अभी भी आँखों में है मालपा

मालपा सुनते ही इतना कुछ आँखों के सामने घूमने लगता है कि क्या लिखूँ जिससे इस त्रासदी की सही तस्वीर सामने आ जाए? समझ में नहीं आ रहा है।

मालपा की स्थिति और प्राकृतिक सौन्दर्य, जिसे 16 अगस्त की शाम के झुटपुटे में देखकर हम ऐसे सम्मोहित हुए कि फोटो खींचना भी गंवारा नहीं हुआ। डर लगा कि कैमरे की क्लिक से कहीं यह सम्मोहन टूट न जाए। या फिर मोन्ति काकी, जो पिछले 23 सालों से यहाँ दुकान चला रही थी और पोता होने की खुशी में पूरे बूँदी गाँव को सामूहिक भोज देेने का सपना था। चकती के हल्के सुरूर में परिश्रम को भुलाने का जतन करते वे पोर्टर और खच्चर वाले जो 16 अगस्त की रात को मीट के एक-एक टुकड़े के लिए झगड़ रहे थे और फिर देर रात तक चलने वाले वे सुरीले गीत। कुमाऊँ मण्डल विकास निगम के टुर गाइड पद्मेश शर्मा, जिनकी खोज खबर वापस लौटने पर हमसे न सिर्फ काली के उस पार यानी नेपाल के लोगों ने तक पूछी थी या फिर यात्रा दल के तीन सदस्यों का सुबह-सुबह मालपा के उस ठण्डे और उफनते हुए नालों में नहाने की हिम्मत करना, बिच्छू लगना और एक दूसरे के कपड़े खींचना। यात्रा में शामिल साधू बाबा का वह सस्वर गीता पाठ, जो उनके सात न जाने कितने भयभीत दिलों को शान्ति प्रदान कर रहा था। मालपा से तवाघाट की दहशत भरी यात्रा रास्ते के गाँवों में महिलाओं और बच्चों का रुदन, उनके सवाल और आँखों में भरी जिज्ञासा के जवाब में सात्वना के दो शब्द भी न कह सकने की अपनी मजबूरी। स्थानीय निवासियों की चिन्ता और किसी भी तरह मालपा पहुँचकर लोगों को बचा पाने की पुरजोर कोशिशें। प्रशासन का रवैया और स्थानीय पत्रकारों द्वारा की जा रही प्रशासन की जी हजूरी।

ऐसे कई बिम्ब हैं, जो अभी भी आँखों के आगे उभर रहे हैं और इन्हीं से उभर रहे हैं कई सवाल।

धारचूला से अपनी यात्रा आरम्भ कर हम घट्टाहगड़ के उस दो पोलों के खतरनाक पुल को पार कर 15 अगस्त की रात को सायं 7.30 के आस-पास मालपा पहुँच गए थे। इसी पुल को पार करते हुए पहले दल का डॉक्टर बह गया था जिसके शव की खोजबीन अभी चल रही थी।

जिप्ती और मालपा के बीच पड़ने वाले पड़ाव लखनपुर में हम लगभग सायं 4 बजे पहुँच गए थे और यहीं से शुरू हुई वह तेज वर्षा जो 17 अगस्त की सुबह तक रुक-रुक कर जारी रही।

15 अगस्त की रात हमने सार्वजनिक निर्माण विभाग के विश्राम गृह में बिताई और सुबह 7 बजे हमने मालपा से बूँदी की यात्रा शुरू की। मालपा से 3 किमी. आगे लामारी गाँव के नीचे तेज भूस्खलन ने रास्ता जाम कर दिया था। हमारे साथ सीमा सड़क संगठन के दो अस्थाई मजदूर भी थे। इन लोगों ने थोड़ा आगे जाकर रास्ता देखा और आगे बढ़ने से रोका। मजबूरन हमें वापस मालपा लौटना पड़ा। मालपा वापस लौटकर हमें पता चला कि निगम और सार्वजनिक निर्माण विभाग के अस्थाई कैम्प में रात में काफी पत्थर गिरे थे। मालपा में ही फँसे रहने का खतरा देखते हुए हमने कुछ समय सार्वजनिक निर्माण विभाग के विश्राम गृह में रुक कर दार्चुला वापस लौटने की योजना बनाई।

