अभी कई साल लगेंगे गंगा को साफ करने में


1912 में अंग्रेजों ने हरिद्वार के भीमगौड़ा में बाँध बनाने की ठानी थी तब सन्त समाज ने भारी विरोध किया था और पंडित मदन मोहन मालवीय सन्त समाज के समर्थन में आये थे। तब तय हुआ कि बाँध उसी सूरत में बने जबकि गंगा में कम-से-कम 1000 क्यूसेक पानी छोड़ा जा सके। ऐसी ही सहमति अब बनाने की कोशिश हो रही है जिसकी तसदीक खुद गंगा मंत्री उमा भारती ने की है। सन्त समाज का बड़ा हिस्सा भी इस बीच के रास्ते पर सहमत नजर आता है।

मोदी सरकार ने 7 जुलाई से गंगा सफाई का काम शुरू कर दिया है। करीब डेढ़ साल पहले ‘नमामि गंगे परियोजना’ की शुरुआत की गई थी और गंगा पुनरुत्थान मंत्री उमा भारती का दावा है कि 7 जुलाई से पहले तक तो 30 साल पहले राजीव गाँधी के समय शुरू हुई गंगा एक्शन प्लान (एक और दो) का काम ही चल रहा था।

7 जुलाई से 2000 करोड़ रुपए से 230 जगहों पर काम शुरू किये जा रहे हैं। घाट बनेंगे, गंगा किनारे शमशान गृह सुधारे जाएँगे, कुछ नए बनाए जाएँगे। उत्तराखण्ड में भागीरथी और अलकनन्दा के दोनों तरफ पेड़ लगाए जाएँगे और गंगा की सतह की सफाई स्किमर मशीनों से की जाएगी।

गंगा के साथ-साथ यमुना और रामगंगा नदियों में भी सफाई का काम शुरू करने की बात कही जा रही है लेकिन सवाल उठता है कि ये सब करने से कितनी साफ हो सकेगी गंगा और क्या यह कवायद यूपी चुनावों को देखते हुए तो नहीं की जा रही है। आखिरकार 230 योजनाओं में से 112 तो सिर्फ यूपी में शुरू की जा रही हैं।

सवाल यह भी उठता है कि पिछले वित्तीय वर्ष में गंगा पर सिर्फ 2 बैठकें हुईं और इस साल पहली तिमाही में एक भी नहीं। गंगा किनारे के 118 शहरों के 144 नालों से 300 करोड़ लीटर गन्दा पानी गंगा में रोज गिर रहा है लेकिन डेढ़ साल बाद सिर्फ 10 नए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) लगाने के टेंडर ही अभी निकाले गए हैं। एक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) को बनने में कम-से-कम 3 साल लगते हैं, ऐसे में 2018 तक गंगा को साफ करने का लक्ष्य सिर्फ चुनावी जुमला ही नजर आ रहा है।

हाल ही में गोमुख से लेकर गंगोत्री, हरिद्वार, कानपुर, बनारस और इलाहाबाद जाना हुआ। गोमुख में भागीरथी के उद्गम स्थल के 500 मीटर के दायरे में जाने पर मनाही है लेकिन भक्त चले आते हैं सीधे गोमुख तक। स्नान के बाद नए वस्त्र धारण करते हैं और पुराने कपड़े वहीं फेंक दिये जाते हैं। स्नान के बाद चाय पी जाती है और प्लास्टिक के गिलास, पॉलीथिन की थैलियाँ भागीरथी किनारे उछाल दी जाती हैं। गुटखे के पाऊच भी वहीं मिल जाते हैं। इस सबसे भागीरथी मैली तो नहीं होती लेकिन यह हमारी मानसिकता को जरूर दर्शाता है।

