इस कहानी को बताने की वजह थी कि अकाल की स्थिति में विश्वामित्र जैसे विचारवान पुरुष का कहां तक पतन हो जाता है। अपने स्थान से च्यूत होने के बाद मांगी भीख नहीं मिलती है और तब पैदा हुई परिस्थिति दुर्भिक्ष कहलाती है।
जाने के पहले अंग्रेज दो बातें छोड़ गए। एक तो यह कि अकाल सूखे से निपटने के लिए जो सिंचाई योजनाएं अगर आर्थिक रूप से सरकार को फायदा न पहुंचाती हो और उनसे थोड़ा बहुत नुकसान भी होता हो तो उन्हें चलाना चाहिए क्योंकि इन योजनाओं की वजह से सिंचित इलाके में कृषि उत्पादन के अलावा और भी कई आर्थिक गतिविधियां चलती हैं। जिससे जनता को और सरकार को फायदा पहुंचाता है। दूसरी बात यह है कि बड़े बांधो से देश की काया पलट दी जा सकती है। एक कथा के अनुसार त्रेता और द्वापर युग के संधि काल में बारह साल तक पानी नहीं बरसा और अकाल जैसी स्थिति पैदा हो गई। छोटे-छोटे जलाशय एकदम सुख गए। जलाभाव के कारण बाजार-हाट बंद हो गए। मांगलिक उत्सव ना के बराबर थे। खेती चौपट हो गई। नगर के अधिकांश भाग उजाड़ हो गए तथा गांव और घर जल गए। चोरों और भूखे लोगों द्वारा लूट-पाट का भय चारों ओर व्याप्त हो गया। लोग हिंसा के भय से एक दूसरे से डरने लगे। बालक और बूढ़े गए। गाय, भेड़, बकरी और भैंसे प्रायः समाप्त हो गई। औषधियों के समूह (अनाज और फल आदि) नष्ट हो गए।
चारों ओर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़ते थे। ऐसे दुर्दिन में महर्षि विश्वामित्र भूख से पीड़ित होकर अपना परिवार और आश्रम छोड़ कर भोजन की तलाश में निकले।
घुमते-घुमते उन्हें जब कहीं कुछ नहीं मिला तो वे एक हिंसक समूह की बस्ती में पहुंचे जहां मुर्दों के ऊपर से उतारे कपड़े टंगे थे और उन्हीं पर चढ़ाए गए फूलों से घर सजाए गए थे। गधों के गूंजने की आवाजें वहां सुनाई पड़ती थी। मुर्गे भी कम नहीं थे। वहां मंदिरों से उल्लूओं की आवाजे आती थीं और कुत्तों के समूह उनके घरों को घेरे हुए थे।
भूखे प्यासे विश्वामित्र ने पहले तो वहां घर-घर जाकर भीख मांगी फिर कहीं से कुछ ना मिलने की स्थिति में एक घर में घुसकर चोरी करने की ठानी और प्रवेश कर गए। घर में गृह स्वामी लेटा हुआ था। पर नींद में नहीं था। जैसे ही विश्वामित्र घर में घुसे, वह चोर समझ कर हमला करता इससे पहले ही विश्वामित्र ने अपना परिचय उसे दिया और प्रायोजन बताकर, जल्दी ही मारे गए एक कुत्ते का मांस भोजन के निमित्त मांगा। उन्होंने कहा कि वे बहुत भूखे हैं और प्राण रक्षा के लिए कुत्ते का मांस को ले जाना चाहते हैं और बताया कि भूख मनुष्य को कलंकित कर देती है। चेतना को लुप्त कर देती है। शरीर शिथिल हो जाता और श्रवण शक्ति चली जाती है। भूखे मनुष्य को कुछ भी करने में लज्जा नहीं आती और उसकी भक्ष्य और अभक्ष्य के बीच निर्णय करने की क्षमता भी समाप्त हो जाती है और इसलिए वे कुत्ते का मांस ले जाएंगे।
गृह स्वामी ऋषि की बात को सुनकर बड़ा आहत हुआ। उसका कहना था, मुनिवर ऐसा कोई काम न करें जिससे उनका धर्म भ्रष्ट हो जाए और मांस की वजह से उनकी तपस्या का नाश ना हो जाए। उनका कहना था कि अच्छे पुरुष अपने प्राण का त्याग भले ही कर दें पर वे अभक्ष्य का सेवन कभी नहीं कर सकते और उपवास के माध्यम से ही अपने अभीष्ट को पा लेते हैं।
विश्वामित्र जैसे ऋषि को धर्म का उपदेश करने में अपने आप को अक्षम मानते हुए गृह स्वामी ने कहा कि जो अयोग्य स्थान से, अनुचित कर्म से और निन्दित व्यक्ति से कोई निषिद्ध वस्तु लेना चाहता है तो इस काम से उसका सदाचार ही उसे रोक सकता है। उसने विश्वामित्र को सलाह दी कि वह लोभवश यह पाप ना करें।
