अब तो मां का दूध भी जहर हो गया है

देश की सोना उगलने वाली कृषि भूमि और पानी तो प्रदूषित हो ही चुका है, मगर अब मां के अमृत रूपी दूध में भी विषैले तत्व पाए गए हैं। महाराष्ट्र के रत्नागिरी के चिपलुन के डीबीजे कॉलेज के जिओलॉजी विभाग के एक अध्ययन के मुताबिक, मां के दूध में रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर तक पाई गई है। विभाग ने कोटावली सहित इलाके के सात गांवों अवाशी, लोटे, गुनाडे, गनुकंड, सोनगांव और पीरलोटे में वर्ष 2003 से 2004 के बीच अध्ययन किया। पशुओं के दूध में सीसे की मात्रा 3.008 पीपीएम पाई गई, जबकि इसकी उचित मात्रा 0.1 है। इसी तरह मां के दूध में भी एल्यूमीनियम की मात्रा 5.802 पीपीएम दर्ज की गई, जबकि इसकी मात्रा 0.3 होनी चाहिए। इसके अलावा दूध में क्रोमियम, निकल और आयरन भी पाया गया। जिले के 575 हेक्टेयर इलाके में 70 औद्योगिक इकाइयां हैं। इन फैक्ट्रियों से निकलने वाले औद्योगिक कचरे को पानी में बहा दिया जाता है। इसके कारण इलाके के जल-स्रोतों का पानी अत्यधिक विषैला हो गया है। हालत यह है कि मछलियाँ भी दम तोड़ने लगी हैं। पानी के अलावा इलाके की भूमि भी जहरीली होती जा रही है। दूध में रसायनों का अधिक मात्रा में पाया जाना बेहद चिंता का विषय है। अगर यही हालत रही तो माताएं अपने बच्चों को दूध पिलाने से भी डरने लगेंगी। स्वास्थ्य की दृष्टि से मां का दूध बच्चे के लिए अमृत समान होता है, जो उसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा करता है, लेकिन प्रदूषण मां के दूध को भी जहर में बदल रहा है।

देश की नदियों की हालत बेहद खराब है। इनमें गंगा, यमुना, दामोदर, सोन, कावेरी, नर्मदा एवं साही आदि शामिल हैं। गंगा जैसी पवित्र नदी भी प्रदूषण की शिकार होकर दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में शामिल हो गई है। इसका 23 फीसदी जल प्रदूषित हो चुका है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, यमुना में 7.15 करोड़ गैलन गंदा पानी रोज छोड़ा जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की मानें तो यमुना का पानी नहाने के काबिल भी नहीं रहा है। हालांकि बोर्ड नदी की सफाई के नाम पर 1800 करोड़ रुपये खर्च कर चुका है। अब वह 15 करोड़ रुपये और खर्च करने की योजना बना रहा है। सुप्रीम कोर्ट भी यमुना में लगातार बढ़ते प्रदूषण को लेकर चिंतित है। वर्ष 1985 में यमुना में प्रदूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की गई थी। इस पर 1989 में अदालत ने सरकार को यमुना को साफ करने का निर्देश दिया था। हालांकि अनेक एजेंसियां और संस्थाएं नदी की सफाई की मुहिम में शामिल हुईं, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहा। कारखानों द्वारा दामोदर नदी में भी 40 लाख गैलन विषैला पानी छोड़ा जाता है। चेन्नई की दो करोड़ गैलन गंदगी नदियों को दूषित करती है। इसी तरह धरती के स्वर्ग कश्मीर की राजधानी श्रीनगर का गंदा पानी झेलम नदी को दूषित कर रहा है।

