अब बढ़ेंगे पेड़


सन्दर्भ : बहुप्रतीक्षित पौधारोपण निधि विधेयक- 2015 हुआ पारित
कम्पनसेटरी अफॉरेस्टेशन फंड बिल


2040 तक 17 से 35 प्रतिशत सघन वन मिट जाएँगे। इस समय तक इतनी विकराल स्थिति उत्पन्न हो जाएगी कि 20 से 75 की संख्या में दुर्लभ पेड़ों की प्रजातियाँ प्रतिदिन नष्ट होने लग जाएँगी। आगामी 15 सालों में 15 प्रतिशत वृक्षों की प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी। इनकी विलुप्ति का असर फसलों पर तो पड़ेगा ही, पानी का वाष्पीकरण भी तेजी से होगा। हवाएँ गर्म होंगी, जो ग्लोबल वार्मिंग का आधार बनेगी। वृक्षों का सरंक्षण इसलिये जरूरी हैं, क्योंकि वृक्ष जीव-जगत के लिये जीवनदायी तत्वों का सृजन करते हैं।

जलवायु परिवर्तन और वायु-प्रदूषण की चुनौती से निपटने की दिशा में केन्द्र सरकार ने अहम पहल की है। अब पौधारोपण के लिये धन की कमी का सामना करना नहीं पड़ेगा। केन्द्र ने बहुप्रतीक्षित क्षतिपूर्ति पौधारोपण निधि (कैंपा) विधेयक-2015 विधेयक संसद से पारित हो गया है।

अब इसके कानूनी रूप लेते ही कैम्पा फंड में 40,000 करोड़ रुपए धनराशि के पारदर्शी और प्रभावी ढंग से खर्च होने का रास्ता खुल जाएगा। इस विशाल राशि पर हर साल करीब छह हजार करोड़ रुपए ब्याज भी इकट्ठा हो रहा है। यह राशि औद्योगिक विकास के लिये हुए वन विनाश के बदले में पर्यावरण सुधार के लिये केन्द्र सरकार के पास जमा है। इस विधेयक के पारित होने पर परियोजनाओं का समय पर क्रियान्वयन भी सम्भव हो जाएगा।

वन-संरक्षण को लेकर चलाए गए तमाम उपायों के बावजूद भारत में इसका असर दिखाई नहीं देता है। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 25 वर्षों में भारत में वन तेज रफ्तार से कम हुए हैं। ‘वैश्विक वन संशोधन आकलन-2015’ रिपोर्ट के मुताबिक 1990 से 2015 तक दुनिया में जंगल का दायरा 3 फीसदी तक सिमट गया है।

आँकड़ों के हिसाब से जंगल का क्षेत्र 10 अरब एकड़ से घटकर 9.88 अरब एकड़ रह गया है। मसलन 31.9 करोड़ एकड़ भू-भाग से वनों का सफाया हो चुका है। प्राकृतिक वन क्षेत्र 6 प्रतिशत तक सिमट गए हैं। इस कारण जलवायु में जो परिवर्तन हुआ है, उसका सबसे अधिक असर वर्षा अधारित वनों पर पड़ा है। इनमें 10 प्रतिशत की कमी आई है। भारत में वर्षा आधारित वनों की संख्या ही सबसे ज्यादा है।

जब से मानव सभ्यता के विकास का क्रम शुरू हुआ है, तब से लेकर अब तक वृक्षों की संख्या में 46 प्रतिशत की कमी आई है। पेड़ों की गिनती के अब तक के सबसे समग्र वैश्विक अभियान में दुनिया भर के वैज्ञानिक समूहों ने यह निष्कर्ष निकाला है। इस अध्ययन का आकलन है कि विश्व में तीन लाख करोड़ वृक्ष हैं। यानी मोटे तौर पर प्रति व्यक्ति 422 पेड़ हैं। हालांकि यह आँकड़ा पूर्व में आकलित अनुमानों से साढ़े सात गुना ज्यादा बताया जा रहा है।

दरअसल पूर्व के वैश्विक आकलनों ने तय किया था कि दुनिया भर में महज 400 अरब पेड़ लहरा रहे हैं। मसलन प्रति व्यक्ति पेड़ों की संख्या 61 है। यह आकलन व्यक्ति आधारित था, इसलिये इसकी प्रमाणिकता पर सन्देह था।