बहरहाल विश्वामित्र ने यह कह कर कि उनका शरीर उनका अभिन्न मित्र है और उसकी रक्षा करना उनका परम कर्तव्य है। शरीर रहने से उससे बहुत से सत्कर्म किए जा सकते हैं। ऐसा कह कर वे कुत्ते का मांस ले गए और खुद खाने से पहले उसका अंश देवताओं को अर्पित किया और कथा के अनुसार उसी समय इंद्र ने वर्षा की और अकाल मिट गया।
इस कहानी को बताने की वजह थी कि अकाल की स्थिति में विश्वामित्र जैसे विचारवान पुरुष का कहां तक पतन हो जाता है। अपने स्थान से च्यूत होने के बाद मांगी भीख नहीं मिलती है और तब पैदा हुई परिस्थिति दुर्भिक्ष कहलाती है। (भिक्षा तक ना मिले) जिससे निपटने के लिए नदियों का आश्रय हमारे पूर्वजों ने लिया और अपनी खेती को नदी मातृका (नदी सेवित) और देव मातृका (देव या वर्षा आधारित) के रूप में परिभाषित किया होगा।
राम का वनवास जब शुरू हुआ था, उन्होंने चौदह साल के शासन में अवध की कृषि को नदी मातृका बनाए रखने का आश्वासन मांगा था और यही शर्त नारद ने युधिष्ठिर के राज्यकाल के लिए भी रखी थी। चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में जलस्रोतों की महत्ता, उनके प्रयोग तथा कृषि से होने वाली आमदनी में राज्यांश के बारे में विस्तार से चर्चा की है। जीविका के लिए पलायन उस समय भी होता था। कहा भी गया है कि अनिंद्य की निंदा, निंद्य की स्तुति, अगम्य स्थानों की ओर प्रस्थान-यह सभी कार्य धन के प्रभाव में लोग हमेशा से करते आए हैं।
जो भी हो भारत में आठवीं शताब्दी के प्रारंभ तक सब कुछ ठीक चला मगर उसके बाद ‘सोने की चिड़िया’ पर जो आक्रमण शुरू हुए, वह लंबे समय तक नहीं रुके। चौदहवीं शताब्दी में मुहम्मद बिन तुगलक ने किसानों पर बेतहाशा कर ही नहीं लगाए वरन बड़ी बेरहमी से वसूली करके रैयत को भूखमरी के कगार पर पहुंचा दिया। उसके वारिस फिरोज शाह तुगलक ने जरूर हिसार शहर बसाया और शिकार खेलने, आस-पास के जंगलों में पानी की कमी को पूरा करने के लिए यमुना और सतलज से नहरें निकाली और एक अच्छी खासी सिंचाई की व्यवस्था और अमला तैयार किया। जिस पर बाद में मंगोलों की नजर लग गई। बहुत से हमलावरों के बीच वर्चस्व की लड़ाई अंततः सोलहवीं शताब्दी में बाबर द्वारा मुगल वंश की स्थापना पर आकर समाप्त हुई।
मुगल काल में खेती को समृद्ध करने के लिए अकबर, जहांगीर और शाहजहां ने बहुत सी नहरें बनवाई या पुरानी नहरों का पुनरुद्धार किया। इसमें बहुत सी नहरें उनके राजसी ठाट-बाट को मजबूत करने के लिए भी बनाई गईं।
औरंगजेब के शासनकाल (1658-1707) में एक बार फिर किसानों पर बेतरह कर लगाए गए जिसका ज्यादा असर हिन्दू किसानों पर पड़ा और खेती रसातल में चली गई। औरंगजेब के शासन के शुरुआती दौर में 1661 और 1670 में देश में भीषण अकाल पड़ा जिसमें लाखों लोग मारे गए।
पहला अकाल उसके शासन काल के तीसरे साल में पड़ा था और इसने उसे अपनी साख पैदा करने का अच्छा मौका दिया और उसका उसने पूरा फायदा उठाया। वह बहुत हाथ खींचकर पैसे खर्च करने वाला आदमी था। शान शौकत और दरबारी तड़क-भड़क से दूर रहता था। जिसकी वजह से लोगों की जरूरत की समय उसने आसानी से संसाधन जुटा लिए और दक्षतापूर्वक तथा पूरी नजर रखते हुए सरकारी आवंटन की व्यवस्था की थी।
किसानों की लगान और दूसरे कर्जे को उसने माफ किया। खजाने के दरवाजे खोल दिए। जिन जगहों पर अनाज का ज्यादा उत्पादन हुआ था। वहां से अनाज खरीद कर कमी वाले इलाकों में भिजवाया और रियायती दर पर प्रजा को उपलब्ध कराया। शासन में जम जाने के बाद वैसा ही अकाल जब 1670 में पड़ा, तब उसने वह दरियादिली नहीं दिखाई। जो 1661 में देखने को मिली। इस वर्ष अकेले पटना में 90 हजार से अधिक लोग मारे गए।