वहीं अमरीका से आया एक एनआरआई परिवार मिला। जिसके एक सदस्य का कहना था कि हम अमरीका में नदी को माँ नहीं कहते हैं और पूजा नहीं करते हैं लेकिन हम नदियों को साफ जरूर रखते हैं। भागीरथी गंगोत्री पहुँचती है और वहाँ दोनों तरफ बने होटलों का गन्दा पानी सीधे नदी में जाता है। हालांकि गंगोत्री मन्दिर समिति के सचिव सुरेश सेमवाल अपने पैसों से पिट बनाने का दावा करते हैं लेकिन सभी होटल चालकों ने ऐसा नहीं किया है।

गंगोत्री के आगे देवप्रयाग तक भागीरथी उछलती-कूदती दौड़ती जाती है जहाँ अलकनंदा से उसका मेल होता है और नाम गंगा पड़ता है। इन दोनों नदियों पर बाँधों को लेकर राजनीति हो रही है। सन्त समाज के ‘निर्मल अविरल गंगा आन्दोलन’ के चलते 5 सालों से बाँध बनाने पर रोक है। जानकारों का कहना है कि ऐसे बाँध बनाकर 20,000 मेगावाट बिजली पैदा की जा सकती है।

उमा भारती के गंगा मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय के बीच भी बाँधों को लेकर विरोधाभासी सोच बनी हुई है। सुप्रीम कोर्ट में जहाँ गंगा मंत्रालय अविरल गंगा की हिमायत करते हुए बाँध पर पूरी तरह रोक की माँग पिछले एक साल से करता रहा है, वहीं पर्यावरण मंत्रालय का कहना है कि 6 बाँध वहाँ बनाने को मंजूरी दी जानी चाहिए। अब जाकर बीच का रास्ता निकाला जा रहा है और 1916 का समझौता याद आ रहा है।

दरअसल 1912 में अंग्रेजों ने हरिद्वार के भीमगौड़ा में बाँध बनाने की ठानी थी तब सन्त समाज ने भारी विरोध किया था और पंडित मदन मोहन मालवीय सन्त समाज के समर्थन में आये थे। तब तय हुआ कि बाँध उसी सूरत में बने जबकि गंगा में कम-से-कम 1000 क्यूसेक पानी छोड़ा जा सके। ऐसी ही सहमति अब बनाने की कोशिश हो रही है जिसकी तसदीक खुद गंगा मंत्री उमा भारती ने की है। सन्त समाज का बड़ा हिस्सा भी इस बीच के रास्ते पर सहमत नजर आता है। अगर इस पर मोहर लग गई तो उत्तराखण्ड में बाँध भी बन सकेंगे, बिजली भी बन सकेगी और गंगा भी अविरल बह सकेगी।

लेकिन गंगा की सबसे बड़ी समस्या गन्दा पानी और रासायनिक कचरा है। पूरे गंगा बेसिन की बात करें तो कुल 730 करोड़ लीटर गन्दा पानी रोज निकलता है जिसमें से सिर्फ 330 करोड़ लीटर को ही साफ करने की क्षमता वहाँ लगे एसटीपी में है। इस तरह करीब 400 करोड़ लीटर गन्दा पानी सीधे गंगा में रोज समाहित हो रहा है। इसी तरह करीब 14 हजार टन औद्योगिक कचरा भी रोज गंगा में जा रहा है 764 फैक्टरियों के जरिए। इसमें शराब और चीनी बनाने के कारखानों से लेकर कानपुर का चमड़ा उद्योग तक शामिल है।

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 100 से ज्यादा कारखानों पर रोक लगाई है। कारखाना मालिकों को सफाई संयंत्र लगाने को भी कहा गया है लेकिन इस दिशा में अभी बहुत काम होना बाकी है। कानपुर में तो गंगा सबसे ज्यादा मैली होती है। यहाँ शहर भर का गन्दा पानी सीसामऊ नाले के जरिए सीधे गंगा में जाता है। करीब 15 करोड़ लीटर गन्दा पानी रोज सीधे गंगा में समाहित होता है।

