आबादी के लिये समुद्र बनता संकट


बढ़ते तापमान ने अब तीव्रता से असर दिखाना शुरू कर दिया है। जिसके चलते समुद्र ने भारत के दो द्वीपों को लील लिया है। हिमालय के प्रमुख हिमनद 21 प्रतिशत से भी ज्यादा सिकुड़ गए हैं। यहाँ तक कि अब पक्षियों ने भी भू-मण्डल में बढ़ते तापमान के खतरों को भाँप कर संकेत देना शुरू कर दिये हैं। इधर इस साल मौसम में आये बदलाव ने भी बढ़ते तापमान से आसन्न संकट के संकेत दिये हैं। यदि मनुष्य अभी भी पर्यावरण के प्रति जागरूक नहीं हुआ तो प्रलयंकारी खतरों से समूची मानव जाति को जूझना ही पड़ेगा? आमतौर से अपने स्वभाव व चरित्र के अनुसार समुद्र मनुष्य के लिये जानलेवा खतरा तूफान के समय ही बनता है। कभी-कभी समुद्र की ज्वार-भाटा जैसी नैसर्गिक प्रवृत्ति भी जानलेवा साबित हो जाती है, लेकिन ज्वार-भाटा समुद्र के तटीय क्षेत्रों में एक निश्चित समय में आता है इसलिये मनुष्य सावधानी बरतता है और ज्वार-भाटा की लहरों से बचा रहता है। लेकिन अब विश्व बैंक के एक अध्ययन से पता चला है कि वायुमण्डलीय ताप के कारण समुद्र के जलस्तर में एक मीटर की बढ़ोत्तरी से विकासशील देशों के तटीय इलाकों में रहने वाले करीब छः करोड़ लोगों को अपने घरों से बेघर होना पड़ सकता है।

इस बढ़े जलस्तर का प्रभाव सबसे अधिक पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका और पूर्वी एशिया के लोगों पर पड़ेगा। नदी डेल्टा क्षेत्रों में रहने वाले विकासशील देशों के 84 तटीय इलाकों के उपग्रह से लिये नक्शों और आँकड़ों से जो नतीजे सामने आये हैं उससे अन्दाजा लगाया जा रहा है कि इस सदी के अन्त तक छः करोड़ लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ सकता है।

जलवायु परिवर्तन पर गठित संयुक्त राष्ट्र अन्तर राजकीय पैनल ने बढ़ते तापमान के लिये मानव क्रियाकलापों को दोषी पाया है। पैनल द्वारा जताए अनुमान के मुताबिक इस शताब्दी के अन्त तक समुद्र के जलस्तर में 18 से 59 सेंटीमीटर की बढ़ोत्तरी होगी। अगर बर्फ की विशाल चादरें मौजूदा रफ्तार से पिघलती रहीं तो तुलनात्मक रूप से इससे भी कहीं ज्यादा जलस्तर में बढ़ोत्तरी हो सकती है।

बढ़ते तापमान ने अब तीव्रता से असर दिखाना शुरू कर दिया है। जिसके चलते समुद्र ने भारत के दो द्वीपों को लील लिया है। हिमालय के प्रमुख हिमनद 21 प्रतिशत से भी ज्यादा सिकुड़ गए हैं। यहाँ तक कि अब पक्षियों ने भी भू-मण्डल में बढ़ते तापमान के खतरों को भाँप कर संकेत देना शुरू कर दिये हैं। इधर इस साल मौसम में आये बदलाव ने भी बढ़ते तापमान से आसन्न संकट के संकेत दिये हैं। यदि मनुष्य अभी भी पर्यावरण के प्रति जागरूक नहीं हुआ तो प्रलयंकारी खतरों से समूची मानव जाति को जूझना ही पड़ेगा?