इसके बाद आते हैं अंग्रेज शासक। यह लोग व्यापारी थे और हर चीज में नफा-नुकसान की ही बात करते थे। अकाल से निपटने के लिए उन्हें सिंचाई का रास्ता तो साफ दिखता था मगर वह कोई योजना हाथ में तभी लेना चाहते थे जब उस पर खर्चा काट कर और पूंजी पर ब्याज की रकम अदा कर लेने के बाद कुछ मिलने की उम्मीद हो।
उनकी सारी बड़ी योजनाएं इसी श्रेणी में आती थी। इन योजनाओं में किसानों के साथ-साथ व्यवस्था को भी लाभ मिलना एक जरूरी शर्त थी। कालक्रम में उन्होंने कुछ ऐसी भी योजनाएं हाथ में ली जिनसे सीधे-सीधे तो उन्हें फायदा नहीं मगर उससे एक हद तक अकाल से बचाव हो जाता था और यह एक तरह से अकाल बीमा की योजनाएं थीं। अकाल, सूखे वाले क्षेत्र में सिंचाई के कारण थोड़ी फसल हो जाती थी। लोग भूखमरी से बच जाते थे।
सबसे बड़ी बात थी कि सरकार को रिलीफ पर खर्च नहीं करना पड़ता था। भारतीय किसानों की फसल पद्धति और वर्षा का मौसमी होना उनके लिए सिरदर्द था क्योंकि बारिश के समय खरीफ के लिए पानी मिल जाता था और उसके बाद जमीन की नमी रबी फसल में मददगार हो जाती थी।
फेमिन कमिशन (1880-85) की रिपोर्ट इस बात को स्वीकार करती है कि यह सच है कि किसान हर साल उनकी नहरों से पानी नहीं लेते क्योंकि साधारण वर्षा वाले साल में पानी की जरूरत नहीं होती और जब लोग पानी ही नहीं लेंगे तो पैसा क्यों देंगे? फिर भी आयोग आशान्वित था कि भविष्य में हालात जरूर सुधरेंगे और कम-से-कम अकाल वाले वर्षों में नहरों का अच्छा उपयोग हो सकेगा।
जाने के पहले अंग्रेज दो बातें छोड़ गए। एक तो यह कि अकाल सूखे से निपटने के लिए जो सिंचाई योजनाएं अगर आर्थिक रूप से सरकार को फायदा न पहुंचाती हो और उनसे थोड़ा बहुत नुकसान भी होता हो तो उन्हें चलाना चाहिए क्योंकि इन योजनाओं की वजह से सिंचित इलाके में कृषि उत्पादन के अलावा और भी कई आर्थिक गतिविधियां चलती हैं। जिससे जनता को और सरकार को फायदा पहुंचाता है। दूसरी बात यह है कि बड़े बांधो से देश की काया पलट दी जा सकती है।
पहली बात के आधार पर नई योजनाएं बनी और कृषि समृद्ध हुई मगर उसका नुकसान यह हुआ कि सिंचाई योजना के कथित उद्देश्यों को पूरा करने में वह अपना मन लगाएं और जिम्मेवारी से अपना काम करें। अब उन्हें छूट थी कि वह मौज करें। क्योंकि खेती के इतर क्षेत्र में दूसरी आर्थिक गतिविधियां तो चल ही रही थीं, सिंचाई बट्टे खाते भी चला जाए तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। यह वही संधिकाल था, जब देश आजाद हुआ।
सिंचाई के लिए जो आर्थिक रूप से लाभ प्राप्त योजनाएं थीं वह तो अंग्रेज बनाकर और उनका लाभ उठा कर चले गए और हमारे लिए वह योजनाएं छोड़ गए जो आर्थिक रूप से मजबूत नहीं थीं। इसके साथ ही किसी की आलोचना से कैसे बचा जाए, इसका भी रास्ता वे लोग सुझा गए। इस लचर व्यवस्था और दलील का नतीजा है कि सन 1991-92 से 2003-04 के बीच तक के बारह साल में वास्तविक जमीनी आंकड़ों पर आधारित केन्द्रीय कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार नहरों से शुद्ध सिंचित इलाकों में कोई वृद्धि नहीं हुई है।
यह हालात तब हैं जब अप्रैल 1991 से लेकर मार्च 2004 तक के दौरान सिंचाई पर 96 हजार 610 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। कृषि मंत्रालय का कहना है कि जितनी सिंचाई सुविधा देने का सिंचाई विभाग दावा करता है, वास्तविक सिंचाई उससे भी कम हुई है। यह दावे के आधे के आस-पास है। ऐसा कहना है जाने माने पर्यावरणविद हिमांशु ठक्कर का। यह अगर सच है तो यह व्यवस्था के सामने बहुत बड़ा प्रश्न है।
