“सन 1949 में स्थापित इस विद्यालय (राजकीय दीक्षा विद्यालय टिहरी) द्वारा 946 छात्राध्यापक अभी तक प्रशिक्षित हो चुके हैं। इस संस्था के भूतपूर्व प्रधानाचार्य श्री चिरंजीलाल असवाल इस वर्ष राजकीय सेवा से निवृत्त हो चुके हैं और उनकी संरक्षता में कई कठिनाइयों से होते हुए भी इस संस्था ने जो प्रगति की है वह सराहनीय है। मुझे अपने टिहरी भ्रमण काल में श्री असवाल की सर्वत्र प्रशंसा सुनने को मिली है। मेरी आशा है कि वे स्वस्थ परम्पराएँ जिनकी नींव वे डाल गए हैं, भविष्य में अधिक सुदृढ़ हो सकेंगी।”
उपर्युक्त पंक्तियाँ तत्कालीन शिक्षा उप-निदेशक, पर्वतीय मण्डल, नैनीताल, श्री शुकदेव पन्त ने राजकीय दीक्षा विद्यालय टिहरी की अपनी निरीक्षण आख्या में 18 नवम्बर 1967 को लिखी थीं। आचार्य चिरंजीलाल असवाल ने टिहरी में राजकीय दीक्षा विद्यालय की नींव डाली और उसे पल्लवित-पुष्पित किया। टिहरी राज्य के उत्तर-प्रदेश में विलीन होने के संक्रान्ति काल में उन्होंने संयुक्त टिहरी (टिहरी-उत्तरकाशी) जनपद में शिक्षा विभाग को गतिशील बनाया। टिहरी राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना होने पर वे टिहरी रियासत के विद्यालय निरीक्षक नियुक्त किए गए।
सन 1948 तक टिहरी राज्य में मात्र छः मिडिल और 92 प्राइमरी स्कूल थे। विद्यालय निरीक्षक के रूप में आचार्य असवाल ने दुर्गम-दूरस्थ क्षेत्रों का पैदल भ्रमण कर रियासत में शिक्षा की कमी का प्रत्यक्ष अनुभव किया। केवल एक वर्ष में ही उन्होंने जनपद के विभिन्न भागों में ढाई सौ विद्यालयों की स्थापना करवा दी। बांगर और बड़मा जैसे अत्यन्त दुर्गम क्षेत्रों में आज भी सुगम रास्ते नहीं हैं। कर्मचारी वहाँ जाने के लिये कतराते हैं। श्री असवाल चट्टानों और पेड़ों की टहनियाँ पकड़-पकड़ कर वहाँ गए और ग्रामीणों से मिल कर उनके गाँवों में विद्यालयों की स्थापना की।
टिहरी नगर के निकट सोनार गाँव, अठूर के निवासी होने के कारण श्री असवाल अपने जनपद से भावनात्मक रूप से जुड़े थे। यद्यपि देश की आजादी के लिये उन्होंने किसी आन्दोलन में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लिया, फिर भी आजादी का उत्साह उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। तभी तो उन्होंने रात-दिन एक करके जनपद में शिक्षा विभाग की आधार भित्ति को सुदृढ़ किया। टिहरी रियासत के स्वतंत्र होते ही जनता में शिक्षा के लिये जो उत्साह पैदा हुआ था, उसको संगठित कर उन्होंने सही दिशा प्रदान की। टिहरी से लगाव होने के कारण वे रियासत के विलीनीकरण के बाद भी टिहरी में ही जमे रहे।
आगरा विश्व विद्यालय से सन 1933 में इतिहास में एम.ए. और बनारस विश्वविद्यालय से सन 1935 में बी.टी. करने के बाद उन्होंने एक वर्ष राजनन्द गाँव, मध्य प्रदेश और छः वर्ष देवबन्द (सहारनपुर) के विद्यालयों में अध्यापन का कार्य किया किन्तु अपने पहाड़ से गहरे जुड़े होने के कारण उनका मन वहाँ नहीं लगा।
