कोयले से किस तरह हमारे जल की बर्बादी और प्रदूषण होता है
(टेनेसी, अमेरिका में 2008 में ‘किंग्स्टन’ प्लांट की 3.8 बिलियन लीटर कोयले की राख की गाद एमोरी नदी में डाला गया। फोटो: डॉट ग्रिफिथ)
हमारी धरती के दुर्लभ प्राकृतिक संसाधनों में से एक ‘पानी’ पर कोयले के कारण भी बुरी तरह से खतरा उत्पन्न हो रहा है। कोयले के खनन, परिवहन और उससे बिजली उत्पादन, इन सभी में भारी पैमाने पर साफ-पानी की बर्बादी होती है और बड़ी मात्रा में जल का प्रदूषण होता है। भारत में औसतन ‘1000 मेगावाट का कोयला-तापीय विद्युत गृह’ साल भर में इतने पानी की खपत करता है जितना कि सात लाख लोगों को पानी की जरूरत होती है। वैश्विक स्तर पर 'कोयला-तापीय विद्युत गृह' पानी की हमारी कुल मांग का लगभग 8% की खपत करते हैं। कोयला उद्योग की पानी की प्यास तब और अधिक चिंताजनक लगती है, जब हम देखते हैं कि कोयला का बड़े पैमाने पर उत्पादन और खपत करने वाले – भारत, चीन, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका सरीखे कई देश जो पहले ही पानी के संकट से जूझ रहे हैं, फिर भी वे अपने कोयला उद्योग के विस्तार में जुटे हुए हैं।
कोयला एक प्रमुख प्रदूषक है। कोयले के जीवन-चक्र का हर रूप में इस्तेमाल पानी में भारी धातुओं और अन्य विषाक्त वस्तुओं के कारण इस हद तक प्रदूषण करता है, जो मनुष्यों और वन्य जीवन को बुरी तरह से हानि पहुंचाता है। कोयला-जनित विषाक्त तत्वों के संपर्क में आने से मनुष्य में जन्म संबंधी विकृतियों, रोगों और अकाल मृत्यु की दर में वृद्धि हुई है। इसी तरह, वन्य जीवन पर भी प्रभाव पड़ता है। कोयले के जीवन-चक्र से उत्पन्न होने वाले प्रदूषक तत्व अक्सर रंगहीन और अदृश्य से होते हैं, और इसीलिए कोयला जीवन-चक्र से दूषित पदार्थ हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए एक अदृश्य गंभीर खतरा हैं।
भाग-1 पानी की भारी खपत करने वाला
खनन और तैयारी में पानी की खपत
खनन प्रक्रियाओं के दौरान एक्वीफर (भूजल-भंडारों) से काफी भारी मात्रा में भूजल निकाला जाता है ताकि खनन कंपनियां कोयले की परत तक पहुंच सकें। मोटे तौर पर एक टन कोयले के सतही-खनन के दौरान 10,000 लीटर भूजल खींचकर निकाला जाता है। भूमिगत खनन की प्रक्रिया में एक टन कोयले के लिए लगभग 462 लीटर भूजल निकाल बाहर किया जाता है। कोयले की परत की गहराई में जाने के लिए ज़मीन को पानी से खाली करना पड़ता है, इसके कारण स्थानीय भूजल-स्थिति और भूगोल के हिसाब से, पानी खींचे जाने की मात्रा में काफी अंतर होता जाता है। ऑस्ट्रेलिया के ‘गैलिली बेसिन में प्रस्तावित1 बड़ी खदानों की सीरीज़’ में 1.3 बिलियन लीटर पानी निकाला जाएगा – जो सिडनी हार्बर के पानी के ढाई गुना से भी ज्यादा। पानी निकाले जाने की इस प्रक्रिया के कारण गैलिली बेसिन के इलाकों में पानी के स्तर में भारी गिरावट आएगी जिससे स्थानीय कुएं किसी उपयोग के नहीं रह जाएंगे और आस-पास की नदियों के स्तर पर भी प्रभाव पड़ेगा।2