भारत में ही नहीं पूरे भू-मण्डल में तापमान तेजी बढ़ रहा है। जिसके दुष्परिणाम सामने आने लगा है। भारत के सुन्दरवन डेल्टा के करीब सौ द्वीपों में से दो द्वीपों को समुद्र ने हाल ही में निगल लिया है और करीब एक दर्जन द्वीपों पर डूबने का खतरा मँडरा रहा है। इन द्वीपों पर दस हजार के करीब आदिवासियों की आबादी है।

यदि ये द्वीप डूबते हैं तो इस आबादी को भी बचाना असम्भव हो जाएगा। जादवपुर विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ ओशियनोग्राफिक स्टडीज के निदेशक सुगत हाजरा ने स्पष्ट किया है कि, लौह छाड़ा समेत दो द्वीप समुद्र में डूब चुके हैं। ये द्वीप अब उपग्रह द्वारा लिये गए चित्रों में भी नजर नहीं आ रहे हैं। हाजरा इसका कारण दुनिया में बढ़ता तापमान बताते हैं।

दूसरी तरफ भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर (एसएसी) के हिमनद विशेषज्ञ अनिल बी. कुलकर्णी और उनकी टीम ने हिमालय के हिमनदों का ताजा सर्वे करने के बाद खुलासा किया है कि हिमालय के हिमनद 21 फीसदी से भी ज्यादा सिकुड़ गए हैं। इस टीम ने 466 से भी ज्यादा हिमनदों का सर्वेक्षण करने के बाद उक्त नतीजे निकाले हैं।

जलवायु पर विनाशकारी असर डालने वाली यह ग्लोबल वार्मिंग आने वाले समय में भारत के लिये खाद्यान्न संकट भी उत्पन्न कर सकती है। तापमान वृद्धि से समुद्र तल तो ऊँचा उठेगा ही, तूफान की प्रहारक क्षमता और गति भी 20 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। इस तरह के तूफान दक्षिण भारतीय तटों के लिये विनाशकारी साबित होगें। ग्लोबल वार्मिंग का साफ असर भारत के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में देखने को मिलने लगा है। पिछले कुछ सालों से मानसून इस क्षेत्र में काफी नकारात्मक संकेत दिखा रहा है। केवल भारत ही नहीं इस तरह के वार्मिंग संकेत नेपाल, पाकिस्तान, लंका व बांग्लादेश में भी देखने को मिल रहे हैं।

देश के पश्चिमी तट जिनमें उत्तरी आन्ध्र प्रदेश का कुछ हिस्सा आता है तथा उत्तर पश्चिम में मानसून की बारिश बढ़ रही है और पूर्वी मध्य प्रदेश, उड़ीसा व उत्तरी पूर्वी भारत में यह कम होती जा रही है। पूरे देश में मानसून की वर्षा का सन्तुलन बिगड़ सकता है। ग्लोबल वार्मिंग के भारत पर असर की एक खास बात यह रहेगी कि तापमान सर्दियों के मौसम में ज्यादा बढ़ेगा। लिहाजा सर्दियाँ उतनी कड़क नहीं होंगी जितनी कि होती रही हैं। जबकि गर्मियों में मानसून के मौसम में ज्यादा बदलाव नहीं आएगा। मौसम छोटे होते जाएँगे जिसका सीधा असर वनस्पतियों पर पड़ेगा। फलस्वरूप कम समय में होने वाली सब्जियों को तो पकने का भी पूरा समय नहीं मिल सकेगा।

विभिन्न अध्ययनों ने खुलासा किया है कि सन 2050 तक भारत का धरातलीय तापमान 3 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ चुका होगा। सर्दियों के दौरान यह उत्तरी व मध्य भारत में 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा तो दक्षिण भारत (2)और अन्य पड़ोसी देशों को भी लील सकता है।