वर्ष 1940 में जहां एक लीटर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा 2.5 घन सेंटीमीटर थी, वहीं अब यह घटकर महज 0.1 घन सेंटीमीटर रह गई है। कागज, चर्मशोधन, खनिज एवं कीटनाशक आदि के कारखाने नदियों के किनारे हैं। कारखानों से निकलने वाले रासायनिक कचरे और शहरों की गंदगी को नदियों में बहा दिया जाता है। देश में अमूमन हर साल 10 लाख लोगों पर पांच लाख टन मल उत्पन्न होता है, जिसका ज्यादातर हिस्सा समुद्र और नदियों में छोड़ दिया जाता है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में एक लाख से ज्यादा आबादी वाले 142 शहरों में से सिर्फ आठ शहर ही ऐसे हैं, जिनमें मल प्रबंधन की पूरी व्यवस्था है, जबकि 62 शहरों में हालत कुछ ठीक है और 72 शहर तो ऐसे हैं, जहां मल प्रबंधन की कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए छुटकारा पाने के लिए इसे नदी-नालों के हवाले कर दिया जाता है। नदियों का 70 फीसदी जल प्रदूषित है। इस प्रदूषित जल में बैक्टीरिया, पारा, सीसा, जिंक, क्रोमाइट और मैगनीज के तत्व भारी मात्रा में पाए जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, हर साल पांच लाख बच्चे जल प्रदूषण के शिकार होते हैं। भारत में 30 से 40 फीसदी लोगों की मौत प्रदूषित जल के कारण होती है। प्रदूषित जल की वजह से लोग अनेक भयंकर बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। हालांकि जल प्रदूषण से निपटने के लिए सरकार ने 1974 में जल प्रदूषण नियंत्रण और निवारण अधिनियम बनाया था, मगर इसके बावजूद नदियों की हालत बद से बदतर होती जा रही है।

प्रदूषित जल की वजह से पंजाब के फिरोजपुर जिले के तेजा रूहेला, नूरशाह, डोना नांका और खदूका आदि गांवों के बच्चे या तो दृष्टिहीन पैदा हो रहे हैं या जन्म से कुछ वक्त बाद अपनी आंखों की रोशनी खो रहे हैं। कुछ वक्त पहले गांव डोना नांका के करीब एक दर्जन बच्चे अंधेपन का शिकार हुए। इसी तरह गांव नूरशाह और तेजा रूहेला के करीब 50 लोग अंधेपन की चपेट में आए, जिनमें बच्चे भी शामिल हैं। पंजाब के भूजल में यूरेनियम भी पाया गया है। इसकी वजह से दक्षिणी-पश्चिमी पंजाब के बच्चे सेरेबल पाल्सी से पीड़ित हो रहे हैं। जर्मनी की माइक्रो ट्रेस मिनेरल लैब की एक रिपोर्ट के मुताबिक, फरीदकोट में मंदबुद्धि बच्चों की संस्था बाबा फरीद केंद्र के 150 बच्चों के बालों पर शोध किया गया। इन बच्चों के बालों में 82 से 87 फीसदी तक यूरेनियम पाया गया। पंजाब के भटिंडा, संगरूर, मंसा और मोगा आदि इलाकों के पानी में भी यूरेनियम पाया गया है। भटिंडा जिले के पानी में यूरेनियम की सांद्रता 30 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक पाई जा चुकी है, जबकि इसका उचित मानक स्तर 9 माइक्रोग्राम प्रति लीटर है।

प्रदूषित जल के कारण मिट्टी में भी हानिकारक तत्व पाए जा रहे हैं। इसके अलावा कीटनाशको ने भी भूमि को जहरीला बनाने का काम किया है। ऐसे ही एक कीटनाशक एंडोसल्फान को लेकर पिछले काफी वक्त से देश में मुहिम चल रही है। एंडोसल्फान बेहद जहरीला रसायन है। एंडोसल्फान को 1950 से पहले ही विकसित कर लिया गया था, लेकिन इसे 1950 में पेश किया गया। यह हेक्साक्लोरो साइक्लोपेंटाडीन का व्यापारिक नाम है। हालांकि अब तक इसका पेटेंट नहीं किया गया है। इसके बेहद जहरीले होने की वजह से यूरोपीय संघ सहित 81 देशों ने इस पर पाबंदी लगाई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, पूरी दुनिया में 1990 के दशक तक इसका सालाना उत्पादन 12,800 टन को पार कर गया था। भारत इसका सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश है, जहां सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हिंदुस्तान इंसेक्टिसाइट्‌स लिमिटेड, एक्सेल क्रॉप केयर और कोरोमंडल फर्टिलाइजर मिलकर करीब 8,500 टन एंडोसल्फान बना रही हैं। वैसे अपने देश में 2001 से ही इसके इस्तेमाल पर बहस चल रही है।

