दिल्ली

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जल नहीं अनंत है...
Posted on 30 Aug, 2013 12:50 PM यह विनम्र गंग धार
बह रही अनंत से
विमल चली थी स्रोत से
समल बना दिया इसे
विनाश तो विहंस हो
बजा रहा मृदंग है
दैव भी सुरसरि का
नाश देख दंग है
क्या हुआ है मनुज को
क्यों अंत देखता नहीं
ज्ञान क्या नहीं उसे
जल नहीं अनंत है
सभ्यता विहान से
युगों के आह्वान से
उदय है विज्ञान का
छू रहा है गगन आज
गरमाती धरती, बेफिक्र सरकारें
Posted on 27 Aug, 2013 01:26 PM उत्तरी ध्रुव पर बर्फ का पिघलना जहां कंपनियों के लिए कारोबारी फायदा है तो रूस के लिए संसाधनों के दोहन का मौका
climate change
उसे हड़बड़ी थी
Posted on 27 Aug, 2013 12:41 PM पिछली रात
ठीक 3.22 पर एक हादसा हुआ...
मई-जून की वो भरी-पूरी झेलम
नील-निर्मल प्रवाहों वाली वो ‘वितस्ता’
मेरे ऊपर से होकर गुजरी-पिछली रात!
लगातार आधा घंटा तक, नहीं 45 मिनट लगे!
प्रवाहित होती रही मुझ पर से
मैं लेटा रहा, निमीलित-नेत्र...
मन ही मन जागरूक, मोद-मग्न...
आशीष की मुद्रा में मेरे होंठ हिलते रहे
जी हां, मैं मगन-मन लेटा रहा उतनी देर
वह फिर जी उठी
Posted on 27 Aug, 2013 12:40 PM पहाड़ी प्रदेश, ऊभड़-खाभड़!
छोटा नागपुर या मध्य प्रदेश का ऐसा ही
कोई इलाका...
छोटी-सी एक नदी
अपने आप में मस्त
हां, पहाड़ी नदी!
हरे-भरे किनारे
इधर भी जंगल, उधर भी जंगल!
जामुन, गूलर, पलाश, आम, महुआ, नीम...
सभी देखते हैं अपना-अपना चेहरा
-नदी के पानी में!
रात को झांकते होते हैं आसमान के तारे
जगमगाती है दिन के वक्त
बेतवा किनारे – 2
Posted on 27 Aug, 2013 12:38 PM लहरों की थाप है
मन के मृदंग पर
बेतवा किनारे
गीतों में फुसफुस है
गीत के संग पर
बेतवा किनारे

मालिश फिजूल है
पुलकित अंग-अंग पर
बेतवा किनारे

लहरों की थाप है
मन के मृदंग पर
बेतवा किनारे।

बेतवा किनारे – 1
Posted on 27 Aug, 2013 12:37 PM बदली के बाद खिल पड़ी धूप
बेतवा किनारे
सलोनी सर्दी का निखरा है रूप
बेतवा किनारे
रग-रग में धड़कन, वाणी है चूप
बेतवा किनारे
सब कुछ भरा-भरा, रंक है भूप
बेतवा किनारे
बदली के बाद खिल पड़ी धूप
बेतवा किनारे।

सन् 1979

देखना ओ गंगा मइया
Posted on 27 Aug, 2013 12:36 PM चंद पैसे
दो-एक दुअन्नी-इकन्नी
कानपुर-बंबई की अपनी कमाई में से
डाल गए हैं श्रद्धालु गंगा मइया के नाम
पुल पर से गुजर चुकी है ट्रेन
नीचे प्रवहमान उथली-छिछली धार में
फुर्ती से खोज रहे पैसे
मलाहों के नंग-धड़ंग छोकरे
दो-दो पैर
हाथ दो-दो
प्रवाह में खिसकती रेत की ले रहे टोह
बहुधा-अवतरित चतुर्भुज नारायण ओह
खोज रहे पानी में जाने कौस्तुभ मणि।
गीले पांक की दुनिया गई है छोड़
Posted on 27 Aug, 2013 11:36 AM बढ़ी है इस बार गंगा खूब
दियारों पर गांव कितने ही गए हैं डूब
किंतु हम तो शहर के इस छोर पर हैं
देखते हैं रात-दिन जल-प्रलय का ही दृश्य
पत्थरों से बंधी गहरी नींव वाला
किराये का घर हमारा रहे यह आबाद
पुराना ही सही पर मजबूत
रही जिसको अनवरत झकझोर
क्षुब्ध गंगा की विकट हिलकोर
सामने ही पड़ोसी के-
नीम, सहजन, आंवला, अमरूद
हो रहे आकंठ जल में मग्न
‘अकेली न जैयो राधे जमुना के तीर’
Posted on 26 Aug, 2013 04:53 PM ‘उस पार चलो ना! कितना अच्छा है नरसल का झुरमुट!’
अनमना भी सुन सका मैं
गूँजते से तप्त अंतःस्वर तुम्हारे तरल कूजन में।
‘अरे, उस धूमिल विजन में?’
स्वर मेरा था चिकना ही, ‘अब घना हो चला झुरमुट।
नदी पर ही रहें, कैसी चाँदनी-सी है खिली!
उस पार की रेती उदास है।’
‘केवल बातें! हम आ जाते अभी लौटकर छिन में-’
मान कुछ, मनुहार कुछ, कुछ व्यंग्य वाणी में।
अंतः सलिला
Posted on 26 Aug, 2013 03:50 PM रेत का विस्तार
नदी जिसमें खो गई
कृश-धार :
झरा मेरे आँसुओं का भार
-मेरा दु:ख धन,
मेरे समीप अगाध पारावार-
उसने सोख सहसा लिया
जैसे लूट ले बटमार।
और फिर आक्षितिज
लहरीला मगर बेट्ट
सूखी रेत का विस्तार-
नदी जिसमें खो गई
कृश-धार

किंतु जब-जब जहां भी जिसने कुरेदा
नमी पाई : और खोदा-
हुआ रस-संचार :
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