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विश्व वेटलैण्ड दिवस
Posted on 05 Feb, 2015 03:59 PM विश्व वेटलैण्ड दिवस 2 फरवरी 2015

तो आइए हम सब मिलकर सरकार के प्रयास को सफल बनाने में सहयोगी एवं सहभागी बनें तथा प्राकृतिक सौंदर्य बढ़ाने के साथ पर्यावरण का भी संरक्षण करें।

सन्देश

विश्व के समक्ष कड़ी चुनौती
Posted on 05 Feb, 2015 12:29 PM

वैश्विक तपन के कारण द्वीपीय राष्ट्रों एवं तटीय इलाकों के जलमग्न होने की आशंका बहुत पहले से ही व

जलवायु परिवर्तन का मुकाबला सामुदायिक कार्रवाई से
Posted on 05 Feb, 2015 12:24 PM पर्यावरण में आ रहे बदलावों के प्रति उनमें चेतना बढ़ रही है। वैश्विक
ग्रीनहाउस गैस में कमी की क्योटो प्रक्रिया
Posted on 05 Feb, 2015 09:57 AM उत्सर्जन व्यापार पर्यावरण सुधार के लिए बाजार आधारित वह योजना है जो
पानी की समस्या
Posted on 04 Feb, 2015 02:07 PM पिछले दो वर्षों में उत्तर भारत में वर्षा और आर्द्रता में पहले से ही
जलवायु परिवर्तन: कारण और प्रभाव
Posted on 03 Feb, 2015 04:04 PM भारत की स्थिति ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में निश्चित ही
हिमालय के लिये अलग नीति चाहिए
Posted on 03 Feb, 2015 03:10 PM

जलवायु परिवर्तन के दौर में मानव जनित विकास की छेड़छाड़ का परिणाम माना जा रहा है। सन् 2013 में उत्

सोशल मीडिया की सार्थकता
Posted on 02 Feb, 2015 12:29 PM मेरा सोशल मीडिया पर कुछ अनुसंधानात्मक कार्य करने का दिल किया। कुछ दिन की स्टडी के बाद पता चला कि इसके ऊपर 60 प्रतिशत पर्सनल फोटो अपलोड किए जाते हैं, 20 प्रतिशत टेलरमेड कैप्शन अपलोड किए जाते हैं, कुछ सामग्री आगे से आगे शेयर की जाती है। अधिकतर सामग्री बिना पढ़े लाइक की जाती है। लगभग लाइक्स इसलिए भी किए जाते हैं क्योंकि वह पोस्ट उनके करीबियों या प्रभावशाली व्यक्तियों की होती हैं। एक तथ्य यह भी सा
पुस्तकें समाज भी बदलती हैं और भूगोल भी
Posted on 01 Feb, 2015 04:07 PM

तो क्या पुस्तकें केवल ज्ञान प्रदान करती हैं? इसके अलावा और क्या करती हैं? यह सवाल अक्सर कुछ लोग पूछते रहते हैं। यदि दो पुस्तकों का जिक्र कर दिया जाए तो समझ में आता है कि पुस्तकें केवल पठन सामग्री या विचार की खुराक मात्र नहीं है, ये समाज, सरकार को बदलने और यहाँ तक कि भूगोल बदलने का भी जज्बा रखती हैं।

जब गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान ने ‘आज भी खरे हैं तालाब’ को छापा था तो यह एक शोधपरक पुस्तक मात्र थी और आज 20 साल बाद यह एक आन्दोलन, प्रेरणा पुंज और बदलाव का माध्यम बन चुकी है। इसकी कई लाख प्रतियाँ अलग-अलग संस्थाओं, प्रकाशकों ने छाप लीं, अपने मन से कई भाषाओं में अनुवाद भी कर दिए, कई सरकारी संस्थाओं ने इसे वितरित करवाया, स्वयंसेवी संस्थाएँ सतत् इसे लोगों तक पहुँचा रही हैं।

परिणाम सामने हैं जो समाज व सरकार अपने आँखों के सामने सिमटते तालाबों के प्रति बेखबर थे, अब उसे बचाने, सहेजने और समृद्ध करने के लिए आगे आ रहे हैं।

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