दोपहर तक मानसरोवर यात्रियों का मालपा में प्रवेश आरम्भ हो चुका था। यह लगभग 1.30 तक चलता रहा। मालपा से वापसी पर हमारी मुलाकात दो परिचित गाइडों, निगम विनोद लोहनी और पद्मेश शर्मा से हुई। इन्होंने हमें बताया कि यदि हम लौटना चाहते हैं तो तुरन्त लौटें। रास्ते में झरने का पानी काफी तेज होता चला जा रहा है और वेे यात्रियों को रस्सी के सहारे लाए हैं। हम लोग मालपा से लगभग दो किमी. आगे बढ़े थे तो पुनःभू-स्खलन ने हमारा रास्ता रोक दिया।

इतनी दूर आकर यात्रा पूरी न कर पाने का मलाल अभी दिलों में था ही, तो हमने तय किया कि मालपा वापस लौट कर और रात वहाँ बिताकर कल सुबह स्थिति देखकर आगे का कार्यक्रम तय करें।

सार्वजनिक निर्माण विभाग का विश्राम गृह तब कैलास यात्रा का डॉक्टर का आवास बन चुका था तो मोन्ति काकी ने अपने विश्राम गृह में हमें शरण दी। स्थानीय लोगों के दिए गए दो बिस्तर और एक कमरा उन्होंने हमें सौप दिया। रात्रि में खाने से पूर्व मोन्ति काकी से विस्तार से बातें हुई। तभी हमें नेपाली-गढ़वाली-कुमाऊँनी और भोटिया संस्कृति के आपसी सम्बन्धों की विस्तार से जानकारी मिली मोन्ति काकी 60 वर्ष की नेपाली महिला थीं, जिनका विवाह भोटिया परिवार में हुआ था। पति की खाली जमीन पर दो-एक खेत बनाकर यात्रियों के लिए खाने का इन्तजाम भी उन्होंने ही किया था। किसी भी प्रकार के हिसाब-किताब से रहित थी उनकी दुकान। आओ-खाओ, जाओ। जाते समय उपनी मर्जी से पैसे दे जाओ। पिछले कुछ समय में दुकान के सामने ही चार कमरों का दो मंजिला आवास भी उन्होंने पर्यटन विभाग की सहायता से बना लिया था, जो आने-जाने वाले यात्रियों के साथ-साथ पोर्टरों और खच्चर वालों का स्थायी अड्डा था।

16 ता. की रात में हमारे साथियों ने पद्मेश शर्मा से काफी देर तक बातचीत की। पद्मेश शर्मा इससे पूर्व भी यहाँ कई बार आ चुके थे। यात्रियों की सुरक्षा को लेकर वे काफी चिन्तित भी थे। मालपा से आगे के रास्ते की वे दिनभर विस्तार से सूचना भी लेते रहे। अपनी बातचीत में पद्मेश ने कहा कि सुबह प्रयास करेंगे की रास्ता खुल जाए और यात्री दल बूँदी पहुँच जाए। यदि कल दिन तक रास्ता नहीं खुलता तो यात्रा स्थगित कर यात्रियों को वापस गाला लौटाने की अनुमति प्राप्त करने का प्रयास करेंगे। यात्रियों की बढ़ी हुई संख्या, रास्ते की खराबी, गलत मौसम में यात्रा, निगम के इन्तजाम आदि परेशानियों की भी उन्होंने काफी देर तक चर्चा की।

16 ता. की रात्रि में लगभग 3 बजे जोरों की गड़गड़ाहट से हमारी आँखें खुली। खिड़की खोलकर बाहर की ओर देखा तो बाईं ओर के सामने वाले पहाड़ के बीच में बने नाले से बड़े-बड़े पत्थर टकराने से निकलने वाली चिंगारी से अच्छा-खासा प्रकाश हो रहा था। बाहर निकलने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई, क्योंकि अंधेरे में ही लग रहा था कि पत्थर काफी दूर गिर रहे हैं।

17 ता. की सुबह जागने पर सूचना मिली कि रात्रि में गिरे पत्थरों से दो खच्चर मर चुके हैं और एक घायल है। तब जाकर रात्रि में हुए खतरों का अहसास हुआ। रात्रि में खच्चर निगम के अस्थाई आवास और हमारे रात्रि विश्राम की जगह के सामने खुले छोड़ दिए गए थे और वहीं पत्थर गिरे थे।