दरअसल दुनिया में अभी भी ऐसे दुर्गम स्थलों पर जंगलों का विस्तार है, जहाँ सर्वेक्षण में लगे मानव-समूहों का पहुँचना और पहुँचकर सर्वे करना आसान नहीं है। क्योंकि इन जंगलों में एक तो अभी भी रास्ते नहीं हैं, दूसरे, खतरनाक वन्य-जीवों की मौजदूगी है।

पेड़ों की यह गिनती उपग्रह द्वारा ली गई छवियों के माध्यम से की गई है। इस गणना को तकनीक की भाषा में ‘सेटेलाइट इमेजरी’ कहते हैं। इस तकनीक से पूरा सर्वे वन-प्रान्तरों में किया गया है। इसमें जमीनी स्तर पर कोई आँकड़े नहीं जुटाए गए हैं। इस अध्ययन की विस्तृत रिपोर्ट प्रतिष्ठित जनरल ‘नेचर’ में छपी है।

रिपोर्ट के मुताबिक पेड़ों की उच्च सघनता रूस, स्कैंडीनेशिया और उत्तरी अमेरिका के उप आर्कटिक क्षेत्रों में पाई गई है। इन घने वनों में दुनिया के 24 फीसदी पेड़ हैं। पृथ्वी पर विद्यमान 43 प्रतिशत, यानी करीब 1.4 लाख करोड़ पेड़ उष्ण कटिबन्धीय और उपोष्ण वनों में हैं। इन वनों का चिन्ताजनक पहलू यह भी है कि वनों या पेड़ों की घटती दर भी इन्हीं जंगलों में सबसे ज्यादा है। 22 फीसदी पेड़ शीतोष्ण क्षेत्रों में हैं।

इस अध्ययन की प्रमाणिकता इसलिये असंदिग्ध है, क्योंकि इस सामूहिक अध्ययन को बेहद गम्भीरता से किया गया है। इस हेतु 15 देशों के वैज्ञानिक समूह बने। इन समूहों ने उपग्रह चित्रों के माध्यम से वन क्षेत्र का आकलन प्रति वर्ग किलोमीटर में मौजूद पेड़ों की संख्या का मानचित्रीकरण में सुपर कम्प्यूटर तकनीक का इस्तेमाल करके किया है।

इस गिनती में दुनिया के सभी सघन वनों की संख्या 4 लाख से भी अधिक है। दुनिया के ज्यादातर राष्ट्रीय वन क्षेत्रों में हुए अध्ययनों को भी तुलना के लिये जगह दी गई। उपग्रह चित्रों के इस्तेमाल से पेड़ों के आकलन के साथ स्थानीय जलवायु, भौगोलिक स्थिति, पेड़-पौधे, मिट्टी, पानी और हवा की दशाओं पर मानव के प्रभाव को भी आधार बनाया गया। इससे जो निष्कर्ष निकले, उनसे तय हुआ कि मानवीय हलचल और उसके जंगलों में हस्तक्षेप से पेड़ों की संख्या में गिरावट की दर से सीधा सम्बन्ध है।

जिन वन-क्षेत्रों में मनुष्य की आबादी बढ़ी है, उन क्षेत्रों में पेड़ों का घनत्व तेजी से घटा है। वनों की कटाई, भूमि के उपयोग में बदलाव वन प्रबन्धन और मानवीय गतिविधियों के चलते हर साल दुनिया में 15 अरब पेड़ कम हो रहे हैं। जिस तरह से भारत समेत पूरी दुनिया में अनियंत्रित औद्योगीकरण, शहरीकरण और बड़े बाँध एवं चार व छह पंक्तियों के राजमार्गों की संरचनाएँ धरातल पर उतारी जा रही हैं, इस कारण भी जंगल खत्म हो रहे हैं।

ऐसे समय जब दुनिया भर के पर्यावरणविद और वैज्ञानिक जलवायु संकट के दिनोंदिन और गहराते जाने की चेतावनी दे रहे हैं, पर्यावरण सरंक्षण में सबसे ज्यादा मददगार वनों का सिमटना या पेड़ों का घटना वैश्विक होती दुनिया के लिये चिन्ता का अहम विषय है। विकास के नाम पर जंगलों के सफाए में तेजी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवाद के बाद आई है।

भारतीय वन पिछले 15 साल में ब्राजील में 17 हजार, म्यांमार में 8, इंडोनेशिया में 12, मैक्सिको में 7, कोलम्बिया में 6.5, जैरे में 4 और भारत में 4 हजार प्रति वर्ग किलोमीटर के हिसाब से वनों का विनाश हो रहा है। यानी एक साल में 170 लाख हेक्टेयर की गति से वन लुप्त हो रहे हैं। यदि वनों के विनाश की यही रफ्तार रही तो जंगलों का 4 से 8 प्रतिशत क्षेत्र, 2015 तक विलुप्त हो जाएगा।

