दिल्ली

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सूझबूझ से लौटी रौनक
Posted on 26 Nov, 2014 11:28 AM

जंगल में एक तालाब था। तालाब में मछली, कछुआ, केकड़ा, मगरमच्छ व अन्य जीव रहते थे। तालाब हमेशा पानी से भरा रहता था। परन्तु इस बार के हालात किसी और तरफ इशारा कर रहे थे। इस बार को गर्मी को देखकर लग रहा था कि तालाब जल्द ही सूख जाएगा। वर्षा न के बराबर हुई थी और आगे भी इसके न होने के पूरे आसार थे। इस बात को लेकर मछलियां सबसे ज्यादा चिंतित थीं। उन्हें पता था कि मे

Jungle mai talab
जंगल लीलती परियोजना
Posted on 26 Nov, 2014 09:59 AM

जिस दिन आखिरी पेड़ काटे जायेंगे, वह दिन भी आयेगा जब अंतिम नदी प्रदूषित होगी और जिस दिन बची मछलियां भी मछुआरे के जाल में जा फंसेंगी, उस दिन आपको यह आभास होगा कि इंसान या पशु पैसे खाकर जिंदा नहीं रह सकते-ये पंक्तियां उस पत्र के चुनिंदा अंशों में एक हैं जो कालाहांडी के नियमगिरि पहाड़ी के आदिवासियों द्वारा उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को लिखी गयी हैं। ये

khatm hote jangal
वनों का मनमोहक संसार
Posted on 25 Nov, 2014 04:21 PM भारतीय मानवशास्त्रीय विभाग के अध्ययन के अनुसार भारत में इस समय 443 अनुसूचित जातियां, 426 अनुसूचित जनजातियां और 1051 पिछड़े वर्ग के समुदाय हैं। अनुसूचित जनजातियों की आबादी देश की कुल जनसंख्या का लगभग 8 प्रतिशत है। आदिवासी लगभग 105 भाषाएं तथा 225 सहायक भाषाएं बोलते हैं। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली को छोड़कर प्रायः वे सभी राज्यों में मूल-रूप से निवास करते हैं। वे वि
van
जंगल एक कक्षा है
Posted on 25 Nov, 2014 11:02 AM मेरे कमरे में एक कैलेंडर है। कैलेंडर में छह पेज हैं और ऊपर छपी तस्वीरें जंगली जानवरों की हैं। एक पर शेर का चित्र है। एक पर बंगाल का बाघ छपा है। तीसरे पर एक तेंदुआ है, जो पत्तों में छिपा है। चौथे पर छलांग लगाता लंबा-तगड़ा चीता है। पांचवें पर जंगली भैंसे और छठे पृष्ठ पर बनैले सूअर हैं। ड्राइंग रूम में तो वैसे भी हम इनके अंग-उपांग सजाते रहे हैं- कहीं सींग, कहीं
Jungle
पत्तों के बिना
Posted on 24 Nov, 2014 03:54 PM पत्तों पर ओस जमने लगी है। वे सूरज की किरण पड़ते ही ऐसे चमकते हैं, जैसे किसी ने उन पर हीरे तराशकर रख दिये हों। दिन चढ़ते ही ये हीरे खो जाते हैं। हरे-उजले पत्तों पर खिंची पीली रेखाओं को देखो तो लगता है जैसे वृक्ष की छोटी-छोटी खाली गदेलियां हों। वृक्षों की शाखाओं को डुलाती हवा में पत्ते इस तरह हरहराते रहते हैं जैसे, तालियां बजा रहे हों। वे धरती पर पड़ती अपनी चंच
patta
संकट नहीं है सूखा : सूखे से मुकाबला
Posted on 24 Nov, 2014 01:04 PM आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में आषाढ़ निकल गया। सावन में छींटे भी नहीं पड़े। भादों में दो दिन पानी बरसा तो, लेकिन गर्मी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब....? अब क्या होगा....? यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है।

भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है।
Talab
गंगा सफाई में ठोस परिणाम देंगे
Posted on 24 Nov, 2014 12:17 PM आगामी जनवरी में विश्व जल सप्ताह के साथ ही शुरू होगी जल संरक्षण मुहिम, गांवों तक पहुंचाएंगे संदेश
Jal Manthan
संकट में समझ व सहमति की विशेषज्ञ पहल
Posted on 24 Nov, 2014 11:48 AM

