गांवों में जो तालाब होते थे उनमें सुंदर और मनमोहक कमल खिला करते थे। ग्रामीणों को इस बात पर गर्व होता था कि अन्य गाँवों के तालाबों की तुलना में उनके गांव में तालाब में इतने ज्यादा कमल खिलते हैं। भारतीय कमल को संस्कृति में लक्ष्मीजी का आसन माना गया है। अर्थात् जिस गांव में कमल खिलते हैं, लक्ष्मी वहीं विराजती हैं।
भारत वर्ष में तालाबों की संस्कृति बहुत प्राचीन है। यहां ऐसा कोई गांव ढूंढ़ना मुश्किल है, जहां तालाब न हों। अतीत में राजा, महाराजा और जागीरदार गांव-गांव में तालाब बनवाते थे। कहीं-कहीं गांव वाले खुद मिलकर तालाब खोद लेते थे। तालाब का सिर्फ इतना उपयोग भर नहीं कि वहां से गांव वाले अपने उपयोग के लिए पानी लेते हैं। तालाबों के साथ श्रद्धा और भक्ति की भावना जुड़ी हुई है। पीने के पानी वाले तालाबों में नहाना, बर्तन, कपड़े आदि धोना मना था। घर भी माताएं, बहुएं और बेटियां घड़े लेकर इन तालाबों से पीने का पानी भरने जाती थी। छोटी-सी अंगोछी उनके साथ रहती थी, जिससे पानी छानकर घड़े में भर लिया जाता था। अंगोछी को तालाब में निचोड़ना तक मना था। यदि भूल से या जान-बूझकर कभी कोई अंगोछी तालाब में निचोड़ देता तो उसे पंचायत को दण्ड देना पड़ता था। गांव के बड़े-बूढ़े तालाब की स्वच्छता, पवित्रता का पूरा ध्यान रखते थे। जिसके फलस्वरूप इनका जल प्रदूषण रहित होता था। इसीलिए तालाब का पानी इतना शुद्ध और साफ रहता था, मानो गंगाजल हो। अब तो गंगा जल भी उतना साफ और शुद्ध नहीं रह गया। नहाने, धोने और अन्य निस्तार के लिए दूसरे तालाबों का उपयोग था। पुरुषों के लिए अलग-अलग घाट हुआ करते थे पर अब तालाबों में जलकुंभी की प्रचुरता को देखते हुए दिनेश शुक्ल की ये पंक्तियां याद आती हैं-
जलकुंभी के साथ हंसते हैं शैवाल।
उतराए अंधे कुएं, सूखे बहते ताल॥
देश का कोई भी प्रांत हो, तालाबों की स्थिति कमोबेश सब जगह एक जैसी है। पुराने समय में तालाबों की ओर ध्यान दिया जाता था। उनका समुचित रख-रखाव होता था। नए तालाब खुदवाए जाते थे। तालाब, कुंए और बावड़ी बनवाना पुण्य का कार्य समझा जाता था। भारतीय जनमानस में तालाबों, नदियों और कुँओं के प्रति जो पवित्र भाव है, वह सर्वविदित है। नदियों को माई कहना, तालाबों को पूजना, कुंओं के किनारे दीप जलाना-यह सब भारतीय समाज में आज भी प्रचलित है। हमारे कितने तीज-त्यौहार नदियों से जुड़े हैं। हमारे जीवन के कितने संस्कार कुंओं और तालाबों से जुड़े हैं। कुंओं, तालाबों और नदियों की भारतीय संस्कृति में बड़ी महिमा है। इसके बावजूद हमारे कुएं, तालाब और नदियां प्रदूषित एवं उपेक्षित क्यों हैं?आजादी के इन 58 वर्षों में भी हमने अपनी प्राथमिकताएं तय नही कीं। विकास जरूर हुआ परन्तु बहुत बेतरतीब विकास हुआ। पचास साल पहले जो तालाब और कुएं साफ-सुथरे और उपयोगी थे वे इतने कम समय में नष्ट होने तथा प्रदूषित होने की स्थिति में पहुंच गए। कुंए की संस्कृति तो देश से लगभग समाप्त सी हो ही गई।