डॉ. अनिल बी. कुलकर्णी और उनकी टीम द्वारा हिमाचल प्रदेश में आने वाले जिन 466 हिमनदों के उपग्रह चित्रों और जमीनी पड़ताल के जरिए जो नतीजे सामने आये हैं, वे चौंकाने वाले हैं। 1962 के बाद से एक वर्ग किलामीटर के क्षेत्रफल में आने वाले 162 हिमनदों का आकार 38 फीसदी कम हो गया है। बड़े हिमनद तो तेजी से खण्डित हो रहे हैं। वे लगभग 12 प्रतिशत छोटे हो गए हैं। सर्वेक्षणों से पता चला है कि हिमाचल प्रदेश के इलाके में हिमनदों का कुल क्षेत्रफल 2077 वर्ग किलोमीटर से घटकर 1628 वर्ग किलोमीटर रह गया है।

पिछले 50 सालों में समुद्रों में ऐसे क्षेत्रों का विस्तार हुआ है, जहाँ ऑक्सीजन की मात्रा में आशातीत कमी दर्ज की गई है। ऐसी आशंका जताई गई है कि इसका सीधा सम्बन्ध वैश्विक जलवायु परिवर्तन से है। जानकारों का मत है कि यदि यही हालत बने रहे तो समुद्री परिस्थिकी तंत्र पर विपरीत असर होगा। दरअसल समुद्र की एक निश्चित गहराई पर ऑक्सीजन की मात्रा की न्यूनतम परत होती है। यह परत ऊपर नीचे दोनों तरफ फैल रही है। मसलन बीते चार दशकों में हिमनदों का आकार 21 फीसदी घट गया है। अध्ययनों से पता चला है कि हिमालय के ज्यादातर हिमनद अगले चार दशकों में किसी दुर्लभ प्राणी की तरह लुप्त हो जाएँगे। यदि ये हिमनद लुप्त होते हैं तो भारत की पनबिजली परियोजनाएँ भयंकर संकट से घिर जाएँगी। फसलों को पानी का जबरदस्त संकट झेलना होगा और मौसम में स्थायी परिवर्तन आ जायेगा। ये परिवर्तन मानव एवं पृथ्वी पर जीवन के लिये अत्यन्त खतरनाक हैं।

जलवायु में निरन्तर हो रहे परिवर्तन के कारण दुनिया भर में पक्षियोें की 72 फीसदी प्रजातियों पर विलुप्तियों का खतरा मँडरा रहा है। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड की हालिया रिपोर्ट के अनुसार इन्हें बचाने के लिये अभी समय है। केन्या में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में जारी प्रतिवेदन के अनुसार वातावरण में हो रहे विश्वव्यापी विनाशकारी परिवर्तन से सबसे ज्यादा खतरा कीटभक्षी प्रवासी पक्षियों, हनीकीपर्स और ठंडे पानी में रहने वाले पक्षी पेंग्यूइन के लिये है। पक्षियों ने संकेत देना शुरू कर दिये हैं कि ग्लोबल वार्मिंग दुनिया भर के जीवों के पारिस्थितिकीय में सेंध लगा ली है। इन सब संकेतों और चेतावनियों के बावजूद इंसान नहीं चेतता है तो उसे समुद्र के लगातार बढ़ रहे जलस्तर में डुबकी लगानी ही होगी।

समुद्र भी झेलेगा जलवायु परिवर्तन का संकट


मौसम में बदलाव की आहट का असर समुद्र की सतह में भी दिखाई देने लगा है। इस असर से समुद्र की परिस्थितिकी (इकोसिस्टम) तंत्र के गड़बड़ाने का संकट है। इस वजह से समुद्र की ऐसी तलहटियों में ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जा रही है, जहाँ पहले से ही ऑक्सीजन कम है। समुद्री ऑक्सीजन की गिरावट जारी रही तो तय है कि ऐसे समुद्री जीवों के मरने का सिलसिला शुरू हो जाएगा जिन्हें मनुष्य भोजन के रूप में इस्तेमाल करता है। खाद्यान्न की इस कमी के कारण भी समुद्र तटीय इलाकों से लोगों को पलायन करना पड़ेगा, जो पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या में इजाफा करेगा। यह स्थिति समुद्री रेगिस्तान का विस्तार भी करेगी।