2040 तक 17 से 35 प्रतिशत सघन वन मिट जाएँगे। इस समय तक इतनी विकराल स्थिति उत्पन्न हो जाएगी कि 20 से 75 की संख्या में दुर्लभ पेड़ों की प्रजातियाँ प्रतिदिन नष्ट होने लग जाएँगी। आगामी 15 सालों में 15 प्रतिशत वृक्षों की प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी। इनकी विलुप्ति का असर फसलों पर तो पड़ेगा ही, पानी का वाष्पीकरण भी तेजी से होगा। हवाएँ गर्म होंगी, जो ग्लोबल वार्मिंग का आधार बनेगी।

वृक्षों का सरंक्षण इसलिये जरूरी हैं, क्योंकि वृक्ष जीव-जगत के लिये जीवनदायी तत्वों का सृजन करते हैं। वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, भू-क्षरण न हों, यह पेड़ों की अधिकता से ही सम्भव है। वर्षा चक्र की नियमित निरन्तरता पेड़ों पर ही निर्भर है। पेड़ मनुष्य जीवन के लिये कितने उपयोगी हैं, इसका वैज्ञानिक आकलन भारतीय अनुसन्धान परिषद ने किया है।

इस आकलन के अनुसार, उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में पर्यावरण के लिहाज से एक हेक्टेयर क्षेत्र के वन से 1.41 लाख रुपए का लाभ होता है। इसके साथ ही 50 साल में एक वृक्ष 15.70 लाख की लागत का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ देता है। पेड़ लगभग 3 लाख रुपए मूल्य की भूमि की नमी बनाए रखता है। 2.5 लाख रुपए मूल्य की ऑक्सीजन, 2 लाख रुपए मूल्य के बराबर प्रोटीनों का सरंक्षण करता है।

वृक्ष की अन्य उपयोगिता में 5 लाख रुपए मूल्य के समतुल्य वायु व जल प्रदूषण नियंत्रण और 2.5 लाख रुपए मूल्य के बराबर की भागीदारी पक्षियों, जीव-जन्तुओं व कीट-पतंगों को आश्रय-स्थल उपलब्ध कराने के रूप में करता है।

वृक्षों की इन्हीं मूल्यवान उपयोगिताओं को ध्यान में रखकर हमारे ऋषि-मुनियों ने इन्हें देव तुल्य माना और इनके महत्त्व को पूजा से जोड़कर संरक्षण के अनूठे व दीर्घकालिक उपाय किये। इसलिये भारतीय जनजीवन का प्रकृति से गहरा आत्मीय सम्बन्ध है। लेकिन आधुनिक विकास और पैसा कमाने की होड़ ने संरक्षण के इन अमूल्य उपायों को लगभग ठुकरा दिया है।

पेड़ों के महत्त्व का तुलनात्मक आकलन अब शीतलता पहुँचाने वाले विद्युत उपकरणों के साथ भी किया जा रहा है। एक स्वस्थ वृक्ष जो ठंडक देता है, वह 10 कमरों में लगे वातानुकूलितों के लगातार 20 घंटे चलने के बराबर होती है। घरों के आसपास पेड़ लगे हों तो वातानुकूलन की जरूरत 30 प्रतिशत घट जाती है। इससे 20 से 30 प्रतिशत तक बिजली की बचत होती है।

एक एकड़ क्षेत्र में लगे वन छह टन कार्बन डाईऑक्साइड रखते हैं, इसके उलट चार टन ऑक्सीजन उत्पन्न करते हैं। जो 18 व्यक्तियों की वार्षिक जरूरत के बराबर होती है। हमारी ज्ञान परम्पराओं में आज भी ज्ञान की यही महिमा अक्षुण्ण है, लेकिन यंत्रों के बढ़ते उपयोग से जुड़ जाने के कारण हम प्रकृति से निरन्तर दूरी बनाते जा रहे हैं। तय है, वैश्विक रिपोर्ट में पेड़ों के नष्ट होते जाने की जो भयावहता सामने आई है, यदि वह जारी रहती है तो पेड़ तो नष्ट होंगे ही, मनुष्य भी नष्ट होने से नहीं बचेगा?

इस लिहाज से यह सुखद खबर है कि केन्द्र सरकार पौधारोपण पर व्यर्थ पड़े 40,000 करोड़ रुपए खर्च करने के उपायों हेतु कैम्पा विधेयक ले आई है।

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