रही बात बड़े बांधों की तो अब तक देश में 2011 तक 4278 ऐसे बांध बन चुके हैं और कृषि मंत्रालय की दुविधाओं में इनका भी योगदान शामिल है। इन बांधों की वजह से होने वाला विस्थापन, उनके कथित उद्देश्यों से दूर-दूर तक का भटकाव, उनके अपेक्षित जीवनकाल में कमी, जंगलों का विनाश, पर्यावरण पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव अपनी जगह पर था।
मानव जाति को बनाए रखने में कृषि का महत्वपूर्ण स्थान है। कृषि के लिए सिंचाई जरूरी है। तमाम दावों के बावजूद कृषि और सिंचाई किसानों के अपने पुरुषार्थ पर निर्भर है। यह पुरुषार्थ जब क्षीण होता है, तब आत्महत्या जैसी घटनाएं घटित होती हैं। किसानों का यदि कोई दूसरा मददगार होता तो ऐसी घटनाएं नहीं होती। अकाल मत्यु पर घटनाएं अब सिर्फ आंकड़ों में उलझ कर रह गई हैं। और सारा अमला अपनी जिम्मेवारी दूसरों पर डालने पर अपनी सारी ताकत झोक देता है।
इस स्थिति से निपटने के लिए सामने आता है आपदा प्रबंधन विभाग जो राहत बांटने का काम करता है। मगर कहता है कि उसका काम आपदा पूर्व तैयारी, आपदा के दौरान प्रबंधन और पुनर्वास का है। सच यह है कि सिंचाई विभाग, आपदा प्रबंधन विभाग के लिए रोजगार की व्यवस्था करता है और यह विभाग इस सदाशयता के लिए कृतज्ञ भाव से सिंचाई व्यवस्था पर कभी भूलकर भी उंगली नहीं उठाता है।
पिछले वर्षों में देश की जनता ने अपने अधिकारों की लड़ाई लड़कर आपदा राहत कोष के माध्यम से किसी भी विपत्ती के समय में सरकार से राहत का अधिकार प्राप्त कर लिया है ताकि उसे विश्वामित्र ना बनना पड़े। देखने में तो यह व्यवस्था ठीक लगती है लेकिन इसने लोगों को सरकार आश्रित बना दिया है और उनका आपदा से निपटने का उद्यम कमजोर पड़ गया है। इसका सीधा फायदा राजनीतिज्ञों को होता है।
जो किसी भी आपदा के समय मसीहा बनकर उतरते हैं और लोगों की मुसीबतों का फायदा उठाते हैं। क्योंकि उन्हें राहत आपदा कोष के प्रावधानों की जानकारी है और उसके हिसाब से आपदा पीड़ितों के दुखों की कीमत तय हो गई है। प्रावधानों के अंतर्गत सरकार वह कीमत अदा करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है और जनता को लगता है कि उन पर आई विपत्ति के समय सरकार उनके साथ खड़ी थी।
पीड़ित जनता यह भूल जाती है कि उसकी बदहाली की जड़ उसकी व्यवस्था में है जो विनम्र भाव से राहत बांटने और बाद में उसका चुनावी फायदा उठाने के लिए हाजिर होती है। प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदा के समय सरकार और एनजीओ दोनों कंधे से कंधा मिलाकर राहत सामग्री बांटते हैं और इसमें उनका निहित स्वार्थ होता है।
पीड़ित जनता को भी इसमें अपना फायदा दिखाई पड़ता है। मगर यह फायदा उसे अपने आत्म सम्मान की कीमत पर मिलता है। राहत बांटना समस्या का समाधान नहीं है। यह बहस का अब मुद्दा बचा ही नहीं। जब तक लोगों का आत्म सम्मान नहीं जगेगा और वे हाथ फैलाने को एक बूरा विकल्प नहीं मानेंगे तब तक यह व्यवस्था चलती रहेगी।
विश्वामित्र परिवार छोड़कर भिक्षाटन करेंगे और धन के अभाव में विद्वतजन विदेश गमन करते रहेंगे। जलवायु में आने वाला परिवर्तन इस प्रक्रिया को तेज करेगा। अगर हम इस सबके लिए अभी तैयार नहीं होंगे तो हमें आने वाले समय में किसी अमंगल का मुकाबला करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
