासियों और उनके आसपास रहने वाले समुदायों को शामिल करने पर जोर दिया गया है।

समय की मांग


स्पष्ट है कि सख्त नियंत्रण और सजाओं वाली वन प्रबन्ध की शासकीय प्रणाली अतीत में पूर्णतया असफल रही है। निरन्तर विकास के लिए लोकतांत्रिक, विकेन्द्रीकृत और हिस्सेदारी पर आधारित वन प्रबन्धन आज की आवश्यकता है। पर्यावरण जगत में निरन्तर विकास आज सबसे अधिक चर्चित शब्द है। निरन्तर विकास का अर्थ पर्यावरणीय प्रणाली की क्षमता के अनुरूप मानव जीवन की क्वालिटी सुधारना है। इसके अनुसार अब ऐसी जनोन्मुखी नीतियाँ बनाना सम्भव हो गया है जो वनवासियों आदिवासियों को मानव परिसम्पत्तियों पर बोझ न समझें। निरन्तर विकास के सिद्धान्तों पर अमल करने के लिए पारिस्थितिकी, मानव विज्ञान और अर्थशास्त्र की अन्तर्क्रिया का उचित ज्ञान होना आवश्यक है। ऐसा होने पर ही वनों और वनवासियों का सुसंगत विकास हो सकेगा। वन प्रबन्धन वनों के उपयोग और संरक्षण के लिए प्रशासकीय, अर्थशास्त्रीय, सामाजिक, व्यावहारिक, वैधानिक, तकनीकी और वैज्ञानिक आयामों को समाहित करने वाली एक व्यापक धारणा है। निरन्तर वन प्रबन्धन में सतत और सुविचारित मानवीय हस्तक्षेप की आवश्यकता है जिससे कि वनों की पर्यावरण प्रणाली को बनाए रखा जा सके और उनकी पूरी हिफाजत की जा सके। विकेन्द्रीकृत और सहभागिता पर आधारित वन प्रबन्धन ही देश में वनों की कटाई और पर्यावरणीय ह्रास की दीर्घकालिक समस्याओं का एकमात्र हल है। 1988 की राष्ट्रीय वन नीति में वनों के प्रबन्धन के लिए वनों पर निर्भर गाँवों के स्थानीय लोगों को शामिल करने पर बल दिया गया है।

विचार की इस नई दिशा ने ‘संयुक्त वन प्रबन्धन’ के विकास का रास्ता दिखाया है और इसे आजकल बड़ा महत्व दिया जा रहा है। गैर सरकारी संगठन अब वनों की निरन्तर विकास पर विचार विमर्श हेतु ग्रामीणों तथा वन अधिकारियों को साथ लाने के लिए आगे आये हैं।

चूँकि विभिन्न क्षेत्रों के आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक तथा सांस्कृतिक विशेषताएँ अलग-अलग हैं, इसलिए वनों के प्रबन्ध में उनकी भागीदारी तथा उसका स्वरूप भी परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग ही होगा। आदिवासियों को साथ लेकर किया जाने वाला संयुक्त वन प्रबन्धन किसी एक क्षेत्र में तो सफल हो सकता है, पर हो सकता है कि अन्य क्षेत्रों में ऐसा न हो क्योंकि यह बहुत कुछ इस नई प्रणाली के बारे में आदिवासियों की समझ और उसके अनुसार अपने को ढालने की क्षमता पर निर्भर करता है। परन्तु देश के अनेक भागों में इस दिशा में गैर-सरकारी संगठनों द्वारा काम शुरू कर दिया गया है। आदिवासियों को प्रेरित करके संयुक्त वन प्रबन्धन का सुव्यवस्थित क्रियान्वयन तभी सम्भव है जब ग्राम-स्तर पर आदिवासियों के साथ-साथ सरकारी नौकरशाही के रवैये में भी अपेक्षित गुणात्मक और परिमाणात्मक परिवर्तन लाया जा सके। यहीं पर मानव-विज्ञानियों की भूमिका शुरू होती है। मानव विज्ञान सम्बन्धी मैदारी प्रणालियाँ संयुक्त वन प्रबन्धन के कार्यक्रम को अमल में लाने में काफी सहायक सिद्ध हुई हैं।

