राँची- राँची के स्वर्णरेखा और हरमू नदी के संगम पर स्थित प्राचीन इक्कीसो महादेव आज शहरवासियों के मॉडर्न होने की अन्धी दौड़ की भेंट चढ़ने की कगार पर है। नदियों में बढ़ते प्रदूषण के स्तर के और सरकारी उदासीनता के कारण आज एक प्राचीन धरोहर अपने अस्तित्व बचाने के लिये संघर्ष कर रहा है। चट्टानों में अलग-अलग आकार के शिवलिंग की आकृति नदी के अम्लीय प्रभाव से मिटते जा रहे हैं।
बुजुर्ग और स्थानीय बताते हैं कि करीब 1930 के दशक में आये भीषण बाढ़ ने इक्कीसों महादेव को काफी नुकसान पहुँचाया, आज कई चट्टान अपने जगह से खिसक कर दूर होते चले गए। कई शिवलिंग दोनों नदियों को पाटने वाले एक बाँध की दीवार में गायब हो गए। आज केवल 13 शिवलिंगों को ही देखा जा सकता है। सभी शिवलिंगों को खोजने अथवा इसके पुनरुद्धार की दिशा में न ही आज तक किसी सरकार अथवा किसी अन्य संगठन ने कोई ध्यान दिया।
स्वर्णरेखा नदी में स्वर्णकणों के मिलने के कारण इस क्षेत्र के स्वर्णकारों के लिये यह नदी और इक्कीसों महादेव की खास महत्ता है। ऐसी किंवदन्ती है कि नागवंशी राजाओं पर जब मुगल शासकों ने आक्रमण किया तो नागवंशी रानी ने अपने स्वर्णाभूषणों को इस नदी में प्रवाहित कर दिया, जिसके तेज धार से आभूषण स्वर्ण कणों में बदल गए और आज भी प्रवाहमान है।
आज भी हर कार्तिक पूर्णिमा को सम्पूर्ण क्षेत्र के स्वर्णकार स्वर्णरेखा में डुबकी लगाते हैं और 21 शिवलिंगों का जलाभिषेक करते है। हालांकि स्वर्णकारों के द्वारा समय-समय पर इस मन्दिर की मरम्मत कार्य और चढ़ावा चढ़ाया जाता रहा, लेकिन कोई व्यापक बदलाव और संरक्षण की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका।
16वीं शताब्दी में तत्कालीन नागवंशी राजा लालप्रताप राय के द्वारा संगम के चट्टानों में बनाए गए 21 शिवलिंगों के अवशेष एक सांस्कृतिक उन्नत समाज को दर्शाता है, जहाँ की जनजातीय समाज की शिव भक्ति आज भी उनकी परम्पराओं में देखने को मिलती है।
लेकिन आज ये प्राचीन धरोहर अपनी दुर्दशा के आँसू बहा रहा है, सरकारी दस्तावेजों में शायद ही इस क्षेत्र के सम्बन्ध में कोई आधिकारिक रिकॉर्ड हो, लेकिन परम्पराओं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही जानकारियाँ नागवंशी राज्य की सांस्कृतिक श्रेष्ठता का बयान करती है। यहीं कारण है कि स्वयं चैतन्य महाप्रभु अपने पुरी की यात्रा के दौरान कई दिनों तक इस क्षेत्र में रहे। जिसके प्रमाण आज भी यहाँ के प्राचीन राम मन्दिर में देखने को मिलते हैं।
नागवंशियों की राजधानी रहे इस क्षेत्र की भी अपनी महत्ता है, सात आम के बगीचों, 11 तालाब, 100 कुएँ और दो नदियों के संगम का यह सम्पूर्ण क्षेत्र आज भी मौसम के व्यापक बदलाव से अछूता है। जब पूरे देश में पानी के लिये हाहाकार मचा है, सारे तालाब और कुएँ सूख रहे हैं, तब भी इस प्राचीन राजधानी में पानी की कोई किल्लत नहीं है। लोग इसे भगवान शिव का वरदान मानते हैं, लेकिन यहाँ के बुजुर्ग बताते है कि इस क्षेत्र में धार्मिक मान्यताओं के आधार पर ही पारिस्थितिकीय सन्तुलन की कल्पना की गई थी।
खेती पर आश्रित रहने वाला यह क्षेत्र न केवल धार्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ रहा, बल्कि नैतिक मूल्यों को भी स्वयं में समाहित किये रहा। 81 वर्षीय सेवानिवृत्त स्कूल हेडमास्टर शिवशंकर सिंह बताते है कि 1947 से पूर्व आज तक चुटिया के लोगों ने हथकड़ी नहीं देखी थी, अंग्रेज अफसर भी इस इलाके से अगर किसी अपराधी को लेकर गुजरते थे, तो नागवंशियों की राजधानी में हथकड़ी खोल दी जाती थी, वे भी मानते थे कि इक्कीसों महादेव के इस क्षेत्र में कोई अपराधी भी भाग नहीं सकता। लोग आजादी के पूर्व अपने घरों में ताले नहीं लगाते थे।