(लेखक बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक हैं)
जाने के पहले अंग्रेज दो बातें छोड़ गए। एक तो यह कि अकाल सूखे से निपटने के लिए जो सिंचाई योजनाएं अगर आर्थिक रूप से सरकार को फायदा न पहुंचाती हो और उनसे थोड़ा बहुत नुकसान भी होता हो तो उन्हें चलाना चाहिए क्योंकि इन योजनाओं की वजह से सिंचित इलाके में कृषि उत्पादन के अलावा और भी कई आर्थिक गतिविधियां चलती हैं। जिससे जनता को और सरकार को फायदा पहुंचाता है। दूसरी बात यह है कि बड़े बांधो से देश की काया पलट दी जा सकती है। एक कथा के अनुसार त्रेता और द्वापर युग के संधि काल में बारह साल तक पानी नहीं बरसा और अकाल जैसी स्थिति पैदा हो गई। छोटे-छोटे जलाशय एकदम सुख गए। जलाभाव के कारण बाजार-हाट बंद हो गए। मांगलिक उत्सव ना के बराबर थे। खेती चौपट हो गई। नगर के अधिकांश भाग उजाड़ हो गए तथा गांव और घर जल गए। चोरों और भूखे लोगों द्वारा लूट-पाट का भय चारों ओर व्याप्त हो गया। लोग हिंसा के भय से एक दूसरे से डरने लगे। बालक और बूढ़े गए। गाय, भेड़, बकरी और भैंसे प्रायः समाप्त हो गई। औषधियों के समूह (अनाज और फल आदि) नष्ट हो गए।
चारों ओर हड्डियों के ढेर दिखाई पड़ते थे। ऐसे दुर्दिन में महर्षि विश्वामित्र भूख से पीड़ित होकर अपना परिवार और आश्रम छोड़ कर भोजन की तलाश में निकले।
घुमते-घुमते उन्हें जब कहीं कुछ नहीं मिला तो वे एक हिंसक समूह की बस्ती में पहुंचे जहां मुर्दों के ऊपर से उतारे कपड़े टंगे थे और उन्हीं पर चढ़ाए गए फूलों से घर सजाए गए थे। गधों के गूंजने की आवाजें वहां सुनाई पड़ती थी। मुर्गे भी कम नहीं थे। वहां मंदिरों से उल्लूओं की आवाजे आती थीं और कुत्तों के समूह उनके घरों को घेरे हुए थे।
भूखे प्यासे विश्वामित्र ने पहले तो वहां घर-घर जाकर भीख मांगी फिर कहीं से कुछ ना मिलने की स्थिति में एक घर में घुसकर चोरी करने की ठानी और प्रवेश कर गए। घर में गृह स्वामी लेटा हुआ था। पर नींद में नहीं था। जैसे ही विश्वामित्र घर में घुसे, वह चोर समझ कर हमला करता इससे पहले ही विश्वामित्र ने अपना परिचय उसे दिया और प्रायोजन बताकर, जल्दी ही मारे गए एक कुत्ते का मांस भोजन के निमित्त मांगा। उन्होंने कहा कि वे बहुत भूखे हैं और प्राण रक्षा के लिए कुत्ते का मांस को ले जाना चाहते हैं और बताया कि भूख मनुष्य को कलंकित कर देती है। चेतना को लुप्त कर देती है। शरीर शिथिल हो जाता और श्रवण शक्ति चली जाती है। भूखे मनुष्य को कुछ भी करने में लज्जा नहीं आती और उसकी भक्ष्य और अभक्ष्य के बीच निर्णय करने की क्षमता भी समाप्त हो जाती है और इसलिए वे कुत्ते का मांस ले जाएंगे।
गृह स्वामी ऋषि की बात को सुनकर बड़ा आहत हुआ। उसका कहना था, मुनिवर ऐसा कोई काम न करें जिससे उनका धर्म भ्रष्ट हो जाए और मांस की वजह से उनकी तपस्या का नाश ना हो जाए। उनका कहना था कि अच्छे पुरुष अपने प्राण का त्याग भले ही कर दें पर वे अभक्ष्य का सेवन कभी नहीं कर सकते और उपवास के माध्यम से ही अपने अभीष्ट को पा लेते हैं।
विश्वामित्र जैसे ऋषि को धर्म का उपदेश करने में अपने आप को अक्षम मानते हुए गृह स्वामी ने कहा कि जो अयोग्य स्थान से, अनुचित कर्म से और निन्दित व्यक्ति से कोई निषिद्ध वस्तु लेना चाहता है तो इस काम से उसका सदाचार ही उसे रोक सकता है। उसने विश्वामित्र को सलाह दी कि वह लोभवश यह पाप ना करें।