कोयले का खनन कर लिए जाने के बाद पैदा हुई गंधक एवं अन्य अशुद्धियों को हटाने के लिए उसे सामान्यत: पानी या अन्य रसायनों से धोया जाता है। अमेरिकी ऊर्जा विभाग के एक अनुमान के अनुसार अमेरिका में कोयले के खनन और धुलाई के काम में प्रतिदिन 260-980 मिलियन लीटर पानी की खपत हो जाती है।3 इस पानी से 5-20 मिलियन लोगों की पानी की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जा सकता है (प्रति व्यक्ति/प्रतिदिन 50 लीटर पानी की खपत के आकलन के आधार पर)। जल-संसाधनों पर पड़ने वाला यह दबाव काफी गंभीर हो जाता है क्योंकि खदानें अक्सर सूखे क्षेत्रों में स्थित होती हैं। खनन के कारण जल-संसाधनों पर गंभीर एवं दूरगामी प्रदूषण के प्रभाव भी पड़ते हैं जिससे पानी के स्रोतों से सम्पन्न देशों में भी जल का अभाव उत्पन्न हो सकता है। इसका विवरण इस ‘तथ्य-पत्र के भाग 2’ में दिया गया है।
प्रदहन
कोयला उद्योग में होने वाली पानी की खपत की बड़ी मात्रा 'कोयला-तापीय विद्युत गृहों' में इस्तेमाल होती है। स्थानीय स्तर पर निर्मित प्लांट बड़ी मात्रा में साफ जल का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे समय में जबकि जलवायु परिवर्तन पहले से ही दुनिया भर में पानी की आपूर्ति को प्रभावित करने लगा है, कोयला-तापीय विद्युत कारखानों से पानी के संसाधनों पर और ज्यादा दबाव बढ़ रहा है।
दहन प्रक्रिया के दौरान कोयले को पानी उबालने और भाप में परिवर्तित करने के लिए जलाया जाता है। इस भाप का इस्तेमाल पॉवर-जेनेरेटर की टर्बाइन को चलाकर बिजली उत्पादित की जाती है। भाप को ठंडा करने और फिर से पानी में बदलने के लिए विभिन्न प्रकार के ‘शीतलन प्रणाली’ का इस्तेमाल किया जाता है। कोयला-तापीय विद्युत संयंत्रों में ज्यादातर पानी की खपत शीतलन प्रणाली के लिए ही होता है।
कूलिंग प्रणालियों को चाहिए पानी ही पानी
जल-स्रोतों के दोहन और कोयला-तापीय विद्युत संयंत्रों द्वारा खपत किए जाने वाले जल की मात्रा में भिन्नता हो सकती है, जिसका कारण प्रयोग में लाए जाने वाली भिन्न शीतलन प्रणालियां कोयला-तापीय विद्युत संयंत्रों की स्थानीय स्थिति है। ‘वन्स-थ्रू कूलिंग सिस्टम’ वाले कोयला-तापीय गृह भारी मात्रा में पानी का निष्कर्षण करते हैं जिससे जलीय जीवन पर घोर दुष्प्रभाव पड़ता है। जिसकी वजह से अमेरिका में ही प्रतिवर्ष अनुमानत: 2 बिलियन मछलियों, केकड़ों और झींगा और 528 बिलियन मछलियों के अंडे और लार्वा छनन-जालियों से टकराकर या कूलिंग सिस्टम द्वारा खींच लिए जाने के कारण मर जाते हैं।
हालांकि निष्कर्षित किया गया ज्यादातर जल पानी के मूल स्रोतों में पुन: वापस कर दिया जाता है लेकिन निष्कर्षित किए जाने के वक्त के तापमान की तुलना में उसे 5.6-11°C ज्यादा गर्म तापमान पर वापस भेजा जाता है। यह “तापीय जल” जलीय जीव-जंतुओं और पारिस्थितिकी को नुकसान पहुँचाता है क्योंकि वे तापमान में जरा से भी अंतर के प्रति संवेदनशील होते हैं।5
