इस वर्ष का चिकित्सा/ फिजियोलॉजी का नोबेल पुरस्कार कैटालिन कैरीको और ड्यू वीजमैन को दिया गया है। यह उन्हें कोविड-19 के विरुद्ध एक प्रभावी mRNA वैक्सीन विकसित करने के लिए दिया गया है। कैटालिन कैरीको हंगरी की बायोकेमिस्ट हैं। इनका जन्म 1955 में सुजॉलनॉक, हंगरी में हुआ था। यह अनेक विश्वविद्यालयों में रहीं। इस समय यह स्जीगेड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर, पेरेलमैन स्कूल ऑफ मेडिसिन, पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय, अमेरिका में एडजंक्ट प्रोफेसर और Bio NTech RNA Pharmaceuticals में सीनियर वाइस प्रेसिडेंट हैं। ड्यू वीजमैन का जन्म 1959 में लैक्सिंगटन, मैसाचुसेट्स, अमेरिका में हुआ था।
1997 में इन्होंने पेरेलमैन स्कूल ऑफ मेडिसिन, पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय, अमेरिका में रिसर्च ग्रुप की स्थापना की। वह वैक्सीन रिसर्च में रॉबर्ट्स फैमिली प्रोफेसर और पेन इंस्टीट्यूट फॉर आरएनए इनोवेशन में डायरेक्टर हैं। इन दो वैज्ञानिकों ने जो खोजें कि वह कोविड-19 महामारी के दौरान एक प्रभावी वैक्सीन विकसित करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण थीं। इनकी इन खोजों ने हमें यह समझने के लिए एक बिल्कुल नया आधार दिया कि mRNA (messenger RNA) किस प्रकार हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune system) से क्रिया करता है। इस आधार के कारण कोविड -19 की वैक्सीन बहुत तेज गति से बनाने में सफलता प्राप्त हुई। आगे की कहानी इस वैक्सीन के विकास की कहानी है। इस महामारी से पहले वैक्सीन कैसे बनती थीं और वैक्सीन कैसे काम करती हैं? जो रोगाणु हमें रोगी बनाते हैं, उन्हें कमजोर करके, निष्क्रिय करके अथवा मार कर (Attenuated or Killed) - जिससे वह हमारे शरीर को हानि न पहुंचा सकें-एक नीरोग मनुष्य के शरीर में डाला जाता है।
हमारा शरीर उनसे लड़ने के लिए एन्टीबॉडीज बनाता है और अगली बार जब उस रोग का जीवित और ताकतवर रोगाणु शरीर में पहुंचता है तो उससे लड़ने के लिए शरीर में एन्टीबॉडीज पहले से ही मौजूद रहते हैं। वह रोगाणुओं को मार देते हैं और इस प्रकार मनुष्य बीमार पड़ने से बच जाता है। उन कमजोर किए गए अथवा मारे गए रोगाणुओं को शरीर में पहुंचाने और इस कारण शरीर में एन्टीबॉडीज बनने की प्रक्रिया को टीकाकरण (Vaccination) कहते हैं। यह रोगाणु बैक्टीरिया और वायरस आदि अनेक प्रकार के होने संभव हैं। इसके अतिरिक्त किसी भी एंटीजेन या किसी भी प्रोटीन की वैक्सीन इसी विधि से बनाई जाती रही हैं। इस विधि से अन्य प्राणियों के शरीर में एन्टीबॉडीज का विकास करके उन्हें भी मनुष्य को दिया जाता रहा है।
सर्प-विष की एन्टीबॉडीज घोड़ों के शरीर में इसी प्रकार बनाई जाती रही हैं। वैक्सीन बनाने का यह तरीका काफी लंबे समय से उपलब्ध था। पोलियो, मीजल्स और यलो फीवर जैसे अनेक रोगों की वैक्सीन्स इसी विधि से बनाई जाती रही हैं। सन् 1951 में मैक्स थीलर को यलो फीवर की वैक्सीन बनाने के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था। सन् 1885 में लुई पास्टर द्वारा विकसित रेबीज की वैक्सीन का एक बहुत रोचक इतिहास रहा है। धीरे-धीरे मॉलीक्युलर बायोलॉजी के विकास के साथ पूरे रोगाणुओं वायरस की बजाय वायरस के टुकड़ों से वैक्सीन बनाने की जानकारी और क्षमता विकसित हुई। इसमें वायरस के जेनेटिक कोड-डीएनए या आरएनए के कुछ टुकड़ों-जो वायरस की कुछ विशेष प्रोटीन्स को बनाने के लिए उत्तरदायी होते हैं-का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए