सफलता की कहानियां और केस स्टडी

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पानी को समर्पित शिवजी का हलमा
Posted on 06 Apr, 2012 04:04 PM 28 फरवरी, 2012 को शिवगंगा द्वारा आयोजित शिवजी का हलमा कार्यक्रम के दौरान हजारों शिव साधक वनवासियों ने झाबुआ स्थित हाथीपावा की पहाड़ी पर श्रम की गंगा बहा कर महज चार घंटे में करीब तीन हजार रनिंग वाटर कंटूर और दो छोटी तलैयों का निर्माण किया। इससे वर्षा के दौरान पानी इन जल संरचनाओं में संग्रहित होकर जमीन में उतरेगा। धरती की प्यास इससे बुझेगी, तो गांव और शहर के सभी लोगों को लाभ मिलेगा।
हाथीपावा पहाड़ी पर श्रमदान करते आदिवासी
चिपको : छोटे गांव का बड़ा संदेश
Posted on 04 Apr, 2012 10:10 AM

पिछले कुछ वर्षों से यह घाटी विस्फोटकों के धमाकों से दहल रही है। ये धमाके पनबिजली परियोजना की एक पूरी श्रृखंला के निर्माण के मकसद से किए जा रहे हैं। इनमें से कई स्थल, जो पहाड़ों पर घावों जैसे नजर आते हैं, हमारी उन परस्पर विरोधी भावनाओं के लिए जवाबदेह थे, जिनका जिक्र शुरूआत में किया गया था। अकेली निति घाटी में 20 से ज्यादा छोटे-बड़े बांध प्रस्तावित हैं, इनमें से खुद तो बायोस्फीयर रिजर्व के अंदर है। इनकी इकॉलॉजिकल और सामाजिक लागत को लेकर सिविल सोसायटी के अनुरोध विरोध का कोई असर नहीं हुआ है।

ऋषिकेश से जोशीमठ तक घुमावदार सड़क पर काफी आवाजाही होती है। उसी सड़क से यात्रा करते हुए हम विरोधाभासी भावनाओं से घिरे हुए थे। एक ओर तो साधारण इन्सानों के समान हम विशाल और अपराजेय पहाड़ों के समक्ष बौना और विनम्र महसूस कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर, हम यह भी देख रहे थे कि इंसान किस तरह का विनाश करने की क्षमता रखता है। लाता गांव पहुंचने तक यह भावनात्मक उथल-पुथल अपने चरम पर पहुंच चुकी थी। लाता उत्तराखंड का एक छोटा सा गांव है, जहां चिपको आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। भारत के इतिहास में यह गांव एक पूरे अध्याय का हकदार है।
जल संकट दूर करने के सफल प्रयास
Posted on 16 Feb, 2012 11:27 AM

कोरसीना बांध के पूरा होने के एक वर्ष बाद ही इससे लगभग 50 कुओं का जल स्तर ऊपर उठ गया। अनेक हैंडपंपों व तालाबों को भी लाभ मिला। कोरसीना के एक मुख्य कुएं से पाइपलाइन अन्य गांवों तक पहुंचती है जिससे पेयजल लाभ अनेक अन्य गांवों तक भी पहुंचता है।यदि यह परियोजना अपनी पूरी क्षमता प्राप्त कर पाई तो इसका लाभ 20 गांवों के लोगों, किसानों को मिल सकता है। इसके अतिरिक्त वन्य जीव-जंतुओं, पक्षियों की जो प्यास बुझेगी वह अलग है।

जहां किसी महानगर के पॉश इलाकों में मात्र एक फ्लैट की कीमत एक करोड़ रुपए तक पहुंच रही है, वहां इससे भी कम धन राशि में पेयजल संकट झेल रहे 40 गांवों के लगभग 50,000 लोगों व 1,50,000 पशुओं का संकट दूर किया जा सकता है, पर इसके लिए जरूरी है स्थानीय गांववासियों की भागेदारी से काम करना। यह अनुकरणीय उदाहरण राजस्थान के जयपुर व अजमेर जिलों में तीन स्वैच्छिक संस्थाओं ने प्रस्तुत किया है। कोरसीना पंचायत व आसपास के कुछ गांवों में पेयजल का संकट इतना बढ़ गया था कि कुछ वर्षों में इन गांवों के अस्तित्व पर ही संकट उत्पन्न होने वाला था। दरअसल, राजस्थान के जयपुर जिले (दुधू ब्लॉक) में स्थित यह गांव सांभर झील के पास स्थित होने के कारण खारे पानी के असर से बहुत प्रभावित हो रहे थे। इसका प्रतिकूल असर आसपास के गांवों में खारे पानी की बढ़ती समस्या के रूप में सामने आता रहा है।
थोड़ा है, काफी कुछ करने की जरूरत है
Posted on 30 Jan, 2012 02:16 PM