शायद ही कहीं कोई ऐसा कुआं बचा हो जिसका पानी मीठा और पीने योग्य रह गया हो। गांव के सब कुंओं का कोई न कोई नाम था। तीज-त्यौहार पर सुहागिनें कुंओं के तट पर चंदन, रोली और अक्षत लगाकर उन्हें पूजती थीं। ये सब बातें अब जाने कहां लुप्त हो गई। गांव में 2-3 हैंड पंप लग गए हैं। कुछ बड़े ग्रामों में जल वितरण प्रणाली भी बनाई गई। परन्तु यह तालाब, कुएं और नदियों का विकल्प नहीं हो सकते हैं। जीवन में पानी को कितना ज्यादा उपयोग है, यह बताने और समझाने की बात नहीं है। तालाबों के अभाव में जानवर कहां धोये जाएं और वे पानी कहां पियें? शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार और पर्वों-मेलों के दिनों में लोग तालाबों और कुंओं पर ही जाते थे। अब कहां जाएं? हैंडपंप और छोटी-छोटी वाटर सप्लाई स्कीम से भला क्या होगा? घर में बच्चा पैदा हुआ तो सोर के कपड़े धोने और मेहमानों को निस्तार के लिए तालाब जाना है। घर में किसी की शादी है तो सबको तालाब का सहारा है। फिर घर में कोई मर गया तो सबको नहावन में तालाब ही जाना है। इस प्रकार हमारे जीवन के सारे संस्कार तालाबों से जुड़े हैं। परन्तु अब तालाब हैं कहां? जो थोड़े से रह गए हैं, वे भी कितने गंदे प्रदूषित पानी से भरे हुए उथले और जर्जर स्थिति में है।
आखिर हम तालाबों के प्रति इतने उदासीन क्यों हो गए? सरकारों ने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया? ये प्रश्न आज के संदर्भ में विचारणीय है। दरअसल में उपभोक्ता संस्कृति हमारी सभ्यता और जीवन मूल्यों को अपने जहरीले दांतों से लगातार डंसती जा रही है। जो थोड़े से तालाब शेष रह गए हैं, उनके संरक्षण और सुधार की ओर सरकार व समाज का कोई ध्यान नहीं है। वे हमारी संस्कृति के अंग नहीं रहे वरन् वे अब व्यापार और उपभोग की चीज हो गए। गांवों में जो तालाब होते थे उनमें सुंदर और मनमोहक कमल खिला करते थे। ग्रामीणों को इस बात पर गर्व होता था कि अन्य गाँवों के तालाबों की तुलना में उनके गांव में तालाब में इतने ज्यादा कमल खिलते हैं।
भारतीय कमल को संस्कृति में लक्ष्मीजी का आसन माना गया है। अर्थात् जिस गांव में कमल खिलते हैं, लक्ष्मी वहीं विराजती हैं। लोक विश्वास है कि जिस गांव में कमल खिलते हैं, वहां गरीब, भुखमरी और रोग-दोष नहीं आते। स्पष्ट है कि तालाब में शुद्ध व स्वच्छ जल होगा तो व्याधियां पास भी नहीं फटकतीं। नागरिकों के इस विश्वास के कारण कभी कमल के पौधों को नष्ट नहीं किया जाता था। इधर विकास हुआ। मूल्य और मान्यताएं बदल गईं। अब उस बड़े तालाब का मछली व्यापार के लिए ठेका हो गया। तालाब की मेड़ पर ठेकेदार के आदमी बड़े-बड़े जाल लिए घूमते नजर आते हैं। अधिक मत्स्य उत्पादन के लिए तालाब में अब तरह-तरह के रासायनिक खाद डाले जाते हैं। जो तालाब कभी गांव भर का था, वह अब ठेकेदार का हो गया। उस तालाब में अब कमल का नामो-निशान नहीं है। लोग याद करते थे प्रदूषित रहित कांच जैसा पारदर्शी पानी, अब हरा और चिपचिपा हो गया है। लोग कहते हैं कि तालाब में नहाने से तरह-तरह के चर्मरोग हो जाते हैं। दिनेश शुक्ल का यह दोहा याद आता है-
लकवाई ये सभ्यता, लाई अंधे मोड़।
विश्वासों के हाथ को, समय रहा है छोड़॥
इस प्रसंग से स्पष्ट है कि तालाब में शुद्ध व स्वच्छ जल होगा तो व्याधियां पास में भी नहीं फटकती थीं। नागरिक सदैव देश के हजारों गांवों में स्थित तालाब व झीलों के प्रति पूर्णत: सदैव सजग रहते थे।
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