‘क्लोज्ड-लूप या रीसर्कुलेटिंग कूलिंग सिस्टम’ वाले 'कोयला-तापीय विद्युत गृह' काफी कम मात्रा में पानी का निष्कर्षण करते हैं लेकिन ‘वन्स-थ्रू शीतलन प्रणालियों’ के मुकाबले उनमें खपत ज्यादा होती है। आस-पास की हवा द्वारा पानी को ठंडा किए जाने की प्रक्रिया के अंतर्गत इस सिस्टमों में आम तौर पर बड़े-बड़े कूलिंग टावरों का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन इसमें वाष्पीकरण के कारण लाखों लीटर पानी नष्ट हो जाता है जिसकी पूर्ति की जानी चाहिए।
दुनिया में ऐसे कोयला-तापीय विद्युत संयंत्र छ: प्रतिशत से भी कम हैं जिनमें शुष्क शीतलन प्रणालियों का इस्तेमाल किया जाता है, यानी कूलिंग के लिए पानी के बदले हवा का प्रयोग। ये ऊर्जा-संयंत्र रीसर्कुलेटिंग शीतलन प्रणालियां वाले संयंत्रों के मुकाबले 75% कम पानी का उपयोग करते हैं। लेकिन शुष्क कूलिंग प्रणालियां महंगी एवं सघन ऊर्जा वाली होती हैं। शुष्क शीतलन प्रणालियां वाले ऊर्जा संयंत्र अपने परिचालन में ज्यादा कोयला जलाते हैं जिससे उनकी प्रभावोत्पादकता कम हो जाती है और वे छ: प्रतिशत तक ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं।6
पानी के बढ़ते हुए संघर्ष
दुनिया के सूखे क्षेत्रों में कोयला खदानों और ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना के कारण पानी को लेकर गंभीर संघर्ष की स्थिति बनी हुई है। 2001-2010 के दौरान, मध्य भारत के विदर्भ क्षेत्र के किसान घोर कर्ज़ में डूब गए क्योंकि सरकार ने अपनी अर्थ-व्यवस्था को उदार बनाते हुए छोटे किसानों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता रोक दी और कृषि की तुलना में ऊर्जा-सृजन, ज्यादातर कोयला, के लिए पानी के आवंटन को प्राथमिकता दे दी गई। गंभीर आर्थिक संकट के कारण 6000 से भी अधिक किसान आत्महत्या करने को बाध्य हुए। इस त्रासदी के बावजूद, विदर्भ में 71 कोयला-ताप परियोजनाएं स्वीकृति के विभिन्न चरणों में हैं जिनसे वर्ष में दो बिलियन घनमीटर पानी की खपत होगी।
इस आकलन के बावजूद कि राष्ट्रीय स्तर पर पानी की मांग 30 साल के अंदर पूर्ति से भी ज्यादा बढ़ जाएगी, भारत सैकड़ों 'कोयला-तापीय विद्युत गृहों' के विकास की योजना में जुटा हुआ है। ये प्रस्तावित 'कोयला-तापीय विद्युत गृह' एक वर्ष में 2500-2800 मिलियन घनमीटर पानी की खपत करेंगे।8 यह इतना पानी होगा जिससे भारत के छ: बड़े शहरों – मुंबई, दिल्ली, बंगलोर, हैदराबाद, अहमदाबाद और चेन्नई – में रहने वाले लोगों की पानी की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जा सकता है (शहरी निवासियों के लिए प्रतिदिन 135 लीटर पानी के आकलन पर आधारित)।