जानकारों का कहना है कि गैप-एक और गैप-दो के तहत नाले को टैप करने की कोशिश की गई और कागजों में बता दिया गया कि सब कुछ ठीक है। उसके बाद नाले के पानी को दूसरी दिशा में भी मोड़ने की योजना बनी लेकिन काम चालू नहीं हो सका।

यही हाल हरिद्वार का है जहाँ 6 नालों से 4.5 करोड़ लीटर गन्दा पानी सीधे गंगा में रोज गिरता है। वहाँ जगजीतपुर में पिछले साल जुलाई में उमा भारती ने 4 करोड़ लीटर पानी रोज साफ करने की क्षमता वाले एसटीपी की नींव रखी थी लेकिन एक साल बाद में एक इंच भी काम आगे नहीं बढ़ा है। इलाहाबाद में 8 एसटीपी हैं जिनमें से 4 ही काम करते हैं। वहाँ की मेयर अभिलाषा गुप्ता बताती हैं कि एक एसटीपी तो गंगा किनारे ही बना दिया गया। बाढ़ आई और 200 करोड़ का एसटीपी डूब गया। जो एसटीपी चालू हैं वे भी 10 फीसदी क्षमता पर ही काम कर रहे हैं। आगे कहाँ एसटीपी लगने हैं इस पर चुप्पी है, अलबत्ता घाट सफाई और जागरुकता का काम जरूर नमामि गंगे के तहत हो रहा है। 2 स्किमर मशीनें भी गंगा पर दिखीं जो सतह की गन्दगी दूर करने का काम करती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र बनारस में अस्सी घाट तो सजा दिया गया है लेकिन नजदीक ही नांगल का नाला है जहाँ से 4 करोड़ लीटर गन्दा पानी रोज गंगा में गिर रहा है।

आप को जानकर हैरानी होगी कि गंगा में गन्दा पानी छोड़ने की शुरुआत एक सरकारी आदेश से हुई थी। बात 1932 की है। तब बनारस शहर के कमिश्नर हाकिंस ने एक गन्दे नाले का पानी गंगा में डालने का आदेश दिया था। उसके बाद तो सिलसिला ही चल निकला। गंगा किनारे बसे शहरों में कुल मिलाकर 55 एसटीपी हैं। इन एसटीपी की पोल 2 साल पहले खुली। तब केन्द्रीय प्रदूषण निवारण मण्डल ने सर्वे किया था। पता चला कि 55 एसटीपी में से 15 तो बन्द पड़े हैं और 40 भी अपनी क्षमता से कहीं कम पर काम कर रहे थे।

दरअसल एसटीपी के संचालन में मूलभूत कमजोरियाँ हैं। केन्द्र की आर्थिक मदद से एसटीपी बनते हैं और उसे चलाने का जिम्मा स्थानीय प्रशासन को दे दिया जाता है। प्रशासन स्थायी निकाय मसलन नगर परिषद को एसटीपी चलाने को कह देता है। कभी रखरखाव के लिये पैसा नहीं तो कभी कर्मचारियों की कमी का खामियाजा एसटीपी को ही उठाना पड़ता है लेकिन अब सरकार ने नई नीति बनाई है। अब एसटीपी बनाने के लिये एक अलग से कम्पनी बनाई जाएगी।

यह कम्पनी एसटीपी से साफ हुए पानी को 50 किलोमीटर के क्षेत्र में रेलवे या किसी उद्योग या फिर पावर प्लांट वाले को बेचेगी और उसकी कमाई से एसटीपी का संचालन किया जाएगा। रेलवे ने तो कुछ जगह पानी खरीदने का समझौता भी कर लिया है लेकिन इलाहाबाद की मेयर अभिलाषा गुप्ता बुनियादी सवाल उठाती हैं कि पानी तो तब बेचा जा सकेगा। जब एसटीपी लगेंगे और ढंग से काम करेंगे। कुल मिलाकर गंगा को साफ करने में अभी कई-कई साल लगेंगे।

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Post By: RuralWater
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