आदिवासियों, ग्रामीणों अथवा वन अधिकारियों के व्यवहार में परिवर्तन को भली-भाँति समझने के लिए गुणात्मक सूचना बहुत महत्त्वपूर्ण है। गुणात्मक सूचना व्यक्तिपरक, शाब्दिक और वर्णनात्मक होती है। उसके विपरीत परिमाणात्मक सहूचना वस्तुपरक होती है। इस विधि में कुछ गतिविधियों अथवा विशेषताओं का अवलोकन अन्तर्निहित है।- जैसे कि किस तरह अब आदिवासी लोग संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम में भाग लेने के बाद वन में प्रवेश करते हैं; पहले वे किस तरह का व्यवहार करते थे; अब वे किस तरह वन अधिकारियों से बात करते हैं तथा जलाऊ लकड़ी का अपना भाग संग्रहीत करने पर अब वे कैसा अनुभव करते हैं। सूक्ष्म योजना पर चर्चा अथवा गाँव के कुछ झगड़ों को निपटाने के लिए मध्यस्थ के रूप में काम करते समय वनकर्मी गाँव वालों के साथ समान स्तर पर बैठते हुए कैसा अनुभव करते हैं (क्या वे अभी भी दूरी बनाए रखते हैं या उनमें अभी भी कोई ग्रन्थि है)? इन सभी गतिविधियों का संयुक्त वन प्रबन्धन और वन, वनकर्मी तथा आदिवासियों के विकास के लिए निरन्तर बड़ी सावधानी से अध्ययन करने की आवश्यकता है।

देश के अनेक भागों में संयुक्त वन प्रबन्धन की सफलता ने समाज-विज्ञान और प्रबन्धन क्षेत्रों के शोधकर्ताओं के लिए सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने के अनेक द्वार खोल दिए हैं। संयुक्त वन प्रबन्धन में वन विभाग और वनवासियों को काफी जिममेदारियाँ और अधिकार दिए गए हैं। इन दोनों में बेहतर सहयोग और सुव्यवस्थित रूप से काम करने की विधि ने अनेक क्षेत्रों में संयुक्त वन प्रबन्धन को सफलता दिलाई है। संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम को और सफल बनाने के लिए आदिवासियों, अन्य समुदायों और वन अधिकारियों को अपने-अपने प्रतिमानों, रवैये, व्यवहार और कार्यविधि को पुनर्गठित करना होगा जिससे वे वन रक्षा समितियों जैसी नयी-नयी संस्थाओं का सृजन कर सकें और एक-दूसरे की समस्याओं, क्षमताओं और कमजोरियों को समझने तथा चर्चा करने के लिए समान भौतिक स्तर पर बैठ सकें। यह देखा गया है कि वन रक्षा समिति में गाँव की महिलाओं के भाग लेने से संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम को और ज्यादा सफलता मिली है। महिला सदस्याएँ अपने निर्धारित संरक्षित वनों से दूसरे गाँवों की महिलाओं को लकड़ियाँ इकट्ठी नहीं करने देती।

ग्राम समुदाय के सदस्य आयु, लिंग, जाति, जनजाति, व्यवसाय आदि के आधार पर अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु यदि वे वन की सुरक्षा के लिए एक रहते हैं तो निश्चय ही संयुक्त वन प्रबन्धन कार्यक्रम पूरे देश में सफल हो सकता है।

भारत सरकार के वन विभाग ने भारतीय वन सेवा के अधिकारियों के लिए संयुक्त वन प्रबन्धन, सहभागिता पर आधारित ग्रामीण मूल्यांकन तकनीक तथा महिलाओं की भागीदारी आदि से सम्बन्धित विषयों पर अनिवार्य प्रशिक्षण देना शुरू किया है जिससे वनकर्मियों को उनके महत्त्वपूर्ण कार्य का बोध कराया जा सके। इसी पर हमारे वनों का भविष्य और निरन्तर विकास निर्भर है।

(लेखक राँची विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान विभाग के प्राध्यापक होने के साथ-साथ ‘साउथ एशियन एन्थ्रोपॉलोजिस्ट’ के सम्पादक भी हैं।)

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