चीन की सरकार 14 विशाल पैमाने वाले कोयला खनन क्षेत्रों और 16 नए कोयला-ताप विद्युत संयंत्रों के विकास की योजना बना कर चल रही है जो खास तौर पर उसके पश्चिमी प्रदेशों में स्थित होंगे – और यह सब कुछ तब हो रहा है जब यह अनुमान प्रकट कर दिया गया है कि वर्ष 2030 के आते-आते चीन को पानी के गंभीर संकट से जूझना होगा। ग्रीनपीस का अनुमान है कि ये कोयला-तापीय ऊर्जा-संयंत्र वार्षिक रूप से 10 बिलियन घनमीटर पानी की खपत करेंगे (मोटे तौर पर येलो रिवर की वार्षिक जल-मात्रा का छठां हिस्सा)। वर्तमान समय में, इन सूखे क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति जल-संसाधन राष्ट्रीय औसत का मात्र 1/10 है। अभी जो पानी पीने, खेती करने और वन्य जीवन के लिए उपलब्ध है, उसकी बड़ी भारी मात्रा कोयला-संयत्रों में खपत हो जाया करेगी।
दक्षिण अफ्रीका में, पानी की किल्लत को कोयला आधारित गतिविधियों का विस्तार समस्या को और गंभीर बनाएगा। अभी भी पानी की मांग और आपूर्ति के बीच अनुमानत: 17% का फासला है। अब 13 नए 'कोयला-तापीय विद्युत गृहों' के प्रस्ताव के बाद, स्थिति और बदतर होगी। कोयला खानों का विस्तार भी पानी की कमी के लिए जिम्मेदार है और उनसे ताजे पानी की आपूर्ति के दुर्लभ स्रोत भी प्रदूषित हो जाएंगे।9 देश के उत्तरी हिस्से वाटरबर्ग के स्वच्छ जल-संवेदनशील क्षेत्र में कोयला आधारित गतिविधियों का विस्तार एक बहुत बड़ा खतरा है क्योंकि इस पानी को कोयला उद्योग को देने का कहा गया है और कृषि जैसे अन्य उपयोगों के लिए कोई वचनबद्धता नहीं है।
पानी की कमी वाले क्षेत्रों में कोयला आधारित गतिविधियों की आर्थिक स्थिरता भी प्रभावित हो सकती है। यदि कोयला संयंत्र संचालित करने के लिए पर्याप्त पानी नहीं है, तो वे बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। गर्म मौसम में जबकि बिजली की अधिक मात्रा में जरूरत होती है तब शीतलन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला पानी भी गर्म हो जाएगा और इससे बिजली उत्पादन में कमी आ जाएगी। उत्पादन में किसी भी तरह की गिरावट कंपनियों के राजस्व में कटौती करेगी और इससे कंपनियों के लिए कर्ज-अदायगी में मुश्किल हो जाएगी।
भाग 2: कोयले का जीवन-चक्र किस तरह हमारे जल-स्रोतों को प्रदूषित करता है
खनन
सतह पर किए जाने वाले खनन के कारण कई बार प्राकृतिक जल-प्रवाह में बड़े परिवर्तन भी हो जाते हैं, जिसके कारण बाढ़ आ सकती है और निचले हिस्से में रहने वाले समुदायों की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। जब खुले गड्ढे वाली खानें खोदी जाती हैं तो जमीन के बहुत बड़े हिस्से पर से पेड़-पौधों का एकदम सफाया हो जाता है। भारी पैमाने पर जमीन की खुदाई की जाती है और खुदाई से निकली मिट्टी खदानों के आसपास ढेर लगा दिया जाता है। यही ढेर वर्षा होने पर टनों अन्य अपशिष्ट पदार्थों के साथ भू-क्षरण जल-स्रोतों, आर्द्र भूमियों और नदियों को अवरुद्ध और प्रदूषित कर देता है। कभी-कभी इन अपशिष्टों से नदियां इतना ज्यादा बाधित हो सकती हैं कि मछली पकड़ना या परिवहन के लिए नदियों का उपयोग रुक सकता है।