हाल में जिनेवा में आयोजित स्टॉकहोम कन्वेंशन में एंडोसल्फान पर विश्वव्यापी प्रतिबंध लगाने पर जोर दिया गया। संबंधित पक्षों ने दुनिया भर में कुछ अपवादों को छोड़कर एंडोसल्फान और उसके अपरूपों का उत्पादन और इस्तेमाल खत्म करने का एक प्रस्ताव पारित किया। हालांकि यह फैसला भारत में तभी लागू होगा, जब सरकार इसे मंजूरी दे। भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने इस प्रस्ताव पर सहमति जताई है। समीक्षा समिति कन्वेंशन में शामिल पक्षों और पर्यवेक्षकों के साथ विचार-विमर्श कर एंडोसल्फान के विकल्प सुझाएगी। साथ ही कन्वेंशन विकासशील देशों को एंडोसल्फान का विकल्प अपनाने के लिए वित्तीय मदद भी देगी। प्रस्ताव में कुल 22 फसलों के लिए छूट दी गई है, जिनमें गेहूं, धान, चना, सरसों, मूंगफली, कपास, जूट, कॉफी, चाय, तंबाकू, टमाटर, प्याज, आलू, मिर्च, आम और सेब आदि शामिल हैं। सम्मेलन में 12 कीटनाशकों पर पाबंदी लगाई गई। इसी फेहरिस्त में एंडोसल्फान को भी शामिल करने पर विचार किया जा रहा है।

 

 

कुछ वक्त पहले पर्यावरण मंत्रालय की एक समिति कह चुकी है कि इसके इस्तेमाल से मानव स्वास्थ्य पर किसी भी तरह का गलत असर नहीं पड़ेगा। देश की जनता के साथ इससे बडा मजाक भला क्या हो सकता है। एंडोसल्फान पर पाबंदी को लेकर कई झोल हैं। पहला, सरकार द्वारा कंपनियों को लाभ पहुंचाना और दूसरा, किसानों को इसका विकल्प मुहैया कराना। देश में 70 से ज्यादा फसलों में बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल किया जाता है।

केरल के कासरगोड़ जिले में पिछले कुछ वर्षों के दौरान इसके इस्तेमाल से कई लोगों की मौत हुई है और बड़ी संख्या में लोग बीमारियों की चपेट में आए हैं। जिले के जिन गांवों में एंडोसल्फान का इस्तेमाल किया जा रहा है, वहां के लोग दिमागी बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। राज्य में एंडोसल्फान को प्रतिबंधित कर दिया गया। कर्नाटक में भी एंडोसल्फान पर पाबंदी लगी हुई है और आंध्र प्रदेश में भी इसे प्रतिबंधित किए जाने की प्रक्रिया चल रही है। केरल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेतृत्व वाले वाम लोकतांत्रिक मोर्चा ने एंडोसल्फान पर देशव्यापी पाबंदी लगाने की मांग को लेकर हडताल भी की। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा ने भी एंडोसल्फान पर पाबंदी लगाए जाने की वकालत की है। भारतीय जनता पार्टी ने भी एंडोसल्फान पर पाबंदी लगाने की मांग की है। राज्य में कांग्रेस एंडोसल्फान पर प्रतिबंध लगाए जाने का समर्थन कर रही है, लेकिन उसने एलडीएफ की हड़ताल की आलोचना की। हालांकि राज्य के मुख्यमंत्री वी एस अच्युतानंदन ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर इस मुद्दे पर समर्थन मांगा है। इस मामले में खुद अच्युतानंदन एक दिन का अनशन कर चुके हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने एंडोसल्फान पर पाबंदी लगाने की मांग वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सहित सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की युवा इकाई डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि एंडोसल्फान का मानव विकास पर बुरा असर पड़ता है और कई अध्ययनों में यह बात सामने आ चुकी है। याचिका में केरल के कासरगोड़ जिले का भी जिक्र किया गया है। यहां के बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास रुक गया है। यहां पिछले दो दशकों से काजू की खेती में इसका छिड़काव किया जा रहा है।