बहरहाल विश्वामित्र ने यह कह कर कि उनका शरीर उनका अभिन्न मित्र है और उसकी रक्षा करना उनका परम कर्तव्य है। शरीर रहने से उससे बहुत से सत्कर्म किए जा सकते हैं। ऐसा कह कर वे कुत्ते का मांस ले गए और खुद खाने से पहले उसका अंश देवताओं को अर्पित किया और कथा के अनुसार उसी समय इंद्र ने वर्षा की और अकाल मिट गया।
इस कहानी को बताने की वजह थी कि अकाल की स्थिति में विश्वामित्र जैसे विचारवान पुरुष का कहां तक पतन हो जाता है। अपने स्थान से च्यूत होने के बाद मांगी भीख नहीं मिलती है और तब पैदा हुई परिस्थिति दुर्भिक्ष कहलाती है। (भिक्षा तक ना मिले) जिससे निपटने के लिए नदियों का आश्रय हमारे पूर्वजों ने लिया और अपनी खेती को नदी मातृका (नदी सेवित) और देव मातृका (देव या वर्षा आधारित) के रूप में परिभाषित किया होगा।
राम का वनवास जब शुरू हुआ था, उन्होंने चौदह साल के शासन में अवध की कृषि को नदी मातृका बनाए रखने का आश्वासन मांगा था और यही शर्त नारद ने युधिष्ठिर के राज्यकाल के लिए भी रखी थी। चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में जलस्रोतों की महत्ता, उनके प्रयोग तथा कृषि से होने वाली आमदनी में राज्यांश के बारे में विस्तार से चर्चा की है। जीविका के लिए पलायन उस समय भी होता था। कहा भी गया है कि अनिंद्य की निंदा, निंद्य की स्तुति, अगम्य स्थानों की ओर प्रस्थान-यह सभी कार्य धन के प्रभाव में लोग हमेशा से करते आए हैं।
जो भी हो भारत में आठवीं शताब्दी के प्रारंभ तक सब कुछ ठीक चला मगर उसके बाद ‘सोने की चिड़िया’ पर जो आक्रमण शुरू हुए, वह लंबे समय तक नहीं रुके। चौदहवीं शताब्दी में मुहम्मद बिन तुगलक ने किसानों पर बेतहाशा कर ही नहीं लगाए वरन बड़ी बेरहमी से वसूली करके रैयत को भूखमरी के कगार पर पहुंचा दिया। उसके वारिस फिरोज शाह तुगलक ने जरूर हिसार शहर बसाया और शिकार खेलने, आस-पास के जंगलों में पानी की कमी को पूरा करने के लिए यमुना और सतलज से नहरें निकाली और एक अच्छी खासी सिंचाई की व्यवस्था और अमला तैयार किया। जिस पर बाद में मंगोलों की नजर लग गई। बहुत से हमलावरों के बीच वर्चस्व की लड़ाई अंततः सोलहवीं शताब्दी में बाबर द्वारा मुगल वंश की स्थापना पर आकर समाप्त हुई।
मुगल काल में खेती को समृद्ध करने के लिए अकबर, जहांगीर और शाहजहां ने बहुत सी नहरें बनवाई या पुरानी नहरों का पुनरुद्धार किया। इसमें बहुत सी नहरें उनके राजसी ठाट-बाट को मजबूत करने के लिए भी बनाई गईं।
औरंगजेब के शासनकाल (1658-1707) में एक बार फिर किसानों पर बेतरह कर लगाए गए जिसका ज्यादा असर हिन्दू किसानों पर पड़ा और खेती रसातल में चली गई। औरंगजेब के शासन के शुरुआती दौर में 1661 और 1670 में देश में भीषण अकाल पड़ा जिसमें लाखों लोग मारे गए।
पहला अकाल उसके शासन काल के तीसरे साल में पड़ा था और इसने उसे अपनी साख पैदा करने का अच्छा मौका दिया और उसका उसने पूरा फायदा उठाया। वह बहुत हाथ खींचकर पैसे खर्च करने वाला आदमी था। शान शौकत और दरबारी तड़क-भड़क से दूर रहता था। जिसकी वजह से लोगों की जरूरत की समय उसने आसानी से संसाधन जुटा लिए और दक्षतापूर्वक तथा पूरी नजर रखते हुए सरकारी आवंटन की व्यवस्था की थी।
किसानों की लगान और दूसरे कर्जे को उसने माफ किया। खजाने के दरवाजे खोल दिए। जिन जगहों पर अनाज का ज्यादा उत्पादन हुआ था। वहां से अनाज खरीद कर कमी वाले इलाकों में भिजवाया और रियायती दर पर प्रजा को उपलब्ध कराया। शासन में जम जाने के बाद वैसा ही अकाल जब 1670 में पड़ा, तब उसने वह दरियादिली नहीं दिखाई। जो 1661 में देखने को मिली। इस वर्ष अकेले पटना में 90 हजार से अधिक लोग मारे गए।
