भारत में विकास के अनियंत्रित व बेडौल ढांचे ने देश की खाद्य सुरक्षा को ही खतरे में डाल दिया है। अनुमान लगाया जा रहा है कि आगामी 10 वर्षों में भारत प्रतिवर्ष 10 करोड़ टन खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा होगा। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय एक ऐसे कानून के मसौदे पर कार्य कर रहा है जिसमें कृषि भूमि के आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन क्या इससे समस्या का निराकरण हो पाएगा? इस महत्वपूर्ण विषय को लक्ष्य करता महत्वपूर्ण आलेख।
देशभर में भूमि अधिग्रहण को लेकर हो रहे आंदोलनों और खाद्य सुरक्षा की चिंता के चलते ग्रामीण विकास व पंचायती राज (अब पंचायती राज विभाग को इससे अलग कर दिया गया है) मंत्रालय कृषि हेतु भूमि के आरक्षण पर विचार कर रहा है। मंत्रालय ने एक ऐसे अधिनियम निर्माण का सुझाव दिया है जिसके अंतर्गत सभी राज्यों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे अपने राज्य की सबसे उपजाऊ भूमि (या प्रथम श्रेणी की कृषि भूमि) को कृषि क्षेत्र के रूप में आरक्षित कर दें जिससे कि उसे बाद में किसी अन्य कार्य में न लिया जा सके। यह सुरक्षित क्षेत्र वर्तमान में कुल बुआई क्षेत्र के 40 से 50 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा नहीं होगा और इसमें एक से अधिक फसल वाले क्षेत्र को सम्मिलित किया जाना चाहिए। बची हुई कृषि भूमि को भी श्रेणी-1 में शामिल किया जा सकता है जिसका पुनः वर्गीकरण चराई, ग्रामीण आवास और कृषि आधारित गतिविधियों के लिए किया जा सकता है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय में भूमि संसाधन विभाग की सचिव अनीता चौधरी का कहना है ‘इस क्षेत्र की उर्वरता बनाए रखने के लिए इसके आसपास प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।’ अधिनियम संबंधी उपरोक्त जानकारियां उन्होंने हाल ही में दिल्ली में ग्रामीण एवं नगर नियोजन एवं राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति के संबंध में आयोजित एक कार्यशाला में दी।उम्मीद की जा रही है कि प्रस्तावित अधिनियम के माध्यम से यह प्रावधान किया जा सकेगा कि आरक्षित कृषि भूमि क्षेत्र के बाहर की भूमि सिंचाई परियोजना से प्रभावित लोगों के पुनर्वास के लिए सुरक्षित रखी जाए। अधिनियम में यह भी सुझाया गया है कि सभी तरह की भूमि को विभिन्न क्षेत्रवार वर्गीकरण कर दिया जाए। ये नियमन वाले क्षेत्र नगरपालिका क्षेत्र, प्राकृतिक संरक्षण या वन क्षेत्र, जल स्रोत और औद्योगिक क्षेत्र हो सकते हैं। इस अधिनियम में इस प्रावधान की भी संभावना है कि 10 वर्षों में एक बार भूमि उपयोग की समीक्षा की अनुमति होगी।
भूमि संसाधन विभाग के उपसचिव नीरज के. श्रीवास्तव का कहना है कि देश भर में भूमि का बहुत ही बेतरतीब विकास हो रहा है। खाद्यसुरक्षा भी चिंता का एक विषय है। ऐसा अनुमान है कि सन् 2020 में खाद्यान्न की अनुमानित आवश्यकता करीब 30.7 करोड़ टन होगी और उत्पादन इससे करीब 10 करोड़ टन कम होने की उम्मीद है। उनका कहना है ‘हम ऐसे रास्ते खोज रहे हैं जिससे भूमि के विकास और कृषि को योजनाबद्ध कर इसका नियमन किया जा सके।’
भूमि के उपयोग का वर्गीकरण नहीं हो सकता - सक्रिय कार्यकर्ताओं को भय है कि यदि मुख्य मुद्दों को ठीक से नहीं निपटाया गया तो प्रस्तावित कानून नई समस्याएं खड़ी कर सकता है। कोयम्बटूर स्थित पर्यावरण अधिवक्ता सी.आर. बिजोय का कहना है भूमि और कृषि राज्य के विषय हैं। केंद्र इस पर तब तक कोई कानून नहीं बना सकता जब तक कि राज्य उससे ऐसा करने का अनुरोध न करें। वे कहते है ‘ग्रामीण मंत्रालय राज्यों द्वारा अपनाए जाने हेतु एक मानक अधिनियम तैयार कर सकता है। परंतु हमारे पिछले अनुभव बताते हैं कि अंततः क्या होता है। भूजल (नियंत्रण और नियमन) अधिनियम को ही देखिए। सन् 1970 में यह कानून बन गया था और इसे बार-बार सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को भेजा गया। पर आज की तारीख तक केवल आंध्रप्रदेश, गोवा, तमिलनाडु, लक्षद्वीप और केरल ने ही इसे लागू किया है।
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर प्रवीण झा की सोच है कि यह अधिनियम अस्पष्ट है। उनका मानना है कि ‘भूमि उपयोग का यांत्रिक तौर पर वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। व्यक्तियों के या प्राकृतिक हस्तक्षेप के कारण भू-उपयोग में परिवर्तन की संभावना हमेशा ही बनी रहती है।’ समय के साथ भूमि अम्लीय या क्षारीय हो सकती है इसीलिए स्थितियों के हिसाब से भू-उपयोग भी परिवर्तनशील होना चाहिए। वे भूमि और कृषि संबंधी मामलों में निर्णय प्रक्रिया में ग्रामसभाओं और जमीनी स्तर पर कार्य करने वाली इकाइयों को सम्मिलित करने की भी वकालत करते हैं।
झा का मानना है कि ‘हमें जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक एवं पारदर्शी प्रक्रिया की आवश्यकता है।’ बिजोय इस बात से सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘अनुभव बताते हैं कि ग्रामसभा को अधिकार दे दिए जाने के बावजूद कई बार राज्य उनके अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं। ऐसा वन अधिकार अधिनियम (एफ.आर.ए.) के मामलों में साफ नजर आ रहा है क्योंकि इसके अंतर्गत बजाए वन निवासियों को शक्तियां सौंपने के अधिकांश निर्णय सरकार ही ले रही है।’
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