सन 1940 में टिहरी में इण्टर की कक्षाएँ खुली और सन 1942 में इतिहास और नागरिक शास्त्र विषय भी खुल गए। श्री असवाल को उनके गुरु स्वर्गीय मायादन्त जी गैरोला की संस्तुति पर प्रताप इण्टर कॉलेज में इतिहास और नागरिक शास्त्र के प्रवक्ता के पद पर 18 जुलाई 1942 को नियुक्त किया गया। प्रख्यात पर्यावरणविद श्री सुन्दरलाल बहुगुणा ने एक लेख में लिखा है-
सन 1942 के तूफानी दिन थे। हमारे कॉलेज (प्रताप इण्टर कॉलेज, टिहरी) में पहली बार इण्टर में इतिहास की कक्षाएँ खुली थी। हम उत्साहपूर्वक अपने नए गुरु जी की प्रतीक्षा कर रहे थे और एक दिन फाटक के पास चम्पा के पेड़ के नीचे शिक्षक की कुर्सी पर श्री चिरंजीलाल जी विराजमान थे। बन्द गले का कोट, पतलून, काली टोपी और हल्का रंगीन चश्मा पहने हुए।… हम पर उनका रंग चढ़ गया था फिर भी शिक्षकों के उपनाम रखने की अपनी आदत से हम बाज नहीं आए थे। परन्तु उनकी गम्भीरता और विद्वता की छाप हम पर पड़ चुकी थी। हमने उनको नाम दिया, ‘महासागर’।
‘महासागर’ जी ने इतिहास, हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत में छात्रों को ज्ञान की गहराइयों तक पहुँचाया और 25 वर्षों तक चंचल और उदण्ड छात्रों को भी एकाग्रता और गम्भीरता के गुणों में डुबो कर उन्हें रुचिपूर्वक अध्ययन में प्रवृत्त किया। अपने सेवा काल में आचार्य असवाल इण्टर कॉलेज से दीक्षा विद्यालय और दीक्षा विद्यालय से इण्टर कॉलेज में स्थानान्तरित होते रहे। उनके टिहरी प्रेम ने उन्हें पदोन्नत होने पर भी टिहरी से बाहर नहीं जाने दिया। उन्होंने छात्रों और शिक्षकों को प्राचीन आचार्यों की सादा जीवन और उच्च विचारों वाली गौरवमयी परम्परा का निर्वाह कर भारतीय संस्कृति के पुनीत आदर्शों से प्रेम करना सिखाया। छात्रों के सुख-दुख में उनकी वैयक्तिक उलझनों और शैक्षणिक समस्याओं के समाधान में वे हमेशा रुचि लेते रहे। अपने छात्रों को वे उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि सहित व्यक्तिगत रूप से जानते थे। उन्हें छात्रों की असीम श्रद्धा, सम्मान और प्रेम मिला। देश के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न पदों पर कार्यरत उनके छात्रों के पत्र आज भी उनके नाम आते रहते हैं।
सरकारी सेवा से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात श्री असवाल चुप नहीं बैठे रहे। वे अच्छी तरह जानते थे कि जनपद टिहरी के मेधावी और प्रतिभाशाली छात्र इण्टर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मजबूरन पढ़ाई छोड़ देते थे क्योंकि जनपद में डिग्री कॉलेज नहीं था। इस कमी को पूरा करने के उद्देश्य से वे राजमाता कमलेन्दुमाति शाह के साथ तत्कालीन राज्यपाल श्री बी.गोपाल रेड्डी से मिले और उनसे टिहरी में डिग्री कॉलेज खोलने के लिये निवेदन किया। राज्यपाल महोदय ने पन्द्रह हजार रुपए एकत्रित करने की शर्त रखी। इस पर श्री असवाल ने जनपद के विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर सभा, सम्मेलन, पर्चे, पोस्टर आदि के माध्यम से जनता को जागृत किया। अनेकों व्यक्तियों और संस्थाओं के पास जाकर डिग्री कॉलेज के लिये चन्दा एकत्रित किया। परिणाम स्वरूप जुलाई 1969 में टिहरी में डिग्री कॉलेज की स्थापना हुई।