अनुमानत:, अमेरिका के एपेलेशिया क्षेत्र में पहाड़ों के शिखर काट कर किए जाने वाले खनन (माउंटेनटॉप रिमूवल माइनिंग) के कारण 3840 किमी जलधारा अंदर दब चुकी है। इन घाटियों को इस तरह से भरा जाना ऐसा काम है कि उन्हें फिर मूल स्थिति में नहीं लाया जा सकता। प्रदूषित जल के संसर्ग में आने के कारण, माउंटेनटॉप रिमूवल माइनिंग के पास रहने वाले समुदायों को फेफड़े के कैंसर और हृदय, श्वसन रोग एवं किडनी के रोग ज्यादा तेज दर से अपनी चपेट में ले रहे हैं। शोधकर्ताओं को यह पता चला है कि 1999-2005 के दौरान, इस क्षेत्र में रहने वाले 4432 लोग अकाल-मृत्यु के शिकार हो गए जिसका सबसे बड़ा कारण प्रदूषित पानी पीना था।10 समुदायों को 26 प्रतिशत ज्यादा जन्म संबंधी विकृतियों का भी शिकार होना पड़ा।11
कोयला खनन के सबसे गंभीर प्रभावों में से एक है ‘एसिड माइन ड्रेनेज’। जब पानी खनन द्वारा उघेड़े गए चट्टानों से क्रिया करता है तो प्राकृतिक रूप से अपघटित होने वाले भारी धातुओँ जैसे अल्युमिनियम, संखिया (आर्सेनिक) और पारद (मर्करी) वातावरण में मुक्त हो जाते हैं और ये घुलने से पानी तेजाबी हो जाता है, जिससे भूजल एवं सतही जल प्रदूषित होता जाता है, साथ ही जलीय पारिस्थितिकी और उन समुदायों के जीवन के लिए खतरा पैदा कर देता है, जो पीने और खेती के लिए इन्हीं जल-स्रोतों पर निर्भर हैं। ये ऐसे प्रभाव हैं जो किसी खनन-क्षेत्र को त्याज्य हो जाने के काफी दिनों बाद और लम्बे समय तक कायम रह सकते हैं।
दक्षिण अफ्रीका के जल मंत्रालय के एक अधिकारी ने यह सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि एसिड माइन ड्रैनेज “अभी तक की सबसे बड़ी पर्यावरणीय चुनौती है।”12 दक्षिण अफ्रीका में करीब 6000 परित्यक्त खदानें हैं। कुछ लोगों का आकलन है कि ‘वाल नदी’ रोजाना लगभग 200 मिलियन लीटर एसिड माइन ड्रैनेज से प्रदूषण का खतरा झेल रहा होता है।13 चूंकि एसिड माइन ड्रैनेज के प्रभाव किसी खदान को त्याग दिए जाने के काफी दिनों बाद शुरू होते हैं अत: उसके दायित्व और सफाई के भारी-भरकम खर्चे स्थानीय सरकारों और टैक्स देने वालों को भुगतना होता है।
कोयले की साफ-सफाई
कोयले को खान से निकाले जाने के बाद, उसे प्रायः पानी या केमिकल्स से धोया जाता है ताकि गंधक, राख और चट्टान जैसी अशुद्धियां दूर हो सकें। इस प्रक्रिया के लिए भारी पैमाने पर पानी की आवश्यकता होती है और इससे भू-जल के स्रोतों पर काफी दबाव पड़ता है। निकलने वाले अपशिष्ट पानी को कीचड़ भरे जलाशयों में जमा किया जाता है। ऐसे कुछ कीचड़ वाले जलाशय अमेरिका के ‘हूवर डैम’ से भी बड़े हैं जिनमें लाखों लीटर अत्यंत विषाक्त अपशिष्ट पानी जमा है।14 कोयले के कीचड़ में बड़ी मात्रा में भारी धातुएं और जैव यौगिक होते हैं जिनसे कैंसर हो सकता है और भ्रूण का विकास बाधित हो सकता है। कीचड़ वाले इन तालाबों की तली पक्की नहीं होती, जिससे उनके केमिकल भूजल एवं सतही जल में रिसते रहते हैं।