इसके बाद आते हैं अंग्रेज शासक। यह लोग व्यापारी थे और हर चीज में नफा-नुकसान की ही बात करते थे। अकाल से निपटने के लिए उन्हें सिंचाई का रास्ता तो साफ दिखता था मगर वह कोई योजना हाथ में तभी लेना चाहते थे जब उस पर खर्चा काट कर और पूंजी पर ब्याज की रकम अदा कर लेने के बाद कुछ मिलने की उम्मीद हो।
उनकी सारी बड़ी योजनाएं इसी श्रेणी में आती थी। इन योजनाओं में किसानों के साथ-साथ व्यवस्था को भी लाभ मिलना एक जरूरी शर्त थी। कालक्रम में उन्होंने कुछ ऐसी भी योजनाएं हाथ में ली जिनसे सीधे-सीधे तो उन्हें फायदा नहीं मगर उससे एक हद तक अकाल से बचाव हो जाता था और यह एक तरह से अकाल बीमा की योजनाएं थीं। अकाल, सूखे वाले क्षेत्र में सिंचाई के कारण थोड़ी फसल हो जाती थी। लोग भूखमरी से बच जाते थे।
सबसे बड़ी बात थी कि सरकार को रिलीफ पर खर्च नहीं करना पड़ता था। भारतीय किसानों की फसल पद्धति और वर्षा का मौसमी होना उनके लिए सिरदर्द था क्योंकि बारिश के समय खरीफ के लिए पानी मिल जाता था और उसके बाद जमीन की नमी रबी फसल में मददगार हो जाती थी।
फेमिन कमिशन (1880-85) की रिपोर्ट इस बात को स्वीकार करती है कि यह सच है कि किसान हर साल उनकी नहरों से पानी नहीं लेते क्योंकि साधारण वर्षा वाले साल में पानी की जरूरत नहीं होती और जब लोग पानी ही नहीं लेंगे तो पैसा क्यों देंगे? फिर भी आयोग आशान्वित था कि भविष्य में हालात जरूर सुधरेंगे और कम-से-कम अकाल वाले वर्षों में नहरों का अच्छा उपयोग हो सकेगा।
जाने के पहले अंग्रेज दो बातें छोड़ गए। एक तो यह कि अकाल सूखे से निपटने के लिए जो सिंचाई योजनाएं अगर आर्थिक रूप से सरकार को फायदा न पहुंचाती हो और उनसे थोड़ा बहुत नुकसान भी होता हो तो उन्हें चलाना चाहिए क्योंकि इन योजनाओं की वजह से सिंचित इलाके में कृषि उत्पादन के अलावा और भी कई आर्थिक गतिविधियां चलती हैं। जिससे जनता को और सरकार को फायदा पहुंचाता है। दूसरी बात यह है कि बड़े बांधो से देश की काया पलट दी जा सकती है।
पहली बात के आधार पर नई योजनाएं बनी और कृषि समृद्ध हुई मगर उसका नुकसान यह हुआ कि सिंचाई योजना के कथित उद्देश्यों को पूरा करने में वह अपना मन लगाएं और जिम्मेवारी से अपना काम करें। अब उन्हें छूट थी कि वह मौज करें। क्योंकि खेती के इतर क्षेत्र में दूसरी आर्थिक गतिविधियां तो चल ही रही थीं, सिंचाई बट्टे खाते भी चला जाए तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। यह वही संधिकाल था, जब देश आजाद हुआ।
सिंचाई के लिए जो आर्थिक रूप से लाभ प्राप्त योजनाएं थीं वह तो अंग्रेज बनाकर और उनका लाभ उठा कर चले गए और हमारे लिए वह योजनाएं छोड़ गए जो आर्थिक रूप से मजबूत नहीं थीं। इसके साथ ही किसी की आलोचना से कैसे बचा जाए, इसका भी रास्ता वे लोग सुझा गए। इस लचर व्यवस्था और दलील का नतीजा है कि सन 1991-92 से 2003-04 के बीच तक के बारह साल में वास्तविक जमीनी आंकड़ों पर आधारित केन्द्रीय कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार नहरों से शुद्ध सिंचित इलाकों में कोई वृद्धि नहीं हुई है।
यह हालात तब हैं जब अप्रैल 1991 से लेकर मार्च 2004 तक के दौरान सिंचाई पर 96 हजार 610 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। कृषि मंत्रालय का कहना है कि जितनी सिंचाई सुविधा देने का सिंचाई विभाग दावा करता है, वास्तविक सिंचाई उससे भी कम हुई है। यह दावे के आधे के आस-पास है। ऐसा कहना है जाने माने पर्यावरणविद हिमांशु ठक्कर का। यह अगर सच है तो यह व्यवस्था के सामने बहुत बड़ा प्रश्न है।