डिग्री कॉलेज की स्थापना के बाद श्री असवाल ने मद्य-निषेध का काम हाथ में लिया। उन्होंने मद्य-निषेध आन्दोलन का नेतृत्व किया। मद्य निषेध समिति के अध्यक्ष के रूप में 17 मार्च 1970 को बन्दी बनाकर उन्हें टिहरी जेल में भेज दिया गया। उनके जेल जाने से आन्दोलन और तीव्र हो गया। जिससे उत्तर प्रदेश सरकार को मद्य निषेध की घोषणा करनी पड़ी। इसके बाद ही अन्य सहयोगियों के साथ उन्हें जेल से सम्मान सहित रिहा किया गया।
टिहरी रियासत के विलीन होने पर श्री असवाल की सेवा भावना से प्रभावित होकर तत्कालीन जिलाधीश ने उन्हें सार्वजनिक पुस्तकालय टिहरी के अवैतनिक मंत्री के पद पर नियुक्त किया। यहाँ उन्होंने 26 वर्षों तक अवैतनिक सेवा कार्य किया। श्री असवाल के सेवा निवृत्त होने पर टिहरी के नागरिकों ने शिक्षक दिवस के अवसर पर 5 सितम्बर 1968 को उनका नागरिक अभिनन्दन किया, जिससे उनकी महत्त्वपूर्ण सेवाओं की सराहना की गई।
28 अक्टूबर सन 1908 को जन्मे श्री असवाल छः वर्ष की उम्र में मातृहीन और ग्यारह वर्ष की उम्र में पितृहीन हो गए थे। उनके चाची-चाचाओं ने ही उनका पालन-पोषण किया और उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की। उनके निवास स्थान में स्वामी रामतीर्थ आया करते थे और उनके साथ उनके शिष्य स्वामी नारायण भी आते थे। अनेकों साधु-महात्मा उनके परिवार के निजी अतिथि-गृह में कई दिनों तक विश्राम किया करते थे। उनके परिवार जनों से महात्माओं के घनिष्ठ सम्बन्ध थे। जब श्री असवाल लखनऊ कॉलेज में बी.ए. में पढ़ते थे स्वामी नारायण उनके अभिभावक थे। स्वामी तपोवन और स्वामी चिन्मयानन्द उनके अतिथि गृह में कुछ दिनों के लिये विश्राम करने आया करते थे। अतिथि सेवा और साधु-महात्माओं का सत्संग उनके संस्कारों में विद्यमान है।
राजमाता कमलेन्दु मति शाह के द्वारा महाराजा नरेन्द्र शाह की पुण्य स्मृति में स्थापित नरेन्द्र महिला महाविद्यालय के सलाहकार के रूप में उन्होंने पन्द्रह वर्षों तक अवैतनिक सेवा की। जीवन पर्यन्त इस महाविद्यालय की सेवा करने का उनका व्रत टिहरी बाँध के कारण पूरा नहीं हो सका। जिन्दगी भर टिहरी से जुदा न होने वाले आचार्य असवाल को टिहरी बाँध ने वृद्धावस्था में टिहरी से विस्थापित कर दिया। अपने खेत-खलिहान, मकान, बाग-बगीचे को टिहरी बाँध प्रशासन के सुपुर्द कर 23 जुलाई 1983 को टिहरी की धरती को नमस्कार कर वे देहरादून चले आए। देहरादून में रहते हुए भी अपनी मृत्यु 1 जून 1995 तक वे सनक की हद तक टिहरी की स्मृतियों में डूबे रहे। उन्होंने रियासतकालीन टिहरी में शिक्षा की ज्योति को गाँव-गाँव, घर-घर तक पहुँचाने का कार्य किया। सरकारी सेवा से अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होंने उच्च शिक्षा से वंचित टिहरी गढ़वाल में डिग्री कॉलेज की स्थापना करवाई जो आज हेमवतीनन्दन गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय का एक अंग है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये की गई उनकी सेवाओं को सदैव याद किया जाता रहेगा।
एक थी टिहरी (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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