केरल के कृषि मंत्री मुल्लाकरा रत्नकरण के मुताबिक, एक कीटनाशक के इस्तेमाल से अनाज खराब हो गया था और उसे खाने से करीब सौ लोगों की मौत हो गई थी, जबकि 800 लोग गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। इसके बाद 1968 में कीटनाशक अधिनियम बनाया गया। केरल विधानसभा में विपक्षी नेता ओमान चांडी और केपीसीसी के अध्यक्ष रमेश चेन्निथला ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात की थी। इसके बाद पीएमओ की ओर से जारी बयान में कहा गया कि केरल में एंडोसल्फान का इस्तेमाल प्रतिबंधित है। हालांकि इस पर देशव्यापी पाबंदी लगाने का फैसला वैज्ञानिक अध्ययन और राष्ट्रीय सहमति के आधार पर लिया जाएगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के डायरेक्टर जनरल की अध्यक्षता में एक समिति लोगों की सेहत पर एंडोसल्फान के दुष्प्रभाव की जांच कर रही है।

कृषि मंत्री शरद पवार यह स्वीकार करते हैं कि एंडोसल्फान सेहत के लिए बेहद खतरनाक है, लेकिन साथ ही वह यह भी कहते हैं कि इस पर देशव्यापी पाबंदी लगाना व्यवहारिक नहीं है। उन्होंने यहां तक कह दिया कि केरल के हालात के लिए वहां के किसान ही जिम्मेदार हैं, जो जानबूझ कर एंडोसल्फान का छिड़काव कर रहे हैं। हालांकि पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने एंडोसल्फान पर पाबंदी लगाने की मांग कर रहे राज्यों को भरोसा दिलाया है कि अगर अध्ययन में इसके हानिकारक होने के सबूत मिलते हैं तो इस पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। हैरानी की बात तो यह है कि सरकार को जहर को जहर साबित करने के लिए भी सबूतों की जरूरत पड़ रही है।

अगर यह कहा जाए कि सरकार जनता की जान को जोखिम में डालकर एंडोसल्फान की निर्माता कंपनियों के हित साधने में लगी है तो गलत नहीं होगा। खास बात यह भी है कि कुछ वक्त पहले पर्यावरण मंत्रालय की एक समिति कह चुकी है कि इसके इस्तेमाल से मानव स्वास्थ्य पर किसी भी तरह का गलत असर नहीं पड़ेगा। देश की जनता के साथ इससे बडा मजाक भला क्या हो सकता है। एंडोसल्फान पर पाबंदी को लेकर कई झोल हैं। पहला, सरकार द्वारा कंपनियों को लाभ पहुंचाना और दूसरा, किसानों को इसका विकल्प मुहैया कराना। देश में 70 से ज्यादा फसलों में बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल किया जाता है। यह अकेला ऐसा कीटनाशक है, जिसका प्रतिरोध फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट अभी तक नहीं कर पाए हैं। इसी वजह से इसकी खूब बिक्री होती है। किसानों की भी यह मजबूरी है कि उनके पास इसका कोई विकल्प मौजूद नहीं है। ऐसे में यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह किसानों को इसका विकल्प मुहैया कराए, क्योंकि उसके बिना इस पर पाबंदी का भी कोई खास फायदा नहीं होगा। प्रतिबंध लगने के बावजूद यह चोरी-छुपे महंगे दामों पर बिकने लगेगा, जिससे सबसे ज्यादा नुकसान किसानों को ही होगा।
 

 

 

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