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दिल्ली में अब पानी के निजीकरण की तैयारी
Posted on 21 Mar, 2011 04:36 PM

हंगामे की शुरुआत, कांग्रेस में ही झलके मतभेद

दो घूंट पानी
Posted on 19 Mar, 2011 10:15 AM ‘पानी पिलाया?’ दो शब्दों का यह छोटा सा सवाल अपने भीतर ग्रंथों के बराबर का जवाब समेटे हुए है। एक ‘हां’ सुनते ही प्यासे कंठ के तृप्त होने के बात चेहरे पर उभरे संतुष्टि के भाव याद हो आते हैं और जब इसका प्रयोग मुहावरे के रूप में हो तो जवाब सुन दूसरे पक्ष की हार सुकून देती है। पानी है ही ऐसी चीज निर्जीव में प्राणों का संचार कर देने वाला पानी असल आब है। आजकल तो नहीं दिखता लेकिन कुछ बरस पहले तक पानी पिला
पानी को न जाना कुछ भी
Posted on 19 Mar, 2011 10:08 AM मीरा बाई ने बरसों पहले एक भजन में कुछ सवाल पूछे थे। उनका पहला प्रश्न था- जल से पतला कौन है? सभी जानते हैं कि जल से पतला ज्ञान बताया गया था। बात इतनी सी है कि जल की इस तरलता को समझने में हमने बरसों लगा दिए, फिर भी अज्ञानी ही रहे।
जितना बचाएंगे उतना ही पाएंगे
Posted on 18 Mar, 2011 09:40 AM

बर्बादी का एक बड़ा कारण यह है कि पानी बहुत सस्ता और आसानी से सुलभ है। कई देशों में सरकारी सब्सि

जल और जमीन के लिए लड़ाई
Posted on 17 Mar, 2011 09:11 AM

पानी को लेकर देशों के बीच लड़ाई तो सुर्खियां बनेंगी, लेकिन शहरों और खेतों के बीच पानी की लड़ाई चुपचाप चल रही है। पानी का अर्थशास्त्र किसानों के पक्ष में नहीं है।

 

पानी और अनाज के संकट का चोली-दामन का साथ है। आज जहां पानी का संकट है, कल वहां अनाज का संकट भी होगा। जब भारत और चीन जैसे बड़े देशों में पानी का संकट और बढ़ेगा और उन्हें दूसरे देशों से अनाज मंगवाना पड़ेगा, तब वे क्या करेंगे?

वह दिन दूर नहीं, जब खेती के लिए जमीन और पानी को लेकर समाज में एक नई लड़ाई छिड़ेगी। विश्व में प्रति व्यक्ति जल की मात्रा तेजी से घट रही है। उस पर जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। दोनों ही बातें आने वाले दिनों में दुनिया में विस्फोटक हालात का निर्माण कर देंगी। एक समय दस-दस कमरों की आलीशान कोठियां तो लोगों के पास होंगी, लेकिन पीने के लिए पानी नहीं मिलेगा। जेब में पैसा तो इफरात होगा, लेकिन खरीदने के लिए मंडियों में अनाज नहीं होगा।

विश्व में 1975 से 2000 के बीच कुल सिंचित क्षेत्र में तीन गुना बढ़ोतरी हुई थी। लेकिन उसके बाद विस्तार की गति मंद हो गई। संभव है जल्द ही सिंचित क्षेत्र घटना शुरू हो जाए। कई देशों में जलस्तर मानक से काफी नीचे जा चुका है।

लोक में अवर्षा के कारण
Posted on 16 Mar, 2011 11:37 AM

हमारे देश में चल रहे वानकीकरण जैसे आयोजनों के माध्यम से इस तथ्य से ग्रामीण जनों को अवगत कराया जा रहा है कि अच्छी वर्षा अच्छे वनों पर निर्भर करती है।