भारत नदी सप्ताह 2014


तारीख : 24-27 नवंबर, 2014
स्थान : लोदी रोड, नई दिल्ली


एक नदी को स्वस्थ मानने के मानक वास्तव में क्या होने चाहिए? जब हम कहते हैं कि फलां नदी को पुनजीर्वित करना है, तो भिन्न नदियों के लिए भिन्न कदमों का निर्धारण करने के आधार क्या हों? केन्द्र तथा राज्य स्तरीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों द्वारा नदियों की निर्मलता की जांच को लेकर अपनाए जा रहे परंपरागत मानक पर्याप्त हैं या उनसे इतर भी कुछ सोचे जाने की जरूरत हैं? बांध, बैराज, जल विद्युत परियोजनाएं बनें या न बनें? न बनें, तो क्यों? बनें तो, कैसे बनें? क्या डिजाइन, क्या आकार अथवा मानक हों? मानकों की प्रभावी पालना सुनिश्चित करने के कदम क्या हों?

नदी के लिए आवश्यक प्रवाह का मापदंड क्या हो? जरूरी प्रवाह की दृष्टि से किसकी मांग उचित है: परिस्थितिकीय पर्यावरणीय अथवा नैसर्गिक? तीनों में भिन्नता क्या है? इनका निर्धारण कैसे हो?

नदी सिर्फ बहता पानी है या कि अपने-आप में एक संपूर्ण पर्यावरणीय प्रणाली? वास्तव में क्या हमारे पास कुछ शब्द या वाक्य ऐसे हैं, जिनमें गढ़ी नदी की परिभाषा, वैज्ञानिकों को भी स्वीकार हो, विधिकों को भी और धर्मगुरुओं को भी?
river
'बनाजी' का गांव
Posted on 24 Nov, 2014 11:46 AM

तालाबों के नामकरण की परंपरा को सबसे पहले जीवित किया गया। तीनो तालाबों के गुण और स्वभाव को देखते हुए एक सादे और भव्य समारोह में इनका नामकरण किया गया। पहले तालाब का नाम रखा गया देवसागर, दूसरे का नाम फूलसागर और तीसरे का नाम अन्नसागर। पहले दो तालाबों से समाज के लिए पानी न लेने का नियम बनाया गया। फूलसागर के आस-पास अच्छे पेड़-पौधे जैसे- सफेद आकड़ा, बेलपत्र के पौधे और बगीची आदि लगाई गई। देवसागर की पाल पर छतरी, पनघट, पक्षियों के लिए चुगने का स्थान और धर्मशाला आदि स्थापित की गई।

सन 2004: जयपुर जिले के एक छोटे से गाँव लापोड़िया के लिये इस तारीख, इस सन का मतलब है 4 और 2 यानी 6 साल का अकाल। आस-पास के बहुत सारे गाँव इस लंबे अकाल में टूट चुके हैं, लेकिन लापोड़िया आज भी अपना सिर, माथा उठाए मज़बूती से खड़ा हुआ है। लापोड़िया का माथा घमंड के बदले विनम्र दिखता है। उसने 6 साल के अकाल से लड़ने के बदले उसके साथ जीने का तरीका खोजने का प्रयत्न किया है। इस लंबी यात्रा ने लापोड़िया गाँव को लापोड़िया की ज़मीन में छिपी जड़ों ने ऊपर के अकाल को भूलकर ज़मीन के भीतर छिपे पानी को पहचानने का मेहनती काम किया है। इस मेहनत ने आज 6 साल के अकाल के बाद भी लापोडि़या को अपने पसीने से सींच कर हरा-भरा बनाया है।

कोई भी अच्छा काम सूख चुके समाज में आशा की थोड़ी नमी बिखेरता है और फिर नई जड़ें जमती हैं, नई कोंपलें फूटती हैं। राजस्थान के ग्राम विकास नवयुवक मंडल, लापोड़िया के प्रयासों से गोचर को सुधारने का यह काम अब धीरे-धीरे आस-पास के गांवों में भी फैल चला है। गागरडू, डोरिया, सीतापुर, नगर, सहल सागर, महत्त गांव, गणेशपुरा आदि गांवों में आज चौका पद्धति से गोचर को सुधारने का काम बढ़ रहा है। इनमें से कोई पन्द्रह गांवों में यह काफी आगे जा सका है। लापोड़िया के इस सफल प्रयोग ने कुछ और बातों की तरफ भी ध्यान खींचा है।
gochar
पृथ्वी, प्रजा और पानी
Posted on 23 Nov, 2014 10:39 AM

धरती की ऊंची-नीची घाटियों में पानी सहज ही बह निकलता है। पानी बहता है तो उसके दो किनारे भी बन ज

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