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पानी पर पटकथा
Posted on 07 Dec, 2012 11:26 AM न तो पानी से साहित्य बच सकता है और न साहित्य से पानी। फिर भी साहित्य में पानी होना चाहिए और पानी में साहित्य। यदि साहित्य से पानी बचता तो इतना विपुल साहित्य रचे जाने के बावजूद आज हमें ऐसा जल संकट क्यों झेलना पड़ता। सच है कि पानी के बिना जीवन नहीं चल सकता तो जीवन के बिना पानी भी नहीं चल सकता।
जल को ही विधाता की आद्यासृष्टि माना गया है। जब सृष्टि में और कुछ नहीं रहता तब भी जल ही रहता है और सृष्टि में सब कुछ रहता है तो भी जल के ही कारण रहता है। इस पृथ्वी के नीचे भी जल ही है और जिस पृथ्वी के ऊपर यह जीवन है, उसके ऊपर के जलद पर्जन्य से ही जीवन अस्तित्व में है। पानी के दो पाटों के बीच ही जीवन का उद्भव और विकास होता है। अतः जीवन के लिए जल ही मौलिक तत्व है। किंतु इस जल को कथमपि बनाया नहीं जा सकता, इसे सिर्फ बचाया जा सकता है। हवा में मुक्का मारने पर लिखा जा चुका है, आसमां में सुराख करने पर लिखा जा चुका है, हथेली पर बाल उगाने पर लिखा जा चुका है, समय की शिला पर लिखने के प्रयास किए जा चुके हैं, बिना लिखे ही कोरे कागज को प्रिय के पास प्रेषित करने की भी परंपरा रही है, लेकिन हाहंत! आज मुझे पानी पर लिखना पड़ रहा है। उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए लिखने को तो पानी पर भी लिखा जा सकता है, लेकिन यदि पानी ही कागज, बोर्ड या कैनवास हो तो आप अलबेले से अलबेले लेखक की विवशता को समझ सकते हैं। फिर चाहे गुरुमुखी का ज्ञाता हो या ब्राह्मी का, खरोष्ठी में पारंगत हो या देवनागरी में, रोमन में धाराप्रवाह लिखता हो या फारसी में, आशुलिपिवाला हो या टंकणवाला, कंप्यूटरवाला हो या इंटरनेटवाला अथवा पुरानी मान्यताओं के सुरतरुवरशाखा लेखनी और सात समुद्रों की मसि बनाने वाले लेखक ही क्यों न रहे हों, इस पानी पर कोई भी लिपि टिक नहीं सकती।
जल, जंगल, जमीन को बचाने की जद्दोजहद
Posted on 06 Dec, 2012 04:30 PM एक तरफ जल, जंगल और जमीन का बड़े पैमाने पर दोहन जारी है तो दूसरी तरफ इन्हें बचाने का संघर्ष भी तेज हुआ है। देश भर में इस संदर्भ में जगह-जगह आंदोलन हुए और हो रहे हैं। जल, जंगल, जमीन को लेकर चल रहे इन आंदोलनों का एक जायजा।
पानी नहीं रहा तो कुछ नहीं रहेगा
Posted on 06 Dec, 2012 03:58 PM अगले कुछ सालों में दुनिया के कुछ हिस्सों में पानी को लेकर बहुत गहरा संकट उठने वाला है। कई नदियां इतनी प्रदूषित हो चुकी हैं कि उनका जल पिया नहीं जा सकता। ले-देकर बारिश का रास्ता बचता है। ऐसे में अगर हमें खुद को बचाना है तो बारिश के पानी को बचाना होगा।
गढ़मुक्तेश्वर में गंगा संसद सम्पन्न
Posted on 04 Dec, 2012 03:01 PM गढ़मुक्तेश्वर। उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर मे गंगा किनारे 25 से 28 नवम्बर तक चली गंगा संसद राष्ट्रीय नदी बेसिन प्राधिकरण के सदस्य राजेन्द्र सिंह की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। गंगा संसद लोक जिम्मेदारी गंगा के प्रति जगाने तथा सरकार के संस्कृति मंत्रालय को भी गंगा कार्यो में जोड़ने हेतु आयोजित हुई थी। भारत सरकार की संस्कृति मंत्री ने संसद में आकर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने का संकल्प, गंगा कार्यों
नदियों को मिले ‘नैचुरल मदर’ का संवैधानिक दर्जा
Posted on 04 Dec, 2012 11:34 AM

