लकड़ी से जलने वाले पारम्परिक चूल्हे की बनावट इस प्रकार की होती है कि उसमें पैदा होने वाली ऊष्मा का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता। लकड़ी के ठीक से नहीं जल पाने के कारण उसमें से धुआं भी काफी उठता है और वातावरण प्रदूषित होता है। इस समस्या के निराकरण के लिए भरत ने चूल्हे में वायु के समुचित प्रवाह का मार्ग तैयार कर लकड़ी के उचित जलावन का तरीका अपनाया जिससे ऊष्मा का बेहतर उपयोग हो सके।चालीस वर्षीय भरत अगरावत ने लकड़ी का एक ऐसा बहुउद्देशीय स्टोव बनाया है, जिसमें अलग-अलग ऊँचाइयों पर दो बर्नर दिए गए हैं। इसमें ईन्धन के तौर पर लकड़ी और कोयले, दोनों का इस्तेमाल हो सकता है।
भरत ने दसवीं तक शिक्षा प्राप्त की है। वे 25 वर्षों से कृषि उपकरणों की कार्यशाला चला रहे हैं। उनके परिवार में पिता, दादी, पत्नी और तीन बच्चे हैं। भरत के पिता स्वयं एक प्रयोगधर्मी व्यक्ति हैं। उन्हें एनआईएफ (राष्ट्रीय नवाचार कोष) से राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार मिल चुका है। भरत के पिता, अमृत भाई मन्दिर में पुजारी थे। पाँचवीं कक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी और कृषि श्रमिक के रूप में काम करने लगे थे। उन्होंने शुरू में कृषि उपकरणों की एक छोटी-सी कार्यशाला शुरू की। बाद में वे लोहे के दरवाजे, बॉक्स, अनाज रखने की टंकियाँ बनाने लगे। भरत जब छठी कक्षा में थे, तभी से अपने पिता के कार्य में मदद करने लगे।
भरत ने अनेक उपकरण बनाए हैं। इनमें लेमन कटर, कुएँ से पानी खींचने के लिए एक अभिनव पवन-चक्की और अश्वशक्ति का विद्युत हल-सह-ट्रैक्टर जिसे 360 डिग्री के कोणों में, अर्थात चारों ओर सभी दिशाओं में घुमाया जा सकता है, बनाया है। परिष्कृत स्टोव उनका प्रमुख आविष्कार है।
उन्होंने सर्वप्रथम एक नये प्रकार की पवन-चक्की बनाई, जिसमें भार का सन्तुलन करने वाली गियर बॉक्स प्रणाली का इस्तेमाल किया गया था। इसका डिजाइन इस प्रकार तैयार किया गया था कि उससे 2000-2200 लीटर प्रति घण्टे की गति से कुएँ से पानी निकाला जा सके। वे पर्यावरण प्रेमी हैं और विद्युत उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों का किफायती और पर्या-हितैषी ढंग से इस्तेमाल करने की आवश्यकता को भलीभाँति समझते हैं। इस तथ्य की तस्दीक जीईडीए बड़ोदरा ने भी की है। भरत के इस रुझान ने उन आविष्कारों को भी प्रभावित किया है जिनका विकास उन्होंने किया। उनके सभी प्रयासों में ऊर्जा का पूर्ण उपयोग एक स्थायी भाव है। उनके परिष्कृत स्टोव में भी यही बात लागू होती है।
लकड़ी से जलने वाले पारम्परिक चूल्हे की बनावट इस प्रकार की होती है कि उसमें पैदा होने वाली ऊष्मा का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता। लकड़ी के ठीक से नहीं जल पाने के कारण उसमें से धुआं भी काफी उठता है और वातावरण प्रदूषित होता है। भरत ने लकड़ी के चूल्हे में धुआं निकलने के लिए एक पाइप लगाकर देखा तो पाया कि उसमें से काफी ऊष्मा बाहर जा रही है, जिससे यह साफ हो गया कि मौजूदा लकड़ी के चूल्हे की सबसे बड़ी समस्या, ऊष्मा का पूर्णरूपेण उपयोग नहीं होना है।
इस समस्या के निराकरण के लिए उन्होंने चूल्हे में वायु के समुचित प्रवाह का मार्ग तैयार कर लकड़ी के उचित जलावन का तरीका अपनाया जिससे ऊष्मा का बेहतर उपयोग हो सके। इसमें और सुधार करते हुए उन्होंने एक ऐसी व्यवस्था की जिससे ऊष्मा के एक ही स्रोत से एक साथ कई बर्तनों में खाना पकाया जा सके।
भरत ने इस चूल्हे का पहला मॉडल 1999 में तैयार किया। बाद में उसमें कुछ और सुधार कर वर्तमान बहुउद्देशीय चूल्हा तैयार किया। अलग-अलग ऊँचाई पर बने दो बर्नरों वाले इस चूल्हे में ईन्धन एक ही स्थान पर जलाया जाता है।
