उत्तराखंड

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बदलते परिवेश में जल संसाधन प्रबन्धन
Posted on 02 Jul, 2015 01:14 PM पाँचवी राष्ट्रीय जल संगोष्ठी - 2015
दिनांक: 19-20 नवम्बर 2015
स्थान : राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की
आयोजकः जलविज्ञान संस्थान (ISO-9001:2008) जलविज्ञान भवन रुड़की-247667 (उत्तराखण्ड)


परिचय


विश्व के अधिकांश देशों में जल से जुड़ी विभिन्न समस्याओं में निरन्तर वृद्धि हुई है जिससे नियोजन तथा प्रबन्धन का संकट बढ़ा है। आज जल संकट को लेकर पूरा विश्व समुदाय चिंतित और भयभीत है इसलिए इस समस्या के समाधान के लिए सभी स्तरों पर पूरी जिम्मेवारी तथा निष्ठा से समन्वित प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। नियोजन की समस्याएँ प्रायः असमान विकास, गुणवत्ता हृास तथा पर्यावरण के क्षय के कारण पैदा होती हैं। जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मन्त्रालय, भारत सरकार के दिशा-निर्देशों तथा राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान (रा.ज.सं.) रुड़की की राजभाषा कार्यान्वयन समिति की बैठक में लिए गए निर्णयानुसार रा.ज.सं. द्वारा वर्ष 1999 में तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रकृति के सरकारी कार्यों में राजभाषा हिन्दी के प्रगामी प्रयोग को सर्वोच्च प्राथमिकता एवं सम्मान देने के उद्देश्य से पहली राष्ट्रीय जल संगोष्ठी का आयोजन सफलतापूर्वक सम्पन्न किया गया। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए, प्रत्येक चार वर्ष के अन्तराल में अर्थात वर्ष 2003, 2007 तथा 2011 में रा.ज.सं. द्वारा राष्ट्रीय संगोष्ठियों का सफल आयोजन किया गया। तद्नुसार इस वर्ष भी रा.ज.सं. 19-20 नवम्बर, 2015 को पाँचवीं राष्ट्रीय जल संगोष्ठी का आयोजन कर रहा है।

हाल ही के वर्षों में विश्व के अधिकांश देशों में जल से जुड़ी विभिन्न समस्याओं में निरन्तर वृद्धि हुई है जिससे नियोजन तथा प्रबन्धन का संकट बढ़ा है। आज जल संकट को लेकर पूरा विश्व समुदाय चिंतित और भयभीत है इसलिए इस समस्या के समाधान के लिए सभी स्तरों पर पूरी जिम्मेवारी तथा निष्ठा से समन्वित प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
water management
कोसी को बचाने की जंग
Posted on 02 Jul, 2015 10:34 AM

अपने अथाह जल प्रवाह और विकराल रूप के कारण बिहार का शोक कही जाने वाली कोसी आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। इसके लगातार घटते जल स्तर के कारण आज यह सूखने के कगार पर है। यद्यपि लोगों, स्वयंसेवी संस्थाओं और सरकारी कर्मियों के मिले-जुले प्रयास इसे बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। कोसी को बचाने की इसी जद्दोजहद की एक दास्तान।

Kosi
23-24 जून को उत्तराखण्ड विकास संवाद
Posted on 20 Jun, 2015 10:42 AM हिमालयी राज्यों के नागरिक संगठन, लम्बे अरसे से हिमालयी प्रदेशों के विकास की अलग नीति माँग कर रहे हैं। मैं समझता हूँ कि नीति आयोग की यह नीति, जाने-अनजाने इसके दरवाजे खोल रही है। खुले दरवाज़े का लाभ लेने के लिये जरूरी है कि प्रदेश सरकारें अपने प्रदेश की सामर्थ्य, संवेदना और जरूरत का आकलन कर टिकाऊ विकास का खाका तैयार करने में जुट जाएँ। इस दृष्टि से उत्तराखण्ड जैसे संवेदनशाली राज्य के टिकाऊ विकास का खाका बेहद सावधानी, समझ, संवेदना, समग्रता और दूरदृष्टि की माँग करता है। नीति आयोग ने इस नीति पर काम करना शुरू कर दिया है कि राज्य, केन्द्र की ओर ताकने की बजाय, अपने संसाधनों के विकास पर ज्यादा-से-ज्यादा ध्यान कैसे दें? इसके लिये नीति आयोग के दलों ने राज्यों के दौरे भी शुरू कर दिये हैं। इस नीति से किन राज्यों को लाभ होगा और कौन-कौन से राज्य घाटे में रहेंगे? इस नीति से पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील राज्यों में विकास और पर्यावास के बीच सन्तुलन साधना कितना सम्भव होगा; यह भी एक प्रश्न है।

इस नीति में राज्य से आने वाली केन्द्रीय कर राशि के आधार पर केन्द्रीय बजट में राज्य की हिस्सेदारी का विचार भी सुनाई दे रहा है। इससे आप आशंकित हो सकते हैं कि इससे कमजोर आर्थिकी वाले राज्यों में स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन की विवशता बढ़ जाएगी; जिसके दुष्प्रभाव व्यापक होंगे।
Uttarakhand
सभ्यताओं को निगलतीं परियोजनाएँ
Posted on 16 Jun, 2015 04:27 PM

