अभ्यारण्य में भी नहीं अभय

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्ष यहां पर बाघों की तादाद 31 मानी गई थी इस साल यहां 27 बाघ हैं। सीएजी की रिपोर्ट से यह खुलासा हो चुका है कि राजस्थान में रणथंभौर सहित दूसरे इलाके से बाघों के विनाश का सबसे प्रमुख कारण उनका अंधाधुंध शिकार होना है। इस दौरान कई बड़े शिकारी पकड़े गए और शिकार के बड़े मामलों का खुलासा भी हुआ लेकिन यहां के वन्य जीव प्रबंधन ने शायद कोई सबक नहीं सीखा है।

राजस्थान में जंगल के राजा पर खतरा बरकरार है। अपनी सुरक्षा के लिए बनाए गए बाघ परियोजना क्षेत्रों में बाघ महफूज नहीं हैं। उनकी सुरक्षा पर लगातार खतरा मंडरा रहा है। ताजा मामला राजस्थान के सबसे सुरक्षित और आकर्षक माने जाने वाले विख्यात रणथंभौर बाघ परियोजना क्षेत्र का है जहां से चार बाघों के लापता होने के बारे में एक सरकारी रिपोर्ट ने खुलासा किया है। कुछ साल पहले भी यहां बाघों की मौतों का मामला गर्मा चुका है लेकिन सरकारी अमले ने पिछली घटनाओं से सबक लेने की कोई कोशिश नहीं की। यह सरकारी रिपोर्ट राजस्थान सरकार के वन विभाग के अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक ए.सी. चौबे ने सरकार को सौंपी है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले नौ महीने से भी अधिक समय के दौरान रणथंभौर अभ्यारण्य से लापता हुए चार बाघों का अभी तक कोई पता नहीं चल सका है। लापता हुए बाघ हैं टी-21, टी-27, टी-29 और टी-40। इन बाघों के बारे में वन विभाग का कोई अधिकारी यह कहने की स्थिति में नहीं है कि ये जिंदा हैं या मर गए। इन बाघों के लापता होने के बारे में सरकारी स्तर पर पहले से ही कई तरह की आशंकाएं जताए जा रही थीं।

जब मामला नहीं सुलझा तो सरकार ने इसके तथ्यों का पता लगाने का काम चौबे को सौंपा। जिन्होंने दो महीने के बाद यह बताया कि ये बाघ लापता हो गए हैं लेकिन वे यह साबित नहीं कर पाए कि ये बाघ अभी जिंदा हैं या मर गए हैं। चार बाघों के लापता होने के बावजूद इस रिपोर्ट में रणथंभौर में बाघों की मॉनिटरिंग व्यवस्था की तारीफ करते हुए कहा गया है कि बाघों के लापता होने की जिम्मेदारी किसी अधिकारी अथवा कर्मचारी पर थोपी नहीं जा सकती। इससे राजस्थान में सरकारी मशीनरी की बाघों और अभ्यारण्यों में रह रहे जीवों की सुरक्षा के प्रति उदासीनता स्पष्ट दिखाई देती है। राजस्थान के लिए यह कोई नई बात नहीं है। कुछ साल पहले राजस्थान के सरिस्का अभ्यारण्य से हुए बाघों के सफाए के बाद वनों और वन्यजीव प्रबंधन पर राज्य सरकार की ओर से गठित की गई स्टेट एंपावर्ड कमेटी ने बाघ परियोजनाओं को सफेद हाथी करार देकर इनके प्रबंधन पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि एक उदासीन, आत्मसंतुष्ट, लापरवाह और अप्रभावी परियोजना बाघों को प्रभावी सुरक्षा प्रदान करने हेतु मूलभूत वन एवं वन्यजीव कानूनों को लागू करने में विफल रही है।

रणथंभौर अभ्यारण्य में बाघों की संख्या लगातार कम हो रही हैरणथंभौर अभ्यारण्य में बाघों की संख्या लगातार कम हो रही हैइसके साथ ही सीएजी की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि राजस्थान के दोनों बाघ परियोजना क्षेत्रों सरिस्का और रणथंभौर बाघों को लुप्त होने से बचाने के लिए शुरू की गई बाघ परियोजनाओं के उद्देश्यों से परे प्रतीत होते हैं। इन दोनों ही अभ्यारण्यों में वन्यजीवों के शिकार एवं वन भूमि पर अतिक्रमण के नियंत्रण में पूर्ण विफलता नजर आती है। चार बाघों के लापता होने से रणथंभौर में बाघों की सुरक्षा पर सवालिया निशान पहली बार लगा हो ऐसा नहीं है। इससे पहले भी यहां जंगल के राजा की हिफाजत वन्यजीव प्रेमियों के लिए चिंता का कारण बनती रही है और समय-समय पर यह बात उजागर होने के बावजूद राजस्थान सरकार इस ओर गंभीरता नहीं दिखा सकी है। राजस्थान में रणथंभौर बाघ परियोजना क्षेत्र सवाईमाधोपुर और करोली जिलों में कुल 1,394 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है।

इसमें रणथंभौर नेशनल पार्क 282 वर्ग किलोमीटर में है जबकि इसके बफर जोन में तीन अभ्यारण्य सवाईमाधोपुर अभ्यारण्य, सवाई मानसिंह अभ्यारण्य और कैलादेवी अभ्यारण्य आते हैं। रणथंभौर देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में अपने बाघों और अन्य वन्यजीवों के लिए विख्यात है लेकिन यहां इन जीवों की सुरक्षा के प्रति सरकारी उदासीनता का नतीजा है कि यहां शिकार और दूसरे कारणों से बाघों की तादाद में लगातार कमी आती जा रही है। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि सन् 2004 में रणथंभौर में की गई वन्यजीव गणना में बाघों की तादाद 47 थी लेकिन इसके अगले साल 2005 में यहां बाघों की संख्या खतरनाक तरीके से गिरकर 26 पर पहुंच गई। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्ष यहां पर बाघों की तादाद 31 मानी गई थी इस साल यहां 27 बाघ हैं। सीएजी की रिपोर्ट से यह खुलासा हो चुका है कि राजस्थान में रणथंभौर सहित दूसरे इलाके से बाघों के विनाश का सबसे प्रमुख कारण उनका अंधाधुंध शिकार होना है। इस दौरान कई बड़े शिकारी पकड़े गए और शिकार के बड़े मामलों का खुलासा भी हुआ लेकिन यहां के वन्य जीव प्रबंधन ने शायद कोई सबक नहीं सीखा है।

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