कोविड वायरस एक आरएनए वायरस होता है। इसकी सतह के कांटे (Spikes) बीमारी पैदा करने में एक विशेष भूमिका निभाते हैं। इन कांटों को बनाने के लिए वायरस के आरएनए के कुछ विशेष अंश उत्तरदायी होते हैं। उन अंशों का उपयोग करके ऐसी एंटीबॉडीज बनाई जाने का ज्ञान प्राप्त हुआ जिससे वायरस की उन प्रोटीन्स का बनना रोका जा सके जो वायरस के कांटे बनाती हैं। कोविड वायरस तो बाद में आया-पहले हेपेटाइटिस बी और ह्यूमन पैपीलोमावायरस की वैक्सीन इसी विधि से बनाने की तकनीक विकसित हुई। इसके अतिरिक्त किसी रोग को पैदा करने वाले वायरस के जैनेटिक मैटेरियल को एक हानिरहित 'कैरियर' वायरस जिसे वाहक या वेक्टर (Vector) कहते हैं - के अंदर पहुंचा कर वैक्सीन बनाने की तकनीक भी विकसित हुई।
इस तरीके से इबोला वायरस की वैक्सीन बनाई जाती है। जब ये वेक्टर वैक्सीन्स हमारे शरीर में पहुंचाई जाती हैं तो ये हमारी कोशिकाओं में वह विशेष प्रोटीन्स बनाती हैं जिन्हें बनाने के लिए वह जेनेटिक कोड उत्तरदायी होता है। वह प्रोटीन्स हमारे शरीर में एंटीजेन के रूप में कार्य करती हैं और वह हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को उत्प्रेरित करके एन्टीबॉडीज बनाती हैं और हम आगे हो सकने वाले रोग से बच जाते हैं। लेकिन भले ही पूरे वायरस से वैक्सीन बनाई जाए, वाहक-आधारित वैक्सीन बनाई जाए अथवा जैनेटिक मैटेरियल के टुकड़ों से वैक्सीन बनाई जाए, उसके लिए कोशिका संवर्धन (Cell Culture) की आवश्यकता होती है। कोशिका संवर्धन का अर्थ है कि वायरस युक्त कोशिकाओं को उचित माध्यम में रख कर बढ़ाया जाता है जिससे हम बड़ी मात्रा में वायरस के एंटीजेन प्राप्त कर सकें। औद्योगिक रूप से बड़े स्तर पर वैक्सीन बनाने के लिए बहुत बड़े स्तर पर कोशिका संवर्धन की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य बहुत बड़े स्तर पर अनेक साधन से होता है और इसलिए इस तरीके से शीघ्र बड़े स्तर पर वैक्सीन का उत्पादन नहीं हो सकता है। इसलिए लंबे समय से एक ऐसी विधि खोजी जा रही थी जिससे वैक्सीन बनाने के लिए यह कोशिका संवर्धन न करना पड़े।
mRNA Vaccine- किसी प्राणी के शरीर में जैनेटिक मैटेरियल डीएनए (DNA Deoxyribonucleic Acid) के रूप में होता है। किसी-किसी वायरस में यह आरएनए (RNA-Ribonucleic Acid) के रूप में भी होता है। यह जैनेटिक मैटेरियल हमारे शरीर की इनफॉरमेशन को एकत्र रखता है और हमारे शरीर की सेक्स सेल्स में स्थित जैनेटिक मैटेरियल उसे अगली पीढ़ी में भेजता है। हमारे शरीर के अनेक गुण इस जेनेटिक मैटेरियल पर ही निर्भर करते हैं। डीएनए के टुकड़े न्यूक्लियोटाइड्स कहलाते हैं। कुछ विशेष न्यूक्लियोटाइड्स मिल कर जीन्स बनाते हैं। यह न्यूक्लियोटाइड्स विभिन्न प्रोटीन्स आदि बनाते हैं जो हमारे शरीर में अनेक कार्य करती हैं। यह जैनेटिक मैटेरियल किसी भी केन्द्रक-युक्त (Eukaryotic) कोशिका के केन्द्रक में स्थित होता है। केन्द्रक-रहित (Prokaryotic) कोशिका - जैसे बैक्टीरिया में यह कोशिका के मध्य भाग में और उसके आसपास एकत्र रहता है।
