दिल्ली

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कचरे के ढेर में सेहत का सवाल
Posted on 29 Jun, 2010 12:54 PM
एक मशहूर कहावत है कि ‘सेहत खरीदी नही जा सकती।’ इसका मतलब साफ है कि कुछ चीजें आप खरीद नहीं सकते लेकिन वे मानव जीवन के लिए अनिवार्य है और उन्हें मात्राओं और कीमतों की कसौटी पर रख कर नहीं देखा जा सकता। दरअसल, यह बात कुछ समय पहले दिल्ली के मायापुरी इलाके में हुई विकिरण की घटना के संदर्भ में कही जा रही है कि किसी भी समुदाय में ठोस कचरे का उचित प्रबंधन न केवल लोगों की सेहत के लिहाज से जरूरी है, बल
स्पेस, पानी और जिंदगी
Posted on 27 Jun, 2010 08:40 AM
पानी इधर हमारी साइंटिस्ट बिरादरी के अजेंडे पर है। अजेंडा सिर्फ यह नहीं है कि पृथ्वी पर पानी खत्म हो गया तो क्या होगा, बल्कि यह है कि स्पेस में अगर कहीं पानी मिलता है तो क्या वह हमारी धरती से बाहर जीवन की संभावना का आधार बन सकता है। इधर जब से चंद्रयान-1 से मिले डेटा के विश्लेषण से चंद्रमा पर भारी मात्रा में पानी की मौजूदगी के ठोस प्रमाण मिले हैं, तब से इस संभावना पर जोरशोर से विचार हो रहा है।
उधार की आंखों से देखना-समझना
Posted on 26 Jun, 2010 02:41 PM पुरी के आसपास ही कोई 52 शासन गांव थे, जहां जमीन पर सभी का साझा स्वामित्व था। यह व्यवस्था सदियों से चली आई थी। लेकिन जब सन् 1937 में हमने खेतिहर को जमीन देने के राष्टीय कार्यक्रम पर अमल करना शुरू किया तो यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई।राजस्थान की पंचायतों का अध्ययन करते हएु सन् 1961 में मुझे अपने गांवों के बारे में एक बिल्कुल दूसरी समझ हासिल हुई। सवाई माधोपुर जिले के एक गांव में हमें पता चला कि वहां सिंचाई के कुछ तालाब हैं। पंचायत के दस्तावेजों में उनका कोई जिक्र नहीं था। इसलिए मैंने लोगों से पूछा कि कौन उनकी मरम्मत करता है। जवाब मिला हम। मैंने पूछा ‘हम से क्या मतलब है? पंचायत से? उन्होंने बताया कि इसका मतलब पंचायत से नहीं, उन लोगों से है जिनके खेतों को इससे पानी मिलता है।

उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह इन तालाबों की मरम्मत के लिए श्रम और दूसरे साधन एकत्र किए जाते हैं। जब मैंने पूछा कि पंचायत उनकी मरम्मत क्यों नहीं करती तो उन्होंने बताया कि यह पंचायत का काम नहीं है! मेरे पूछने पर, कि फिर पंचायत का क्या काम है, उन्होंने जवाब दिया कि पंचायत का काम है विकास करना और विकास का मतलब होता है, वे कार्यक्रम जिन्हें सरकार उनके लिए तय करे।
धरती का बुखार
Posted on 26 Jun, 2010 12:19 PM इंग्लैंड के पास बेहद कठिन नाम ‘ऐयाफ्याटलायोकेकुल’ वाला जो ज्वालामुखी फटा है, उसकी कोई सरल जानकारी भी किसी के पास थी नहीं यह भी नहीं मालूम कि कितने दिनों तक यह लावा उगलेगा और धुआं निकलता रहेगा। बस उससे बड़ा नुकसान यह हुआ कि कोई आठ-दस दिनों तक पूरा यूरोप ठप्प रहा। वह उड़ नहीं पाया। उसे उड़ने की बहुत बड़ी आदत है। इसलिए उसके लिए यह बहुत बड़ी खबर बन गई। यह कहीं और हुआ होता तो शायद इतनी बड़ी खबर नहीं बनती।सभी को लगा कि गर्मी इस बार थोड़ा पहले आ गई है और कुछ ज्यादा ही तेजी से आई है। अखबार वाले बता रहे हैं कि कम से कम तापमान में पिछले बीस साल का रिकॉर्ड टूटा है तो चालीस साल का रिकॉर्ड ज्यादा से ज्यादा तापमान में टूटा है। इस तरह के आंकड़े हमारे सामने रोज आते रहे हैं और लोग अपने-अपने साधनों से, अपने-अपने तरीके से इस गर्मी को झेलने का रास्ता निकालते रहे हैं। लू से होने वाले नुकसान भी सामने आए हैं। गुजरात और राजस्थान में इस बार अनेक लोगों की मृत्यु हुई है।

