पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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स्वच्छ भारतः समृद्ध भारत
Posted on 15 Feb, 2016 03:55 PM
‘‘मैं गंदगी को दूर करके भारत माता की सेवा करूँगा। मैं शपथ लेता हूँ कि मैं स्वयं स्वच्छता के प्रति सजग रहूँगा और उसके लिये समय दूँगा। हर वर्ष सौ घंटे यानी हर सप्ताह दो घंटे श्रमदान करके स्वच्छता के इस संकल्प को चरितार्थ करूँगा। मैं न गंदगी करूँगा, न किसी और को करने दूँगा। सबसे पहले मैं स्वयं से, मेरे परिवार से, मेरे मोहल्ले से, मेरे गाँव से और मेरे
बुन्देलखण्ड का कश्मीर है चरखारी
Posted on 14 Feb, 2016 04:12 PM

पंत जी ने चरखारी को कश्मीर यूँ ही नहीं कह दिया था। राजमहल के चारों तरफ नीलकमल और पक्षियों

जल और जीवन
Posted on 04 Feb, 2016 09:47 AM
पानी बहुत कीमती वस्तु, ये हम सब ने जाना,
जग में इसके बिना गुजारा, मुश्किल है हो पाना।

बनी सभ्यता नदियों के तट, क्योंकि वहाँ था पानी,
भूजल का जब ज्ञान नहीं था, नहीं था मानव ज्ञानी।

नदियों के पानी द्वारा ही, खेलता, खाता, पीता,
बिना प्रदूषित किए नीर को, जीवन अपना जीता।

जितनी हुई जरूरत नीर की, उतना ही ले आना,
स्वच्छ जल स्वस्थ जीवन
Posted on 02 Feb, 2016 03:39 PM
अति लोभी-भोगी मानव ने किया प्रकृति का निर्मम प्रहार।
अनगिनत वृक्षों को काट उसने सुखा दी निर्मल जलधार।।

कैसे बुझेगी मनुज की प्यास कैसे बंधेगी जीवन की आस।
जंगलों को उजाड़ कर मनुज कर रहा स्वयं अपना विनाश।।

उद्योगों के दूषित द्रव से हो गई गंगा - यमुना भी मैली।
रोगनाशिनी पुण्य प्रदायिनी स्वच्छ धार बन गई आज विषैली।।
महोबा का विजयपर्व है कजली महोत्सव
Posted on 02 Feb, 2016 01:48 PM

महोबा का कजली महोत्सव केवल एक परंपरागत धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठान ही नहीं है बल्कि इसके

जल पर दोहे
Posted on 01 Feb, 2016 02:59 PM
बिना जल के होय नहीं, कोई-सा भी काम।
इसे साफ रखने हेतु, उपाय करें तमाम।।

अगर मिले नहीं जल तो, जीवन है बेकार।
इसको बचाने के लिये, रहें आप तैयार ।।

बना हुआ है जल यहाँ, जीवन का आधार।
न हो जल के लिये रमेश, आपस में तकरार।।

कीजिए जल का ‘रमेश’, उतना ही उपयोग।
लगता जितना आपको, बिठा ऐसा संयोग।।

सच कहते हैं जल बना, जीवन की पहचान।
खइके पान महोबा वाला
Posted on 30 Jan, 2016 04:26 PM
पान की खेतीफोटो साभार ‘डाउन-टू-अर्थ’
सूखे के कारण पलायन कर रहे हैं बुन्देलखण्डी
Posted on 21 Jan, 2016 02:57 PM

‘‘मैं हर जगह गया
पंजाब गया, बंगाल गया, गया कर्नाटक
राजस्थन के मरुस्थल से,
शिमला की बर्फ से, कश्मीर के चिनारों तक
रहा मेरा एक ही अनुरोध
यूँ शिकारी कुत्तों सा ना न सूँघो
उसी मिट्टी से बनी है मेरी देह
लगी है जो तुम्हारे तलुओं में।’’


ਅੱਜ ਵੀ ਖਰੇ ਹਨ ਤਾਲਾਬ
Posted on 21 Jan, 2016 10:41 AM

ਮਾੜਾ ਸਮਾਂ ਆ ਗਿਆ ਸੀ।

ਭੋਪਾ ਹੁੰਦੇ ਤਾਂ ਜ਼ਰੂਰ ਦੱਸਦੇ ਕਿ ਤਾਲਾਬਾਂ ਲਈ ਮਾੜਾ ਸਮਾਂ ਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਜਿਹੜੀਆਂ ਸਹਿਜ, ਸਰਲ, ਰਸਭਰੀਆਂ ਪ੍ਰੰਪਰਾਵਾਂ, ਮਾਨਤਾਵਾਂ ਤਾਲਾਬ ਬਣਾਉਂਦੀਆਂ ਸਨ, ਉਹ ਸਭ ਸੁੱਕਣ ਲੱਗ ਪਈਆਂ ਸਨ।

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