इन कीचड़ वाले जलाशयों को घेरने के लिए जो दीवार बनाए जाते हैं उन्हें अक्सर बड़ी जल्दबाजी में तैयार किया जाता है और उनकी सुरक्षा और संरचना को ठोस बनाने पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता। कोयले के कीचड़ वाले इन बांधों की दीवारों के टूट जाने पर लाखों लीटर विषाक्त कीचड़ बाहर फैल जाता है, जिससे ज़मीन, नदियों और जलधाराएं दूषित हो जाते हैं। अक्टूबर 2013 में, मिट्टी के बने एक बांध की जीवार टूट जाने के कारण 670 मिलियन लीटर कोयले का कचरा कनाडा के ‘अथाबास्का’ की सहायक नदियों में जा मिला। उसमें भारी मात्रा में संखिया (आर्सेनिक), कैडमियम, मर्करी और लीड शामिल था, वहाँ की सरकार को लोगों को यह चेतावनी देना पड़ी कि जब तक वह कचरा आगे नहीं बह जाए वे नदी के जल का उपयोग न करें।15
कोयले की ढुलाई
‘बर्लिंगटन नॉर्दन सांताफे रेलवे’ (बीएनएसएफ रेलवे) का अनुमान है कि रेलवे से कोयले की ढुलाई के दौरान 600 किलोमीटर की यात्रा में एक कोच से करीब 300 किलोग्राम कोयले का चूरा निकल सकता है। कोयले का चूरा हवा को प्रदूषित करता है और उससे मनुष्य में ‘ब्लैक लंग’ बीमारी हो सकती है। कोयले की ढुलाई के दौरान तथा क्षतिग्रस्त डब्बों के कारण और लोडिंग-अनलोडिंग की प्रक्रिया में, कोयले की धूल जल-स्रोतों को भी प्रदूषित करती रहती है।
प्रदहन
उत्सर्जित प्रदूषित पदार्थों की विषाक्तता के नजरिये से देखें तो अमेरिका में कोयला तापीय विद्युत गृह ही पानी को विषैला करने के सबसे बड़े स्रोत हैं। 'कोयला-तापीय विद्युत गृहों' से निकलने वाले अपशिष्ट जल में अनेक भारी धातुएं एवं विषाक्त पदार्थ होते हैं जो जलीय जीव-जंतुओं को नुकसान पहुंचाते और उनके लिए जानलेवा होते हैं और पेयजल की आपूर्तियों को प्रदूषित कर देते हैं।16
'कोयला-तापीय विद्युत गृह' प्रति वर्ष भारी धातुओं से प्रदूषित लाखों टन कचरा उत्पन्न करते हैं। इन अपशिष्टों में आर्सेनिक, बोरोन, कैडमियम, लीड, मर्करी, सीलेनियम एवं अन्य कई भारी धातु होते हैं। कोयले के प्रदहन से उत्पन्न अपशिष्ट को सामान्यत: किसी सूखे लैंडफिल में डाल दिया जाता है या पानी मिलाकर किसी बड़े गड्ढे में रखा जाता है ये गढ्ढे कच्ची तली वाले होने की वजह से सारे प्रदूषक सतही और भूजल में रिस जाते हैं, और जलापूर्ति को प्रदूषित करते हैं।
गीले भंडारण की तुलना में सूखा भंडारण ज्यादा बेहतर विकल्प है। सूखे भंडारण में राख को किसी बड़े लैंडफिल में डाला जाता है। विषाक्त धूल को उड़ने और वर्षा-जल के राख में मिलकर जल-स्रोतों को प्रदूषित करने से रोकने के लिए इस स्थान को ढंका जाना जरूरी है। यदि इस लैंडफिल के तले को किसी अभेद्य अथवा ठोस सामग्री से तैयार नहीं किया जाता तो भारी धातुओं के भूजल में मिल जाने की संभावना बनी रहती है।
वायु-प्रदूषण नियंत्रण प्रणालियां 'कोयला-तापीय विद्युत गृहों' द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट जल की मात्रा को और बढ़ा देती हैं क्योंकि वे प्रदूषकों को हवा की बजाय़ पानी में मिला देती हैं। यह अपशिष्ट जल अपने भारी धातुओं के ऐसे भारी संकेन्द्रण के कारण जिससे वन्य जीवन एवं मनुष्य को नुकसान पहुंचता है, अक्सर भूजल एवं धरातलीय जल को भी प्रदूषित कर देता है।17
कोयला जलने के बाद निकले अपशिष्ट के प्रभाव
