पृथ्वी के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करने में आर्कटिक (उत्तरी ध्रुव) और अंटार्कटिक (दक्षिणी ध्रुव) की बहुत बड़ी भूमिका है। ग्लोबल वार्मिंग के परिणामों पर दोनों क्षेत्र विपरीत प्रभाव डालते रहे हैं। रूसी मौसम केंद्र ने यह दावा किया है,आर्कटिक पर 21वीं सदी के मध्य की गर्मी तक बर्फ नहीं रहेगी।
केंद्र के प्रमुख अलेक्जेंडर फ्रॉलोव ने जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट पर अंतरसरकारी समूह (आईपीसीसी) के आकड़ों का हवाला देते हुए बताया, 'अगले 30-40 सालों में उत्तरी ध्रुव सहित आर्कटिक पर गर्मी के समय बर्फ नहीं रहेगी।'
फ्रॉलोव ने बताया कि वर्ष 2007 में रिकार्ड किए गए स्तर से वर्ष 2010 में बर्फ के घटने की रफ्तार और बढ़ सकती है।
उन्होंने कहा, 'पहले ही बर्फ औसत स्तर से अधिक पिघल चुकी है। इसके पहले बर्फ करीब 1.1 करोड़ वर्ग किलोमीटर थी। फिलहाल सेटेलाइट तस्वीरों के अनुसार यह 1.08 करोड़ वर्ग किलोमीटर रह गई है।'
पिघलता आर्कटिक
लाखों वर्गकिलोमीटर में फैला आर्कटिक ऐसा ही एक श्वेत हिमानी क्षेत्र है जो प्रकाश की किरणों को सोखने की बजाय परावर्तित कर देता है। लेकिन इसकी भूमिका इससे भी बहुत बड़ी है। पूरी दुनिया में उत्सर्जित होने वाली 25 प्रतिशत कार्बन डायआक्साइड को अकेले आर्कटिक क्षेत्र सोख लेता है। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहा जलवायु परिवर्तन अब इसकी इस महती भूमिका को बाधित कर रहा है।
दुनिया के किसी भी दूसरे हिस्से की तुलना में आर्कटिक क्षेत्र सबसे ज्यादा तेज गति से गर्म हो रहा है। वर्ष 1900 से पृथ्वी का औसत तापमान जहां 0.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा, वहीं आर्कटिक के औसत तापमान में 2 से 3 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि हुई। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के चारों आ॓र के क्षेत्र में आर्कटिक महासागर सम्मिलित है जिसकी एक बड़ी विशेषता यह है कि यह साल के ज्यादातर समय बर्फ से जमा रहता है। लेकिन बढ़ते तापमान के चलते इस क्षेत्र का हिमानी क्षेत्र हर 10 वर्षों में 3 प्रतिशत की दर से घट रहा है।
विशेषज्ञों के अनुसार आर्कटिक की सबसे ज्यादा बर्फ गर्मियों के दौरान पिघलती है। हालांकि यह क्षेत्र सफेद होने के कारण सौर ऊर्जा को वापस भेज देता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हजारों वर्ग मील का क्षेत्र बर्फ विहीन हुआ है। इसके चलते खाली और काला क्षेत्र सूर्य प्रकाश को सोख कर और भी तेजी से आसपास की बर्फ को पिघला रहा है।
विशेषज्ञों के अनुसार आर्कटिक की समुद्री सतह में दुनिया के शेष 25 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन और गैस के भंडार हैं। अगर इस बेहद संवेदनशील क्षेत्र तक मानवीय पहुंच आसान हो जाएगी तो इसके संसाधनों पर कब्जा करने की होड़ इस क्षेत्र के पारिस्थितिकीय तंत्र को बुरी तरह अस्त-व्यस्त कर देगी।
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