रही बात बड़े बांधों की तो अब तक देश में 2011 तक 4278 ऐसे बांध बन चुके हैं और कृषि मंत्रालय की दुविधाओं में इनका भी योगदान शामिल है। इन बांधों की वजह से होने वाला विस्थापन, उनके कथित उद्देश्यों से दूर-दूर तक का भटकाव, उनके अपेक्षित जीवनकाल में कमी, जंगलों का विनाश, पर्यावरण पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव अपनी जगह पर था।
मानव जाति को बनाए रखने में कृषि का महत्वपूर्ण स्थान है। कृषि के लिए सिंचाई जरूरी है। तमाम दावों के बावजूद कृषि और सिंचाई किसानों के अपने पुरुषार्थ पर निर्भर है। यह पुरुषार्थ जब क्षीण होता है, तब आत्महत्या जैसी घटनाएं घटित होती हैं। किसानों का यदि कोई दूसरा मददगार होता तो ऐसी घटनाएं नहीं होती। अकाल मत्यु पर घटनाएं अब सिर्फ आंकड़ों में उलझ कर रह गई हैं। और सारा अमला अपनी जिम्मेवारी दूसरों पर डालने पर अपनी सारी ताकत झोक देता है।
इस स्थिति से निपटने के लिए सामने आता है आपदा प्रबंधन विभाग जो राहत बांटने का काम करता है। मगर कहता है कि उसका काम आपदा पूर्व तैयारी, आपदा के दौरान प्रबंधन और पुनर्वास का है। सच यह है कि सिंचाई विभाग, आपदा प्रबंधन विभाग के लिए रोजगार की व्यवस्था करता है और यह विभाग इस सदाशयता के लिए कृतज्ञ भाव से सिंचाई व्यवस्था पर कभी भूलकर भी उंगली नहीं उठाता है।
पिछले वर्षों में देश की जनता ने अपने अधिकारों की लड़ाई लड़कर आपदा राहत कोष के माध्यम से किसी भी विपत्ती के समय में सरकार से राहत का अधिकार प्राप्त कर लिया है ताकि उसे विश्वामित्र ना बनना पड़े। देखने में तो यह व्यवस्था ठीक लगती है लेकिन इसने लोगों को सरकार आश्रित बना दिया है और उनका आपदा से निपटने का उद्यम कमजोर पड़ गया है। इसका सीधा फायदा राजनीतिज्ञों को होता है।
जो किसी भी आपदा के समय मसीहा बनकर उतरते हैं और लोगों की मुसीबतों का फायदा उठाते हैं। क्योंकि उन्हें राहत आपदा कोष के प्रावधानों की जानकारी है और उसके हिसाब से आपदा पीड़ितों के दुखों की कीमत तय हो गई है। प्रावधानों के अंतर्गत सरकार वह कीमत अदा करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है और जनता को लगता है कि उन पर आई विपत्ति के समय सरकार उनके साथ खड़ी थी।
पीड़ित जनता यह भूल जाती है कि उसकी बदहाली की जड़ उसकी व्यवस्था में है जो विनम्र भाव से राहत बांटने और बाद में उसका चुनावी फायदा उठाने के लिए हाजिर होती है। प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदा के समय सरकार और एनजीओ दोनों कंधे से कंधा मिलाकर राहत सामग्री बांटते हैं और इसमें उनका निहित स्वार्थ होता है।
पीड़ित जनता को भी इसमें अपना फायदा दिखाई पड़ता है। मगर यह फायदा उसे अपने आत्म सम्मान की कीमत पर मिलता है। राहत बांटना समस्या का समाधान नहीं है। यह बहस का अब मुद्दा बचा ही नहीं। जब तक लोगों का आत्म सम्मान नहीं जगेगा और वे हाथ फैलाने को एक बूरा विकल्प नहीं मानेंगे तब तक यह व्यवस्था चलती रहेगी।
विश्वामित्र परिवार छोड़कर भिक्षाटन करेंगे और धन के अभाव में विद्वतजन विदेश गमन करते रहेंगे। जलवायु में आने वाला परिवर्तन इस प्रक्रिया को तेज करेगा। अगर हम इस सबके लिए अभी तैयार नहीं होंगे तो हमें आने वाले समय में किसी अमंगल का मुकाबला करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
(लेखक बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक हैं)
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