कोंकण के डहाणू में प्राथमिक स्कूल के एक शिक्षक ने होली के त्योहार को स्वच्छता से जोड़ते हुए पूरे स्कूल के बच्चों को गांव में होली के त्योहार के एक दिन पहले साफ सफाई करने को प्रोत्साहित किया। पूरे गांव में बच्चों ने झाड़ू लगाकर नालियां साफ कर होली की तैयारी की। बच्चों को साफ-सफाई करते देख गांव के युवक भी इस अभियान में शामिल हो गए। सफाई के लिए जाने जाने वाले संत गाडगे बाबा का नाम लेकर 'देवकी नंदन गोपाला' का नारा लगाते हुए पूरे गांव की सफाई की गई। अब वहां होली के पहले सफाई का काम एक त्योहार बन गया है।

अकोला जिले के संगलूड़ गांव में रीना और अमोल इंगले नाम के भाई-बहन ने पिछले तीन महीनों से स्कूल जाना छोड़ दिया। इसके पहले भी शिक्षकों ने इंगले के घर जा कर बच्चों को स्कूल भेजने की उनके पिता बंडू इंगले से गुजारिश की थी, लेकिन आश्वासन देने के बाद भी बंडू ने बच्चों को स्कूल नहीं भेजा। बंडू के इस रवैए से परेशान शिक्षकों ने एक जुगत लगाई। एक दिन रीना की पूरी कक्षा को लेकर शिक्षक उसके घर पहुंचे और रीना को साथ बिठाकर पढ़ाना शुरू कर दिया।
प्रकृति को सहेजने की कोशिश
Posted on 13 Jan, 2012 05:11 PM

75 साल के सत्यदेव सगवान ने सेना की नौकरी करते समय प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ भावनात्मक नाता जोड़ा। अपने परिश्रम से उन्होंने हरियाणा और राजस्थान के कई इलाकों को हरा-भरा किया है। अपने घर पर ही 2500 पौधों की नर्सरी तैयार की है। इनमें वट, पीपल, खेजड़ी, नीम, जामुन व कदम के पौधे हैं। सत्यदेव जी यह कहकर कि पेड़ भूमि क्षरण रोकने व वर्षा की स्थिति बेहतर करने साथ ही भूमंडल से ब्रह्मांडीय संपर्क भी सकारात्मक एवं सहज करते हैं, लोगों को पौधे रोपने के लिए प्रेरित करते हैं।

इंसान के क्षुद्र स्वार्थ ने पर्यावरण का गंभीर संकट पैदा कर दिया है। इस कारण कब बाढ़ आ जाए, और कब सूखे की मार पड़ जाए या कहां भूकम्प आ जाए, कहा नहीं जा सकता। इसका एकमात्र जिम्मेदार प्राणी मानव है और इसके निदान के लिए जलवायु सम्मेलनों से ही बात नहीं बनेगी। देश-दुनिया का पर्यावरण बचाने के लिए सभी को दिल से कोशिश करनी होगी जैसे गढ़वाल क्षेत्र की की डॉ. हर्षंवती बिष्ट, नैनीताल के वनखंडी महाराज, राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के स्कूल शिक्षक दिनेश व्यास और हरियाणा के 75 वर्षीय सत्यदेव सगवान कर रहे हैं।
पक्षियों के संरक्षण का जीवंत उदाहरण: ग्राम सरेली
Posted on 24 Nov, 2011 10:48 AM

एक मनुष्य के पूरे शरीर की तरह यदि शरीर का एक अंग नष्ट हो जाये तो उससे सारा शरीर बिना प्रभावित हुये नहीं रह सकता। इसी प्रकार इस प्रकृति के सारे तत्व एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और यदि कोई एक तत्व प्रभावित होता है तो इससे पूरा पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है। अतः आकाश की सुन्दरता को पक्षीविहीन होने से जिस प्रकार यह ग्रामीण सतत् प्रयासरत् हैं, यह अपने आप एक सराहनीय प्रयास है और इससे हमें सबक लेना चाहिये।

उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में ब्रिटिश हुकूमत के एक अफसर को लहूलुहान कर देने से यह गाँव चर्चा में आया मसला था। एक खूबसूरत पक्षी प्रजाति को बचाने का, जो सदियों से इस गाँव में रहता आया। बताते हैं कि ग्रामीण ये लड़ाई भी जीते थे, कोर्ट मौके पर आयी और ग्रामीणों के पक्षियों पर हक जताने का सबूत मांगा, तो इन परिन्दों ने भी अपने ताल्लुक साबित करने में देर नहीं की, इस गाँव के बुजुर्गों की जुबानी कि उनके पुरखों की एक ही आवाज पर सैकड़ों चिड़ियां उड़ कर उनके बुजुर्गों के आस-पास आ गयी, मुकदमा खारिज कर दिया गया। गाँव वालों के घरों के आस-पास लगे वृक्षों पर ये पक्षी रहते हैं और ये ग्रामीण उन्हें अपने परिवार का हिस्सा मानते हैं,