ताजा अनुसन्धानों से पता चला है कि पिछले 50 सालों में समुद्रों में ऐसे क्षेत्रों का विस्तार हुआ है, जहाँ ऑक्सीजन की मात्रा में आशातीत कमी दर्ज की गई है। ऐसी आशंका जताई गई है कि इसका सीधा सम्बन्ध वैश्विक जलवायु परिवर्तन से है। जानकारों का मत है कि यदि यही हालत बने रहे तो समुद्री परिस्थिकी तंत्र पर विपरीत असर होगा। दरअसल समुद्र की एक निश्चित गहराई पर ऑक्सीजन की मात्रा की न्यूनतम परत होती है। यह परत ऊपर नीचे दोनों तरफ फैल रही है। आमतौर पर जलवायु परिवर्तन के नमूनों से पता चलता है कि मानवीय क्रियाकलापों के कारण समुद्री सतह गर्म होगी तो समुद्र के पानी के मंथन की स्वाभाविक दिनचर्या प्रभावित होगी। ऐसा होने पर भीतर के पानी में ऑक्सीजन नहीं पहुँचेगी।

जर्मनी के क्रिएल विश्वविद्यालय के प्रो. लोथर स्ट्रामा के नेतृत्व में किये गए एक अनुसन्धान से पता चला है कि उक्त प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी है। स्ट्रामा और उनके साथियों ने तीन महासागरों में जगह-जगह पर 300 से 700 मीटर तक की गहराई में स्थित परत पर ऑक्सीजन की मात्रा को वैज्ञानिक तरीकों से नापा। इन आँकड़ों की दूसरी सतहों पर मिली ऑक्सीजन की मात्रा से तुलना करने पर मालूम हुआ कि पिछले 50 वर्षाें में समुद्र की इस परत में ऑक्सीजन की मात्रा घटती गई है।

गौरतलब है कि ये समुद्री रेगिस्तान उन समुद्री मृत क्षेत्रों से अलग हैं, जहाँ धरती से बहकर आने वाले नाइट्रोजन उर्वरकों की वजह से अचानक शैवाल की वृद्धि होती है। फिर यह शैवाल मरने लगती है। और इन मरती शैवालों पर बैक्टीरिया की वृद्धि होती है। अपनी वृद्धि के दौरान बैक्टीरिया ऑक्सीजन सोख लेते हैं। यानी ज्यादा-से-ज्यादा पोषण की वजह से ऑक्सीजन खत्म हो जाती है।

समुद्री रेगिस्तान की बात करें तो ऑक्सीजन की घटी हुई मात्रा के आधार पर प्रशान्त महासागर के पूर्वी कटिबन्धीय भाग और हिन्द महासागर के उत्तरी भाग को अर्द्ध-विषैला कहा जाता है। यहाँ ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम हो चुकी है कि इकोसिस्टम पर असर पड़ने लगा है। ऐसे अर्द्ध-विषैले पानी में इतनी ऑक्सीजन नहीं होती कि नाइट्रोजन उससे क्रिया करके नाइट्रेट का निर्माण कर सके, जो कई जीवों के लिये पोषण का स्रोत होता है। इसकी अनुपस्थिति में सूक्ष्म जीवों (प्लवकों) को पोषण नहीं मिल पाता। गौरतलब है कि ये प्लवक ही समुद्री परिस्थितिकीय तंत्र में पोषण का बुनियादी आधार हैं। इन्हीं सूक्ष्म जीवों को आहार बनाकर मछलियों की अनेक प्रजातियाँ अपना जीवन चक्र जारी रखती हैं। यदि इन मछलियों का जीवन प्रभावित होगा तो स्वाभाविक है खाद्य संकट गहराएगा। क्योंकि समुद्र तटीय इलाकों की बड़ी आबादी इन्हीं मछलियों को भोजन बनाती हैं।

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Post By: RuralWater
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