ऐतिहासिक सन्दर्भ में अगर देखें तो वर्तमान झारखण्ड राज्य का छोटानागपुर क्षेत्र नागवंशी राजाओं के समय चुटियानागपुर के नाम से जाना जाता था, जिसकी राजधानी तत्कालीन राँची शहर के रेलवे स्टेशन का क्षेत्र रहा था। आज के रेलवे स्टेशन से महज पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित स्वर्णरेखा नदी और हरमू नदी के संगम में ‘दहराटांड’ अर्थात राजा का किला स्थित था।
नागवंशी राजाओं ने अपने महल के करीब 21 चट्टानों में शिवलिंग का निर्माण कराया। राजपरिवार की दिनचर्या इन 21 शिवलिंगों में जलाभिषेक के साथ ही शुरू होती थी। राजा के महल के निकट केवल दो आदिवासी परिवार ही रहते थे, इसीलिये इस इलाके को दुघरवा कहा जाता था। राजा के अलावा केवल इन्हीं दो परिवारों को ही इस इलाके में रहने की अनुमति थी, शेष ग्रामवासी दहराटांड से दूर रहते थे।
चट्टानों में स्थित शिवलिंग की महत्ता के सम्बन्ध में आज भी किंवदन्ती प्रचलित है कि दो चट्टानों के बीच एक संकरा दर्रा था और राजा किसी भी फैसले को इसी कसौटी पर तौलता था। कोई भी चोरी अथवा झूठ बोलने के आरोप में राजा के पास लाया जाता था, निर्दोष व्यक्ति कितना भी मोटा क्यों न हो वह उस संकरे दर्रें से आसानी से निकल जाता था, लेकिन दोषी कितना भी पतला क्यों न हो, वह उस दर्रें को पार नहीं कर पाता था।
जातीयता और ऊँच-नीच की भावना को समाप्त करने के उद्देश्य से राजा ने प्रत्येक कार्तिक पूर्णिमा में इक्कीसों महादेव मठ (अब मन्दिर) में स्वर्णरेखा नदी के तट पर, दरिद्रनारायण भोजन कराने की शुरूआत की थी, जो आज भी उसी रूप में आयोजित की जाती है। समाज के प्रत्येक घर से एक मुट्ठी चावल लेकर आज भी दरिद्रनारायण भोज का आयोजन किया जाता है, जिसमें सभी वर्ग के लोग इक्कीसों महादेव को भोग लगाने के बाद प्रसाद के रूप में अन्न ग्रहण करते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार पांडवों के अज्ञातवास के क्रम में वे इस क्षेत्र से गुजरे थे और वे नाग राजाओं से मिले थे, नाग राजा उस समय गंधर्वों के आक्रमण से काफी परेशान थे, तब नाग राजाओं ने अर्जुन के समक्ष अपनी प्राण रक्षा की गुहार लगाई थी, अर्जुन ने गंधर्वों को परास्त कर नागवंशियों के साम्राज्य की रक्षा की थी।
नाग राजाओं के निवेदन से ही नाग राजकुमारी का विवाह अर्जुन से सम्पन्न हुआ, जिससे बबलुवाहन की उत्पत्ति हुई, जिसकी चर्चा महाभारत के प्रसंगों में मिलती है। ये नागवंशी राजा शिव के उपासक थे और ये जहाँ भी अपने साम्राज्य का प्रसार किया वहाँ वे नदियों के किनारे शिव मठों की स्थापना करते चले गए, आज भी इक्कीसों महादेव के अलावा घघारी महादेव और आम्रेश्वर धाम जैसे कई प्राचीन शिव मठ (अब मन्दिरों के रूप में) देखने को मिलते हैं।
लेकिन बिहार से अलग होकर झारखण्ड बनने के बाद ऐसे प्राचीन धरोहरों के प्रति सरकार भी दिलचस्पी नहीं दिखा रही। राज्य निर्माण के 16 वर्षों के बाद भी आज तक ऐसे धरोहरों को चिह्नित तक नहीं किया जा सका, इसे राज्य कर दुर्भाग्य ही कहे, कि आज तक राज्य का कोई आधिकारिक इतिहास नहीं है और न ही कोई ऐतिहासिक दस्तावेजों का संकलन। अगर सरकार चाहे तो इक्कीसों महादेव जैसे महत्त्वपूर्ण प्राचीन धरोहर को संरक्षित कर धार्मिक पर्यटन का विकास किया जा सकता है।
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Post By: RuralWater