नवाचार उनके अनेक नवाचारों में से केवल खाना पकाने वाले चूल्हे को ही विस्तार से समझाने के लिए चुना गया है। समानान्तर में जुड़े तीन चैम्बर वाले स्टोव का पूरा विवरण कर्नाटक करण्ट साइंस के 7/87 के अंक की पृष्ठ संख्या 926-931 में प्रकाशित लेख ‘ऐस्ट्रा स्टोव’ (जगदीश के.एस., 2004) में दिया गया है। परन्तु ये चैम्बर ऊर्ध्वाकार रूप से जुड़े हुए हैं।
प्रस्तुत प्रकरण में, स्टोव में दो चैम्बर हैं। दोनों में एक-एक बर्नर खाना पकाने के लिए और एक-एक पानी गर्म करने के लिए गीजर के तौर पर इस्तेमाल के लिए दिया गया है। दोनों बर्नर एक साथ इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इससे समय की बचत भी होती है और चूल्हे में उत्पन्न ऊष्मा का पूर्णरूपेण उपयोग होता है। ऊष्मा के चैम्बर तीन अलग-अलग स्तरों पर बने होते हैं ताकि उत्पन्न तापीय ऊर्जा का पूर्ण उपयोग हो सके। इन चैम्बरों को एक चिमनी से जोड़ा गया है ताकि उसमें से निकलने वाली ऊर्जा का भी उपयोग हो सके।
मुख्य चैम्बर में ऊष्मा को रोकने के लिए कच्ची मिट्टी का उपयोग किया गया है। पहले चैम्बर के अगल-बगल हवा आने-जाने के लिए जगह दी गई है ताकि चूल्हा इतना ठण्डा रह सके कि उसको छूने पर इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के हाथ न जलें। भरत इस चूल्हे में और भी सुधार करने के काम में लगे हुए हैं और उसमें एक और चैम्बर जोड़ना चाहते हैं ताकि उसका उपयोग स्टीम कुकिंग अर्थात भाप से खाना पकाने के लिए हो सके। वह चूल्हे की ऊष्मा कार्य-कुशलता बढ़ाना, उसका भार कम करना और जीआई शीट से निर्माण कर उसकी लागत कम करना चाहते हैं। वह तरह-तरह के बर्नरों के साथ चूल्हे को अनेक रूप देना चाहते हैं।
वह तीन दर्जन से अधिक स्टोव के मौजूदा मॉडल को स्थानीय स्तर पर बेच चुके हैं और स्टोव के दो व्यावसायिक संस्करण पेश करने की योजना बना रहे हैं। इसमें से एक में दो बर्नर तथा एक गीजर होगा। इस उत्पाद की सामाजिक उपयोगिता काफी है, साथ ही व्यावसायिक सम्भावना भी।
भरत ने दसवीं तक शिक्षा प्राप्त की है। वे 25 वर्षों से कृषि उपकरणों की कार्यशाला चला रहे हैं। उनके परिवार में पिता, दादी, पत्नी और तीन बच्चे हैं। भरत के पिता स्वयं एक प्रयोगधर्मी व्यक्ति हैं। उन्हें एनआईएफ (राष्ट्रीय नवाचार कोष) से राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार मिल चुका है। भरत के पिता, अमृत भाई मन्दिर में पुजारी थे। पाँचवीं कक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी और कृषि श्रमिक के रूप में काम करने लगे थे। उन्होंने शुरू में कृषि उपकरणों की एक छोटी-सी कार्यशाला शुरू की। बाद में वे लोहे के दरवाजे, बॉक्स, अनाज रखने की टंकियाँ बनाने लगे। भरत जब छठी कक्षा में थे, तभी से अपने पिता के कार्य में मदद करने लगे।
भरत ने अनेक उपकरण बनाए हैं। इनमें लेमन कटर, कुएँ से पानी खींचने के लिए एक अभिनव पवन-चक्की और अश्वशक्ति का विद्युत हल-सह-ट्रैक्टर जिसे 360 डिग्री के कोणों में, अर्थात चारों ओर सभी दिशाओं में घुमाया जा सकता है, बनाया है। परिष्कृत स्टोव उनका प्रमुख आविष्कार है।
उन्होंने सर्वप्रथम एक नये प्रकार की पवन-चक्की बनाई, जिसमें भार का सन्तुलन करने वाली गियर बॉक्स प्रणाली का इस्तेमाल किया गया था। इसका डिजाइन इस प्रकार तैयार किया गया था कि उससे 2000-2200 लीटर प्रति घण्टे की गति से कुएँ से पानी निकाला जा सके। वे पर्यावरण प्रेमी हैं और विद्युत उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों का किफायती और पर्या-हितैषी ढंग से इस्तेमाल करने की आवश्यकता को भलीभाँति समझते हैं। इस तथ्य की तस्दीक जीईडीए बड़ोदरा ने भी की है। भरत के इस रुझान ने उन आविष्कारों को भी प्रभावित किया है जिनका विकास उन्होंने किया। उनके सभी प्रयासों में ऊर्जा का पूर्ण उपयोग एक स्थायी भाव है। उनके परिष्कृत स्टोव में भी यही बात लागू होती है।