इससे पहले ठंड के मौसम में भी इसी तरह की बात सुनते रहे कि इस बार ठंड कुछ ज्यादा पड़ी है और देर तक पड़ी है। और उस मौसम में भी अभाव में किसी तरह जी रहे लोगों में से कुछ को अपनी जान देनी पड़ी थी। तब बेघरबार लोगों की चिंता नगरपालिकाओं को तो नहीं हुई पर देश की बड़ी अदालत ने जरूर इस बारे में न सिर्फ अपनी संवेदनाएं दिखाईं,
Global warming
सभ्यता का कचरा
Posted on 25 Jun, 2010 03:15 PM
श्री राजेन्द्र माथुर अंग्रेजी पढ़ाते थे लेकिन लिखते थे हिन्दी. 1970 में नई दुनिया से जुड़े उसके बाद नवभारत टाईम्स के संपादक बने. 1969 में लिखा यह लेख विकास और सभ्यता की पोल खोलता है.
जनाधिकार है पर्यावरण
Posted on 15 Jun, 2010 11:14 AM विश्व के प्रति नया दृष्टिकोण विश्व-स्तर पर मानव के ‘अधिकार’ को भी प्रभावित करेगा। मानव जाति की संपत्ति होने के कारण ‘ पृथ्वी’ पर किसी का भी अधिकार नहीं होना चाहिए, यहां तक कि राज्य का भी नहीं। ‘पृथ्वी’ को हमें एकदम नए दृष्टिकोण से देखना होगा। पृथ्वी ‘अपनी संपत्ति’ नहीं है अपितु मानव जाति की संपत्ति है। इसी तरह प्रकृति भी किसी की संपत्ति नहीं है, वरन् समूची मानव जाति की संपत्ति है। जब तक हम प्रकृति को ‘अपनी संपत्ति’ मानते रहेंगे, प्रकृति को लूटते रहेंगे, उसका ध्वंस करते रहेंगे।आज समय की मांग है कि विश्व के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अपनाया जाए, जो मानव जाति की एकता, समाज और प्रकृति में समन्वय के सिध्दान्त पर आधारित हो। विश्व के प्रति नया दृष्टिकोण विश्व-स्तर पर मानव के ‘अधिकार’ को भी प्रभावित करेगा। मानव जाति की संपत्ति होने के कारण ‘ पृथ्वी’ पर किसी का भी अधिकार नहीं होना चाहिए, यहां तक कि राज्य का भी नहीं।

‘पृथ्वी’ को हमें एकदम नए दृष्टिकोण से देखना होगा। पृथ्वी ‘अपनी संपत्ति’ नहीं है अपितु मानव जाति की संपत्ति है। इसी तरह प्रकृति भी किसी की संपत्ति नहीं है, वरन् समूची मानव जाति की संपत्ति है। जब तक हम प्रकृति को ‘अपनी संपत्ति’ मानते रहेंगे, प्रकृति को लूटते रहेंगे, उसका ध्वंस करते रहेंगे।

पर्यावरण एवं जल प्रदूषण
Posted on 14 Jun, 2010 04:10 PM “पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर पहेली है एवं इसके साथ हमारे जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा हुआ है, वैज्ञानिकों ने यदि समय रहते इसके परिहार के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए तो आने वाले समय में मनु-पुत्र सदा के लिए काले के गाल में समा जाएंगे।” प्रसिद्ध प्रकृतिविद् श्री सुन्दर लाल बहुगुणा का यह कथन आज की गंभीर रूप धारण करती हुई पर्यावरण प्रदूषण रूपी समस्या के सम्बन्ध में नितांत सत्य है।“पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर पहेली है एवं इसके साथ हमारे जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा हुआ है, वैज्ञानिकों ने यदि समय रहते इसके परिहार के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए तो आने वाले समय में मनु-पुत्र सदा के लिए काले के गाल में समा जाएंगे।” प्रसिद्ध प्रकृतिविद् श्री सुन्दर लाल बहुगुणा का यह कथन आज की गंभीर रूप धारण करती हुई पर्यावरण प्रदूषण रूपी समस्या के सम्बन्ध में नितांत सत्य है।

आज सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से चिन्तित है एवं आज ऐसा कोई भी दिन नहीं बीतता जब पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या पर चर्चा नहीं होती है। अमेरिका की राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के अनुसार, “प्रदूषण, जल,
हमें चाहिए नयी जमीन, नया जीवन
Posted on 14 Jun, 2010 10:45 AM
धरा को वसुंधरा बनाये रखने के लिए हमें व्यापक बदलाव की ओर कदम उठाना होगा. दुनिया के नीति निर्धारकों को यह सोचना होगा कि मनुष्य की हर समस्या का समाधान आर्थिक अधिनायकवाद में निहित नहीं है. व्यक्ति की स्वतंत्रता, उसकी मूल जरूरत इस आर्थिक अधिनायकवाद के भरोसे पूरी नहीं की जा सकती. हमें नयी जमीन चाहिए. हमें नया जीवन चाहिए.
धरती का अमृत है पानी
Posted on 29 May, 2010 08:26 AM
नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक स्व.सी.वी. रमन से किसी ने एक बार भारतीय संस्कृति के वैज्ञानिक पहलुओं पर चर्चा के दौरान पूछा- “क्या सचमुच ही अमृत जैसी कोई पेय वस्तु रही है, जिसके लिए देव-दानव संग्राम की स्थिति बन गई थी।”
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