‘रामचरितमानस’ में गोस्वामी तुलसीदास ने कलियुग-वर्णन के अंतर्गत कलियुग में बार-बार अकाल पड़ने की चर्चा की है। ‘कलि बारहिं बार अकाल परै। बिनु अन्न प्रजा बहु लोग मरे।’ अकाल की स्थिति में अन्न का उत्पादन संभव नहीं है। पानी है तो अन्न है। ‘गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, “अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न संभवः” अन्न से प्राणियों का पालन होता है, और अन्न बादलों से संभव होता है। जब बादलों से जल नहीं बरसता है- तब अकाल की स्थिति बनती है। अकाल का शाब्दिक अर्थ होता है- समय का निषेध। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में समय की धारणा बादलों से ही निर्मित होती है। फसल जब अच्छी होती है, तब काल सुकाल बन जाता है, और फसल तो तभी अच्छी आयेगी, जब बादल खूब बरसेंगे।
कर्ज से हारती किसान की जिंदगी
Posted on 15 Mar, 2011 03:51 PM किसान से कब बंधुआ मजदूर बन गया, यह नंदकिशोर को पता ही नहीं चला। महंगे कीटनाशक, महंगे बीज और रासायनिक खाद ने उसे कर्जदार बना दिया। अपने एक भाई, दो बेटियों और बुजुर्ग मां सहित छह सदस्‍यों का भरण-पोषण चार एकड़ खेती से संभव नहीं रहा और इधर साहूकार का 50 हजार का कर्ज सिर पर था। खेती की जिम्‍मेदारी भाई को सौंपकर खुद बंधुआ मजदूर बनकर साहूकार के ट्रेक्‍टर की ड्राईवरी करने लगा। कुछ सालों तक बंधुआ मजदूर बने रहकर उसे लगा कि इससे तो कभी कर्ज उतरेगा नहीं। लिहाजा उसने बटाई पर खेती करने का उपाय सोचा। नंदकिशोर ने उसी साहूकार की 20 बीघा जमीन 25 हजार रुपए में बटाई पर ली, जिसके यहां वह बंधुआ था। ये 25 हजार रुपए भी उसके सिर पर कर्ज के तौर पर बढ़ गए, जिसकी जमानत के रूप में उसने पत्‍नी के चांदी के जेवर गिरवी रखे। इस तरह बंधुआ मजदूरी और खेती साथ-साथ चलने लगी।
आत्महत्या करने वाले नंदकिशोर का परिवार
विकास’ और हमारा पिछड़ापन
Posted on 15 Mar, 2011 01:47 PM

जैसलमेर जैसे रेगिस्तानी हिस्से में औसत वर्षा 16 सेन्टीमीटर है, लेकिन यहां के समाज ने प्रकृति से मिलने वाले इतने कम पानी को शिकायत की तरह नहीं लिया बल्कि सांई ने जितना दिया है उतने में अपना कुटुंब समाकर दिखाया है।

हमारे जीवन में, राजनीति में और समाज के कामों में भी एक नया शब्द इस दौर में आया है। हमने उसे बिना ज्यादा सोचे-समझे बहुत बड़ी जगह देने की एक गलती की है। हम सब साथियों को यह जानकर अचरज होगा कि यह शब्द और कोई नहीं बल्कि ‘विकास’ शब्द ही है।

आज के इस दौर से सौ साल पहले का साहित्य या पचास साल पहले का साहित्य विकास जैसे शब्दों का उपयोग नहीं करता था। कुछ राजनैतिक कारणों से हमने अपनी किसी लड़ाई में इस शब्द का किसी ढाल की तरह इस्तेमाल करना चाहा था और अब हम सब पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनैतिक कार्यकर्ता, साहित्यकार, कवि आदि भी अपना काम बिना विकास या प्रगति जैसे शब्दों के चला नहीं पा रहे हैं।

इसकी गहराई में जाना चाहिये, ऐसा अनुरोध मैं पूरी विनम्रता के साथ करना चाहता हूं।
development
मुश्किल है पर्यावरण प्रभाव का आकलन
Posted on 15 Mar, 2011 10:34 AM

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय हर महीने 80 से 100 परियोजनाओं को अनुमति देता है।

 

मौत के मुआवजे पर मजा करना चाहता है मध्य प्रदेश
Posted on 14 Mar, 2011 03:50 PM

मध्य प्रदेश के किसान पुत्र शिवराज सिंह चौहान की सरकार के गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता द्वारा मध्य प्रदेश विधानसभा में ऐसा आंकड़ा प्रस्तुत किया है जिससे पता चलता है कि मध्य प्रदेश सरकार किसानों के मौत के नाम पर मुआवजा लेकर मौज करना चाहता है।

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