पद्मेश शर्मा अपने साथियों और दो-तीन पोर्टरों के साथ सुबह 6 बजे ही रास्ता देखने के लिए निकल गए थे और जवाब छोड़ गए थे कि 10 बजे तक वापस लौट कर स्थिति स्पष्ट करेंगे।

वह त्योहार का दिन था तो मोन्ति काकी ने दो गाँठ वाली पूरी बनाई। नाश्ता कर हम लोग मालपा नाले पर बने पुल पर बैठ गए। पुल पर ही हमारी मुलाकात यात्रा के दल के साथ चलने वाले सुरक्षाकर्मी से हुई, जिनके हाथ में वॉकी-टॉकी भी था। हमने उनसे कहा कि बूँदी से पता करो कि सा.नि.वि. की गैंग के आदमी उस तरफ से रास्ता ठीक कर रहे हैं या नहीं तो पता चला की वॉकी-टॉकी ही खराब है। इसलिए सम्पर्क नहीं हो सकता। इसी बीच यात्रा दल के तीन सदस्य मालपा नाले में नहाने के लिए आ गए। काफी देर तक उनकी हँसी-मजाक सुनते रहे। नही सकने पर हमने उन्हें चाय का निमंत्रण दिया और फिर चाय पीते हुए उनसे देर तक बात हुई। उनमें से दो महाराष्ट्र और एक कर्नाटक के थे। एक यात्री तो लगातार दूसरे साल यात्रा कर रहे थे। कुछ संस्मरण भी उन्होंने सुनाए। रात्रि में पत्थर गिरने की घटना से वे काफी चिन्तित थे और जल्दी से जल्दी मालपा छोड़कर आगे बढ़ना चाहते थे। लामारी तक गए हुए दो पोर्टर रास्ते की स्थिति देखकर वापस आ रहे थे। उन्होंने सूचना दी कि आज रास्ता खुलने वाला नहीं है। हमारे साथ वार्ता कर रहे यात्री इस सूचना पर बेहद चिन्तित हो उठे। दूसरी बार कैलास यात्रा कर रहे साथी ने सुझाव दिया कि ऊपर सा.नि.वि. के विश्राम गृह में लगे हुए वायरलेस सेट से बूँदी बात करते हैं तथा सभी यात्रा दल के सदस्य और पोर्टर निकलकर रास्ता साफ करके आगे बढ़ते हैं। काफी हँसमुख और मिलनसार यात्री का एक वाक्य तो मुझे अभी बिल्कुल उसी तरह याद है सभी मिलकर एक-एक पत्थर डालते हैं। रास्ता बनेगा कैसे नहीं? एक-दूसरे का हाथ पकड़ेंगे और पार कर जाएँगे।

इन लोगों के विश्राम गृह की ओर जाने के कुछ समय बाद ही शर्मा जी तथा उनके साथी भी वापस आ गए और उन्होंने सूचना दी कि आज रास्ता नहीं खुल सकेगा। हम लोगों ने भी तुरन्त तय किया कि आगे नहीं बढ़ सकते हैं तो वापस लौटें। जल्दी-जल्दी सामान पैक किया और लगभग 12 बजे दिन में हमने मालपा छोड़ दिया।

मालपा से लगभग आधा किमी. आगे बढ़कर हमें रात्रि में गिरे पत्थरों का विशाल ढेर दिखाई दिया। इनमें से कुछ तो इतने बड़े थे कि इनके गिरने से जमीन में लगभग 1 से 2 फीट गहरे गड्डे बन गए थे। इन्हीं पत्थरों से आगे भू-स्खलन हुआ था और रास्ता काली नदी में समा गया था। ऊपर से छोटे-बड़े पत्थर लगातार गिर रहे थे। पुनः इस रास्ते को पार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। आपस में वार्ता हुई और तय हुआ कि फिर मालपा जाए और आज की रात भी वहीं बिताई जाए। लगभग 100 मीटर दूर तक हमने पुनः मालपा की ओर वापसी की तभी दो स्थानीय व्यक्ति नीचे की ओर आते दिखाई दिए। इन्हें देखकर हमारे कदम भी थम गए। अपने पहाड़ी होने का भाव भी जागा और तय हुआ कि अगर ये उस जगह को पार कर लेंगे तो हम भी पार करेंगे और आखिर हमने भी वह जगह पार कर ली।