वृक्षारोपण से जीवित हुए जलस्रोत
Posted on 02 Oct, 2011 12:32 PM

पेशे से अध्यापक सच्चिदानंद भारती ने पौड़ी जिले की थलीसेंण और बीरोंखाल विकासखंडों के एक-दो नहीं बल्कि 133 गांवों में पानी के संरक्षण और संवर्द्धन की मुहिम को अंजाम तक पहुंचाया है।

करोड़ों रुपए की सरकारी योजनाएं जो काम नहीं कर पातीं वह काम चिपको आंदोलन के सिपाही सच्चिदानंद भारती ने जनसहभागिता के आधार पर कर दिखाया। जंगल बचाने की मुहिम में तो वे चिपको आंदोलन से शुरुआती दिनों से ही जुटे हुए थे लेकिन जब उन्होंने जंगल बचाने की मुहिम के साथ जल को भी जोड़ दिया तो पौड़ी जिले के कई सीमांत गांवों के सूखे जलस्रोतों में फिर से जलधाराएं फूट पड़ीं। पेशे से अध्यापक सच्चिदानंद भारती ने पौड़ी जिले की थलीसेंण और बीरोंखाल विकासखंडों के एक-दो नहीं बल्कि 133 गांवों में पानी के संरक्षण और संवर्द्धन की मुहिम को अंजाम तक पहुंचाया है।
जामड़ : हर बंदू को सहेजने का प्रयास
Posted on 29 Aug, 2011 12:44 PM

सन् 1952 में स्वीकृत प्रथम पंचवर्षीय योजना की रणनीति में यह बात मुख्य रूप से थी कि टिकाऊ एवं स्थाई लाभ तभी सुनिश्चित किये जा सकते हैं जब समुदाय की भरपूर भागीदारी हो। पानी की समस्या समाज के हर वर्ग को प्रभावित करती है। इस तथ्य के प्रकाश में समाज के सभी वर्गों का अपेक्षित सहयोग इस अभियान में लेना होगा।

मध्यप्रदेश में जल संरक्षण और संवर्धन कार्यक्रम जन आंदोलन बने इस विचार को केन्द्र में रखकर पिछले वर्ष 10 अप्रैल 2010 को प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने रतलाम जिले में जामड़ नदी के पुनरूत्थान के कार्य से प्रादेशिक जलाभिषेक अभियान की शुरुआत की थी।

राह दिखाता रैतोली
Posted on 30 Jun, 2011 03:13 PM

यहां ग्रामीण विकास की यह बुनियाद लगभग 20 वर्ष पूर्व तत्कालीन ग्राम प्रधान स्वर्गीय माधो सिंह फर्स्वाण ने रखी थी। तब न गांव में रोजगार के साधन थे और ना ही बुनियादी सुविधाएं। लोग रोजगार के लिए पलायन कर रहे थे या फिर आस-पास के क्षेत्रों में मजदूरी। ग्रामीणों की इस पीड़ा एवं गांवों से हो रहे पलायन को देखते हुए उन्होंने गांव में ही दुग्ध व्यवसाय को बढ़ावा देने पर जोर दिया।

एक गांव जहां हर घर शिक्षित है। ग्रामीणों ने अपनी मेहनत से पैदल पथ का निर्माण किया। दुग्ध समिति बनाकर स्वरोजगार की राह खोली। किसी सरकारी मदद का इंतजार करने के बजाय यहां के लोगों ने खुद को सक्षम बनाया। यह है चमोली जनपद में बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित रैतोली गांव। आपसी सहयोग एवं श्रमदान से यहां के ग्रामीणों ने रैतोली की तस्वीर को सवारा है।

कोस्का की राह पर
Posted on 09 Jun, 2011 11:39 AM

कोस्का के लोगों ने सरकारी तरीके से कानून लागू करने की प्रक्रिया को ठेंगा दिखा दिया। इस पर स्थानीय वन विभाग और प्रशासन इन्हें 75 वर्षों के निवास प्रमाण की अनिवार्यता के मकड़जाल में फंसाकर इनके अधिकारों की राह में रोड़े अटकाने लगा। कोस्का में वनाधिकार कानून लागू करने के लिए सरकार को ही यहां के ग्रामीणों से प्रशिक्षण लेना चाहिए।

देश भर के वन क्षेत्रों में स्वशासन और वर्चस्व के सवाल पर वनवासियों और वन विभाग के बीच छिड़ी जंग के बीच उड़ीसा के जंगल में एक ऐसा गांव भी है, जिसने अपने हजारों हेक्टेयर जंगल को आबाद कर न सिर्फ पर्यावरण और आजीविका को नई जिंदगी दी है बल्कि वन विभाग और तकनीकी वन वैज्ञानिकों को चुनौती देकर एक नजीर भी पेश की है।

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