कोई प्रोटीन बनाने के लिए पहले डीएनए mRNA (messenger RNA संदेशवाहक RNA) बनाता है। वह यह Transcription नाम की विधि से करता है। इसमें जीन से एक प्राइमरी ट्रान्सक्रिप्ट मैसेंजर आरएनए (pre mRNA) बनता है। ऐसा एक एन्जाइम RNA Polymerase की उपस्थिति में होता है। प्री एम आरएनए में से कुछ विशेष विधियों से कुछ चीजें हटा दी जाती हैं। शेष बची चीजें हमारी कोशिकाओं में मैच्योर mRNA बनाती हैं। यह मैच्योर मैसेंजर आरएनए कोशिका के केन्द्रक से बाहर आता है और कोशिका के साइटोप्लाज्म में उपस्थित राइबोसोम्स इनको पढ़कर कुछ विशेष प्रोटीन्स बनाते - हैं। यह प्रोटीन्स बनाने के लिए राइबोसोम्स को एमीनो एसिड्स की आवश्यकता पड़ती है जो उसके पास ट्रांसफर आरएनए (tRNA) द्वारा लाए जाते हैं। यह विशेष प्रोटीन्स कुछ विशेष कार्य करते हैं। यह कार्य शरीर में प्राकृतिक रूप से होता है। हम वैक्सीन्स भी इस (tRNA) के उपयोग से बना सकते हैं। इनसे हम ऐसी प्रोटीन्स बना सकते हैं जो किसी वायरस के शरीर की प्रोटीन्स के समान हों और तब वह एक एंटीजेन के रूप में कार्य करके हमारे शरीर में एंटीबॉडीज बनाएंगी। यही एक वैक्सीन होती है। इस विधि में कोशिका संवर्धन की आवश्यकता नहीं होती है। सन् 1980 में जीवित कोशिका के बाहर-अर्थात्जी जीवित शरीर के बाहर-प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप (tRNA) बनाने के तरीके खोज लिए गए थे। इन तरीकों को पद vitro transcription कहते हैं।
शरीर के अंदर प्राकृतिक रूप से बनने वाले (tRNA) के तरीके को पद vivo transcription कहते हैं। इस तरीके से मॉलीक्युलर बायोलॉजी को आगे बढ़ाने में प्रगति हुई और हमको बड़े पैमाने पर वैक्सीन बनाने का एक रास्ता दिखाई पड़ा। लेकिन अभी इसमें अनेक कठिनाइयां थीं। इसके लिए बहुत जटिल वसीय तंत्र ( Sophisticated Lipid System) की आवश्यकता थी जिसमें (tRNA) को बंद किया जा सके और आगे भेजा जा सके। इसके अतिरिक्त कृत्रिम रूप से बनाए गए (tRNA) के शरीर में पहुंचने पर यह कोशिकाओं में सूजन (Inflammatory response) पैदा करता था। इस कारण इस विधि से वैक्सीन उत्पन्न करने की विधि आगे विकसित नहीं हो पा रही थी। हंगरी की बायोकेमिस्ट कैटालिन कैरीको ने सन् 1990 में - जब वह यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिल्वेनिया में असिस्टेंट प्रोफेसर थीं इन कठिनाइयों को समझा और वह इन्हें दूर करने में जुट गई। उनके सहायक इम्यूनोलॉजिस्ट ड्रयू वीजमैन ने डेंड्राइटिक कोशिकाओं पर काम किया। डेंड्राइटिक कोशिकाएं वह कोशिकाएं होती हैं जो शरीर पर आक्रमण करने वाले रोगाणुओं को पहचान कर शरीर को उनसे लड़ने के लिए उत्प्रेरित करती हैं। यह शरीर द्वारा स्वयं अपने एंटीजेन्स को स्वीकार करने में भी सहायक होती हैं। इनके कारण ही शरीर स्वयं अपने शरीर की प्रोटीन्स से नहीं लड़ता है और उनके विरुद्ध एन्टीबॉडीज नहीं बनाता है। यह कोशिकाएं रोगाणुओं को पकड़ लेती हैं और उनसे ऐसे संदेश प्राप्त करती हैं जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को बनाने में सहायक होते हैं।
कैरीको और वीजमैन ने पाया कि कृत्रिम रूप से बनाए गए (tRNA) (पद vitro transcribed mRNA) को कोशिकाएं एक बाहरी वस्तु की तरह देखती हैं, जिसके कारण वह उनके विरुद्ध एंटीबॉडीज बनाने का आदेश देती हैं और इससे शरीर में सूजन (Inflammatory response) पैदा होती है। उन्होंने सोचा कि आखिर पद vitro mRNA ऐसा क्यों करता है जबकि स्तनधारी प्राणी की कोशिकाओं में प्राकृतिक रूप से बना हुआ (tRNA) ऐसा नहीं करता है। उन्होंने सोचा कि दोनों प्रकार के संदेशवाहक आरएनए में कोई मूलभूत अंतर होना चाहिए। किसी डीएनए की रचना में उसके न्यूक्लियोटाइड्स में चार 'बेस' होते हैं। ये हैं- एडिनाइन, साइटोसिन, गुआनाइन और थायमिन। आरएनए में शेष बेस वही होते हैं, केवल थायमिन के स्थान पर यूरेसिल होता है। कैरीको और वीजमैन ने देखा कि स्तनधारी कोशिकाओं में प्रोटीन बनाने की प्रक्रिया के समय बनने वाले (tRNA) के ये 'बेसेज' रासायनिक रूप से कुछ बदल जाते हैं जबकि कृत्रिम रूप से बनाए गए (tRNA) में यह बदलाव नहीं होता है इसलिए वह आरएनए शरीर में सूजनन पैदा करता है। उन दोनों वैज्ञानिकों ने एम आरएनए के कृत्रिम रूप से विभिन्न प्रकार बनाए जो रासायनिक रूप से परिवर्तित किए गए थे। उन्होंने उनमें वही परिवर्तन किए जो प्राकृतिक रूप से बने हुए (tRNA) में होते हैं। उन्होंने पाया कि ऐसा करने पर कृत्रिम से बना हुआ (tRNA) भी शरीर में सूजन नहीं पैदा करता है। यह एक बहुत बड़ी खोज थी। इससे यह मालूम पड़ा कि हमारा शरीर (tRNA) को किस प्रकार पहचानता है। कैरीको और वीजमैन समझ गए कि उनकी इस खोज का बहुत बड़ा चिकित्सकीय महत्व है।
उनकी यह खोजें सन् 2005 में प्रकाशित हुई थीं। आगे सन् 2008 और 2010 में प्रकाशित अपने अध्ययनों में कैरीको और वीजमैन ने पाया कि इस प्रकार रासायनिक रूप से बदले हुए (tRNA) न केवल शरीर में सूजन पैदा नहीं करते हैं बल्कि ये प्रोटीन के उत्पादन को भी बहुत बढ़ा देते हैं। ऐसा एक एन्जाइम के कम सक्रिय होने के कारण होता है। यह एन्जाइम प्रोटीन के निर्माण को नियंत्रित करता है। कृत्रिम रूप से बनाए गए (tRNA) के यह प्रोटीन्स एक एंटीजेन के रूप में कार्य करके वैक्सीन का निर्माण करते हैं। यदि यह प्रोटीन किसी वायरस के जीन से प्राप्त कृत्रिम (tRNA) से बने हैं तो ये उस वायरस के विरुद्ध वैक्सीन के रूप में कार्य करेंगे। और क्योंकि ये कृत्रिम रूप से बहुत बड़ी मात्रा में पैदा किया जा सकते हैं इसलिए वैक्सीन भी बहुत बड़ी मात्रा में उत्पादित की जा सकती है। इस प्रकार कृत्रिम (tRNA) में रासायनिक बदलाव के जरिए कैरीको और वीजमैन ने (tRNA) के चिकित्सकीय उपयोग और वैक्सीन-निर्माण में आने वाली अड़चनें दूर कर दीं। इसके बाद कृत्रिम (tRNA) तकनीक में वैज्ञानिकों की रुचि बढ़ने लगी। 2010 में अनेक कंपनियां इस तकनीक को विकसित करने में जुट गयीं। जीका वायरस और MERS COV (Middle East Coronavirus Syndrome) की वैक्सीन इसी विधि से बनाई गयीं। MERS COV एक दूसरे वायरस SARS COV-2 (Severe Acute Respiratory Syndrome Coronavirus 2) से बहुत मिलता-जुलता वायरस है। जब कोविड-19 महामारी फैली तो उसके वायरस के न्यूक्लियोटाइड्स के बेस के रासायनिक रूप से बदले हुए (tRNA) से कोविड वायरस की सतह के कांटों की प्रोटीन के विरुद्ध वैक्सीन रिकॉर्ड तेजी से बना ली गई। इनका सुरक्षा प्रतिशत भी बहुत अच्छा था यह 95% था।
कोविड -19 के विरुद्ध अन्य विधियों से भी वैक्सीन बनाई गयीं। अब तक कोविड -19 की 13 अरब से अधिक वैक्सीन विश्व भर में दी जा चुकी हैं। अकेले भारत में ही रिकार्ड समय में दो अरब से ऊपर वैक्सीन बनाई और लगाई गई। यह यहां से विदेशों में निर्यात भी की गयीं। (tRNA) के base modification के जरिए इन नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने इस महामारी से बचने के लिए अत्यंत तेज गति से वैक्सीन बनाने का एक तरीका विकसित किया। इस पर काफी काम कोविड महामारी फैलने से पहले हो चुका था, शेष काम इस महामारी के फैलने के बाद किया गया। इन वैज्ञानिकों के इस काम ने लाखों-करोड़ों लोगों को मृत्यु से बचा लिया और उन्होंने आगे के लिए एक प्रभावी वैक्सीन बनाने का रास्ता भी दिखाया। उनको चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार दिया जाना उनके इस कार्य के महत्व को समझा जाना है।
स्रोत :- विज्ञान संप्रेषण, नवंबर 2023
/articles/2023-medicinephysiology-nobel-prize-story-development-covid-19-vaccine