उत्पत्ति
लकड़ी से जलने वाले पारम्परिक चूल्हे की बनावट इस प्रकार की होती है कि उसमें पैदा होने वाली ऊष्मा का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता। लकड़ी के ठीक से नहीं जल पाने के कारण उसमें से धुआं भी काफी उठता है और वातावरण प्रदूषित होता है। भरत ने लकड़ी के चूल्हे में धुआं निकलने के लिए एक पाइप लगाकर देखा तो पाया कि उसमें से काफी ऊष्मा बाहर जा रही है, जिससे यह साफ हो गया कि मौजूदा लकड़ी के चूल्हे की सबसे बड़ी समस्या, ऊष्मा का पूर्णरूपेण उपयोग नहीं होना है।
इस समस्या के निराकरण के लिए उन्होंने चूल्हे में वायु के समुचित प्रवाह का मार्ग तैयार कर लकड़ी के उचित जलावन का तरीका अपनाया जिससे ऊष्मा का बेहतर उपयोग हो सके। इसमें और सुधार करते हुए उन्होंने एक ऐसी व्यवस्था की जिससे ऊष्मा के एक ही स्रोत से एक साथ कई बर्तनों में खाना पकाया जा सके।
भरत ने इस चूल्हे का पहला मॉडल 1999 में तैयार किया। बाद में उसमें कुछ और सुधार कर वर्तमान बहुउद्देशीय चूल्हा तैयार किया। अलग-अलग ऊँचाई पर बने दो बर्नरों वाले इस चूल्हे में ईन्धन एक ही स्थान पर जलाया जाता है।
नवाचार उनके अनेक नवाचारों में से केवल खाना पकाने वाले चूल्हे को ही विस्तार से समझाने के लिए चुना गया है। समानान्तर में जुड़े तीन चैम्बर वाले स्टोव का पूरा विवरण कर्नाटक करण्ट साइंस के 7/87 के अंक की पृष्ठ संख्या 926-931 में प्रकाशित लेख ‘ऐस्ट्रा स्टोव’ (जगदीश के.एस., 2004) में दिया गया है। परन्तु ये चैम्बर ऊर्ध्वाकार रूप से जुड़े हुए हैं।
प्रस्तुत प्रकरण में, स्टोव में दो चैम्बर हैं। दोनों में एक-एक बर्नर खाना पकाने के लिए और एक-एक पानी गर्म करने के लिए गीजर के तौर पर इस्तेमाल के लिए दिया गया है। दोनों बर्नर एक साथ इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इससे समय की बचत भी होती है और चूल्हे में उत्पन्न ऊष्मा का पूर्णरूपेण उपयोग होता है। ऊष्मा के चैम्बर तीन अलग-अलग स्तरों पर बने होते हैं ताकि उत्पन्न तापीय ऊर्जा का पूर्ण उपयोग हो सके। इन चैम्बरों को एक चिमनी से जोड़ा गया है ताकि उसमें से निकलने वाली ऊर्जा का भी उपयोग हो सके।
मुख्य चैम्बर में ऊष्मा को रोकने के लिए कच्ची मिट्टी का उपयोग किया गया है। पहले चैम्बर के अगल-बगल हवा आने-जाने के लिए जगह दी गई है ताकि चूल्हा इतना ठण्डा रह सके कि उसको छूने पर इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के हाथ न जलें। भरत इस चूल्हे में और भी सुधार करने के काम में लगे हुए हैं और उसमें एक और चैम्बर जोड़ना चाहते हैं ताकि उसका उपयोग स्टीम कुकिंग अर्थात भाप से खाना पकाने के लिए हो सके। वह चूल्हे की ऊष्मा कार्य-कुशलता बढ़ाना, उसका भार कम करना और जीआई शीट से निर्माण कर उसकी लागत कम करना चाहते हैं। वह तरह-तरह के बर्नरों के साथ चूल्हे को अनेक रूप देना चाहते हैं।
वह तीन दर्जन से अधिक स्टोव के मौजूदा मॉडल को स्थानीय स्तर पर बेच चुके हैं और स्टोव के दो व्यावसायिक संस्करण पेश करने की योजना बना रहे हैं। इसमें से एक में दो बर्नर तथा एक गीजर होगा। इस उत्पाद की सामाजिक उपयोगिता काफी है, साथ ही व्यावसायिक सम्भावना भी।
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Post By: birendrakrgupta