17 ता. की वह काली रात हमने सिमरखोला गाँव में बिताई। अब हमारा कार्यक्रम नारायण आश्रम होते हुए धारचूला पहुँचने का था।

18 ता. की सुबह 9 बजे हम सिमलिंग टॉप की चढ़ाई पार कर उतार में थे कि नीचे से 15-20 आदमी आते दिखाई दिए। उन्होंने हमें रात में घटी घटना की सूचना दी। सुनकर एकाएक विश्वास नहीं हुआ, फिर धीरे-धीरे पूरे रास्ते भर हमें 5-7 आदमियों के दल मिलते रहे। ये सब लोग वहाँ मारे गए लोगों के परिवारों परिचितों में से थे और तुरन्त मालपा पहुँचकर स्थिति जानना चाहते थे।

रास्ते में आई.टी.बी.पी. का ट्रांजिट कैम्प भी था पर वहाँ इतनी ही सूचना मिली कि रात में पूरा मालपा बह गया है। हमने पांगला होते हुए धारचूला पहुँचने का निश्चय किया ताकि रास्ते में पड़ने वाले गाँवों में लोगों से सम्पर्क हो सके।

बंगबा गाँव में एक भी पुरुष नहीं था। सभी महिलाएँ और बच्चे रास्ते में आकर खड़े हो गए। हम अपने स्तर से जितनी जानकारियाँ उन्हें दे सकते थे, हमने उन्हें दी, पर महिलाओं और बच्चों के सामूहिक रुदन के आगे हम अधिक देर तक गाँव में रुक नहीं पाए। उनमें कुछ के परिवार के सदस्य बूँदी में रुके दल के साथ थे तो कुछ मालपा में रुके दल के साथ। हमारी सूचना से उनमें कुछ तो कोरी तसल्ली मिली ही।

आगे के गाँव कुमाऊँनी लोगों के थे। वहाँ भी लोग इस घटना के बारे में विस्तार से जानकारी चाहते थे और इस घटना से दुखी और आतंकित भी थे।

2.30 बजे हम लोग पांगला पहुँचे तब पता लगा कि पटवारी और नायब तहसीलदार तथा सा.नि.वि. में कनिष्ठ अभियन्ता घटबगड़ के रास्ते मालपा के लिए अभी-अभी पांगला से रवाना हुए हैं।

रात्रि में 8 बजे हम धारचूला पहुँचे। सर्वत्र दुख की लहर फैली हुई थी। साथ में अफवाहें भी। एस.टी.डी. बूथ में जब हम फोन कर रहे थे तो एक महिला, जिसे पता चला कि हम अभी-अभी ऊपर से आए हैं, यह जानने के लिए आ गई कि ऊपर कितनी बड़ी झील बनी है। उससे कहा गया था कि जिप्ती नाले में बहुत बड़ी झील बन गई है जो कभी भी टूट सकती है और दार्चुला नदी के किनारे बसे लोगों को धारचूला खाली करना है।

19 ता. की सुबह दार्चुला में हुई शोकसभा में हमने भी भागीदारी की। इसके पश्चात् हम दो दैनिकों के स्थानीय संवाददाताओं से मिले, जिन्हें हमने अपनी लिखित विवरण दिया। सड़क पर ही इन पत्रकारों से वार्ता भी हुई और जब हमने शासन के निकम्मेपन पर सवाल उठाए तो उसमें से एक पत्रकार बन्धु यह कहते हुए प्रशासन की तरफदारी करने लगे कि मौसम इतना खराब है और इतनी दूरी है। अधिकारी कर ही क्या सकते हैं। तब तक आस-पास काफी लोग इकट्ठा हो चुके थे और लोगों ने तुरन्त प्रतिक्रिया व्यक्त की कि एस.डी.एम. साहब तो बगैर हैलीकॉप्टर के हिलेंगे भी नहीं। लोगों की प्रतिक्रिया सुनते ही दोनों पत्रकार तुरन्त वहाँ से हट गए और फिर उन्होंने हमारे बयानों को छपवाने की कृपा भी नहीं की।

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