ननदियों को जब से हमने सिर्फ जल और ऊर्जा का स्रोत समझना शुरू किया, सारी समस्या वहीं से शुरू हो

उत्तराखण्ड के गाँवों को आबाद करने को जुटा संघ
Posted on 30 May, 2015 01:32 PM

पलायन, पहाड़ की पुरानी समस्या है। उत्तराखंड में इसे रोकने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्र

विस्थापन का दर्द और विकास का मरहम
Posted on 26 May, 2015 03:13 PM

उत्तराखण्ड राज्य में विस्थापन की घटना बहुत पुरानी है लेकिन वैश्वीकरण के पश्चात् विस्थापन ने महा

‘निर्मल गंगा, अविरल गंगा' गंगा सभा का संकल्प
Posted on 26 May, 2015 01:16 PM गंगा सभा हरिद्वार के तीर्थ पुरोहितों की संस्था है। इसकी स्थापना 1916 में महामना मदन मोहन मालवीय ने की थी। गंग नहर के निर्माण के दौरान ब्रिटिश सरकार गंगा पर जो बाँध बना रही थी, उसके कारण हर की पौड़ी से गंगा की धारा की बजाय नहर प्रवाहित होने की बात सामने आई। हिन्दू यह नहीं चाहते थे। उनका कहना था कि उनकी धार्मिक आस्था का सम्मान हो और हर की पौड़ी से गंगा की मूल धारा प्रवाहित हो। इसके लिए मालवीय जी
पहाड़ों की जीवनरेखा ‘स्प्रिंग’ बचाने को जुटे जल-संगठन
Posted on 17 May, 2015 01:28 PM 15 मई 2015, नैनीताल, उत्तराखण्ड। पहाड़ों के सबसे महत्त्वपूर्ण जलस्रोत स्प्रिंग बचाने और संवर्धन के मुद्दे पर पहाड़ी राज्यों के सरकारी, गैर-सरकारी जल-संगठनों और सामाजिक प्रतिनिधियों का बड़ा जमावड़ा भीमताल में हुआ। भारत के हिमालयी पहाड़ों में पाँच लाख से ज्यादा स्प्रिंग हैं जो पहाड़ों की जीवन-रेखा हैं। स्प्रिंग-जल से लगभग देश की 50 लाख से ज्यादा आबादी को पेयजल की उपलब्धता होती है। उत्तराखण्ड में भी बीस हजार से ज्यादा स्प्रिंग हैं। कार्यक्रम में सिक्किम सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे ग्रामीण विकास विभाग में ‘स्प्रिंगशेड अथॉरिटी’ के स्टेट-कॉआर्डिनेटर ‘पेम नोरबू शेरपा’ ने बताया कि सिक्किम सरकार 1500 से ज्यादा स्प्रिंग के विकास पर काम कर रही है। सूख चुके 52 स्प्रिंग को पुनर्जिवित किया गया है।
लोक-परलोक सँवारती है गंगा
Posted on 12 May, 2015 04:43 PM

गंगा का धार्मिक पक्ष एक बात है। उसके किनारे बसे लोगों के लिए यह जीविका का माध्यम भी है। हरिद्व

हिमालय बचाने की मुहिम
Posted on 03 May, 2015 03:10 PM हिमालयी क्षेत्र के लिये अलग मन्त्रालय अवश्य होना चाहिये, लेकिन हिमालयी क्षेत्र में किस प्रकार का विकास मॉडल लागू हो, इसके उपाय हिमालय लोकनीति के माध्यम से सुझाए जा रहे हैं।

सभी कहते हैं कि हिमालय नहीं रहेगा तो, देश नहीं रहेगा, इस प्रकार हिमालय बचाओ! देश बचाओ! केवल नारा नहीं है, यह भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी एक रास्ता है। इसी तरह चिपको आन्दोलन में पहाड़ की महिलाओं ने कहा कि ‘मिट्टी, पानी और बयार! जिन्दा रहने के आधार!’ और आगे चलकर रक्षासूत्र आन्दोलन का नारा है कि ‘ऊँचाई पर पेड़ रहेंगे! नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे!’, ये तमाम निर्देशन पहाड़ के लोगों ने देशवासियों को दिये हैं।

‘‘धार ऐंचपाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा खाला-खाला!’’ इसका अर्थ यह है कि चोटी पर पानी पहुँचना चाहिए, ढालदार पहाड़ियों पर चौड़ी पत्ती के वृक्ष लगे और इन पहाड़ियों के बीच से आ रहे नदी, नालों के पानी से घराट और नहरें बनाकर बिजली एवं सिंचाई की व्यवस्था की जाए। इसको ध्यान में रखते हुए हिमालयी क्षेत्रों में रह रहे लोगों, सामाजिक अभियानों तथा आक्रामक विकास नीति को चुनौती देने वाले कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों ने कई बार हिमालय नीति के लिये केन्द्र सरकार पर दबाव बनाया है।
हिमालयी क्षेत्र के लिये अलग मन्त्रालय अवश्य होना चाहिये, लेकिन हिमालयी क्षेत्र में किस प्रकार का विकास मॉडल लागू हो, इसके उपाय हिमालय लोकनीति के माध्यम से सुझाए जा रहे हैं।
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