जलाए गए कोयले के अपशिष्ट में निहित विषाक्त पदार्थ सभी प्रमुख मानव अंग-प्रणालियों को हानि पहुंचा सकते हैं, भ्रूण और बच्चों को नुकसान पहुंचा सकते हैं, उनसे कैंसर हो सकता है और मृत्यु-दर बढ़ सकती है। अमेरिका में, कोयले के राख के अपशिष्टों से रिसे हुए विषाक्त पदार्थों ने 100 से भी अधिक समुदायों के पेयजल को प्रदूषित किया है। अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी यानी यूएस इन्वायरन्मेंटल प्रोटेक्शन एजेन्सी (ईपीए) ने यह पाया है कि कुछ मामलों में कोयले के राख से रिसने वाले विषाक्त तत्वों का स्तर संघीय पेयजल मानकों से सैकड़ों-हजारों गुणा ज्यादा है। एजेंसी का यह भी अनुमान है कि कोयले के बिना पक्की तली वाले राख-कुंड के एक मील तक के दायरे में रहने वाले 50 में से 1 व्यक्ति को प्रदूषित कुओं का जल पीने के कारण कैंसर से ग्रस्त होने का जोखिम है। यह ईपीए द्वारा स्वीकार्य मानक से 2,000 गुणा ज्यादा है।
जलीय जैव-विविधता पर कोयले के प्रदूषण से पड़ने वाला प्रभाव अत्यंत गंभीर है। रिकॉर्ड यह भी दर्शाते हैं कि कोयले के राख से उत्पन्न प्रदूषण मछलियों और उभयचारियों में विकृतियों को जन्म देता है, प्रजनन की दर में कमी लाता है और उनकी पूरी आबादी का ही सफाया कर डालता है। कोयले के प्रदहन से उत्पन्न अपशिष्ट ने अमेरिका में मछलियों और वन्य जीवन का जो नुकसान किया है उसकी कीमत 2.32 बिलियन अमेरिकी डॉलर आंकी गई है। इस नुकसान के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है कोयले से निकला अत्यंत विषाक्त सिलेनियम।
कोयले के राख-कुंडों का सबसे ज्यादा बड़ा प्रभाव तब पड़ता है जब वे क्षतिग्रस्त होते हैं। अमेरिकी कोल ऐश पौंड की सबसे बड़ी त्रासदी दिसंबर 2008 में किंग्स्टन, टैनेस, में घटित हुई थी जबकि 3.8 बिलियन लीटर कोयले का राख एमोरी नदी में प्रवाहित हो गया था। कितने घर नष्ट हो गए थे और कई परिवारों को वहां से कहीं अन्यत्र जाकर बसना पड़ा था क्योंकि उनकी जमीन विषाक्त कीचड़ में डूब गई थी। कोयला उद्योग के पीछे सक्रिय राजनीतिक ताकतों ने अभी हाल-हाल तक कोयले के प्रदहन से उत्पन्न अपशिष्ट को विनियमित करने के प्रयासों को विफल कर दिया है।18
पारा (मर्करी)
जलता हुआ कोयला हवा में विषाक्त पारा (मर्करी) मुक्त करता है और फिर वह वर्षा के माध्यम से नदियों और जल-स्रोतों में जा मिलता है। जब हम प्रदूषित मछली खाते हैं तो खाद्य-श्रृंखला में जमा होने वाला यह विष अंत में हमारे शरीर और स्नायु-प्रणाली में जा मिलता है। मर्करी एक बड़ा ही शक्तिशाली स्नायविक विष (न्यूरोटॉक्सिन) है जो मस्तिष्क और स्नायु-तंत्र को क्षतिग्रस्त कर सकता है।
खास तौर पर गर्भवती महिलाओं या उनके लिए जो गर्भवती होने का इरादा रखती हैं, यह अत्यंत ही खतरनाक है क्योंकि मर्करी के संसर्ग में आने से शिशुओं और नवजात बच्चों में विकास संबंधी समस्याएं, सीखने-समझने से जुड़ी हुई विकृतियां तथा चलने-फिरने और बोलने की क्षमता के विकास में देरी हो सकती है।
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