यदि हम नाम बदलकर अमानीशाह या नजफगढ़ नाला बना दी गई क्रमशः जयपुर की द्रव्यवती व अलवर से बहकर दिल्ली आने वाल

river
नर्मदा की निराली छटा
Posted on 04 Dec, 2012 11:06 AM

शहरीकरण, औद्योगीकरण और नए पावर प्लांटों के कारण नर्मदा में प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। बड़े बांध बनाकर उसकी अविर

narmada mela
पानी बोलता है
Posted on 04 Dec, 2012 10:22 AM

अखबारों में, मंचों पर, नदी की लहरों में, समुद्र की गर्जना में, बारिश की बूंदों में..पानी पा जाने पर तृप्त आसों में तो मैने पानी की आवाज पहले भी सुनी थी, लेकिन यह आवाज मेरे लिए नई थी। जहां पानी दिखता न हो, वहां भी पानी की आवाज!

गंगा मंदिर
स्थानीय निकायों में बच्चों की भागीदारी
Posted on 27 Nov, 2012 09:29 AM मध्यप्रदेश के सीहोर जिले के 15 पंचायतों में समर्थन संस्था ने वाटर एड एवं सेव द चिल्ड्रेन के सहयोग से बच्चों के वॉश अधिकार पर पंचायतों को संवेदनशील करने का कार्य किया है। इसमें गांव में पंचायत एवं अन्य स्थानीय संस्थाओं और समितियों के प्रतिनिधियों के सामने बच्चों के शामिल करते हुए बाल अधिकारों पर बाल संवाद आयोजित किया जाता है। इसमें बच्चे गांव, स्कूल, आंगनवाड़ी एवं घर से जुड़ी समस्याओं, खासतौर से पानी और स्वच्छता के मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं।त्रिस्तरीय पंचायतराज लागू होने से पंचायतों में वंचित समुदाय एवं महिलाओं के लिए कोई जगह नहीं थी। पर जब संवैधानिक प्रावधानों के बाद चुनाव हुए तब बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं महिलाएं पंचायतों एवं नगरीय निकायों में जनप्रतिनिधि बनकर सामने आए। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं महिलाओं की तरह ही समाज का एक ऐसा समूह है, जिसकी आवाज को कोई महत्व नहीं दिया जाता। यह समूह है बच्चों का। शाला में शौचालय, मध्यान्ह भोजन, आंगनवाड़ी एवं शाला में पेयजल की व्यवस्था, खेल का साफ मैदान, घर में एवं गलियों में सफाई, स्वास्थ्य एवं शिक्षा आदि से जुड़ी समस्या का समाधान बच्चे अपनी प्राथमिकता के आधार पर कराना चाहते हैं, जिसे पूरा करने में पंचायतें बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। बच्चों से जुड़ी समस्याओं के समाधान एवं उनकी जरूरतों के लिए बनाए जाने वाले नियमों, व्यवस्थाओं एवं कानूनों में बच्चों की सहभागिता का अधिकार दिए जाने को लेकर कई राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय संधियां एवं समझौते हुए हैं, पर उस पर अमल नहीं होता।
हिमाचल प्रदेश के मतदाताओं के नाम लोक घोषणा पत्र-2012
Posted on 29 Oct, 2012 11:27 AM भाईयों, बहनों व युवा साथियों,
हिमाचल प्रदेश में हो रहे इस विधान सभा चुनावों में विकास के संकट के मूल प्रश्न पर चर्चां ही नहीं है। हालात यह है कि हिमाचल प्रदेश के सामने विकास के निम्न संकटों को किसी भी राजनैतिक दल ने मुद्दा नहीं बनाया। इस लिए हिमालय नीति अभियान प्रदेश की जनता के सामने यह लोक घोषणा पत्र-2012 जारी कर रही है।

विकास के मूल संकट -व्यापक मुद्दे

घड़ियाल छोड़ रहे हैं अपने प्रवास स्थल
Posted on 12 Oct, 2012 12:00 PM घड़ियाल पुर्नवास परियोजना के तहत गंगा,यमुना और चंबल जैसी अहम नदियों में छोड़े जाने वाले घड़ियाल अब छोटे-छोटे माइनरों में आना शुरू हो गये हैं। इटावा की भोगनीपुर माइनर में निकले एक घड़ियाल को भारी भीड़ मारने की फिराक में थी लेकिन उसे वन विभाग और पर्यावरणीय संस्था के लोगों ने सुरक्षित बचा लिया। करीब 3 घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद इस घड़ियाल को पकड़ पाने में कामयाब हो सके। पकड़ा गया घड़ियाल करीब 5 फुट क
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