Posted on 25 Aug, 2013 12:07 PMमैं वहीं हूँ,तुम जहाँ पहुँचा गए थे।
खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी, अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है। दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह व्याप्त हो जाती हवा-सी फैलकर सारे भवन में। खिड़कियों पर, फर्श पर, मसिपात्र, पोथी, लेखनी में रेत की कचकच; कलक की नोंक से फिर वर्ण कोई भी न उगता है। कल्पना मल-मल दृगों को लाल कर लेती।
Posted on 25 Aug, 2013 12:06 PM(पेड़ की उक्ति) क्या हुआ उस दिन? तुम्हें मैंने छुआ था मात्र सेवा-भाव से, करुणा, दया से। स्पर्श में, लेकिन, कहीं कोई सुधा की रागिनी है। और त्वचा के भी श्रणव हैं। स्पर्श का झंकारमय यह गीत सुनते ही त्वचा की नींद उड़ जाती, लहू की धार में किरणें कनक की झिलमिलाती हैं।
रोम-कूपों से उठी संगीत की झंकार, नाव-सी कोई लगा खेने रुधिर में।
Posted on 25 Aug, 2013 12:02 PMसंत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च- महाभारत 1 ।63।66 (स्त्री-पुरुषों के दो दल बनाकर सहगान के लिए : उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित। इसे ढिंढिया कहते हैं।)
स्त्री जाओ,लाओ,पिया, नदिया से सोन मछरी। पिया, सोन मछरी; पिया सोन मछरी। जाओ, लाओ, पिया नदिया से सोन मछरी।
Posted on 24 Aug, 2013 11:30 AMमैं एक नदी सूखी सी कल मैं कलकल बहती थी उन्मुक्त न कोई बंधन क्वांरी कन्या सी ही थी पूजित भी परबस भी थी जब सुबह सवेरे सूरज मेरे द्वारे आता था सच कहूँ तो मेरा आँगन उल्लसित हो जाता था आलस्य त्याग कर मुझ में सब पुण्य स्थल को जाते जब घंटे शंख,अज़ान गूंजते थे शांति के हेतु मैं भी कृतार्थ होती थी उसमें अपनी छवि देकर
Posted on 23 Aug, 2013 11:20 AMप्रकाशमय किया है सूर्य ने जिसको चंद्रमा ने वर्षा की है रजत किरणों की प्रसन्न हैं झिलमिल तारे जिसे देख कर फूलों ने भी बिखेरी है सुगंध हंसकर ऐसी न्यारी सुन्दर वसुंधरा ये है प्रकृति ने संवारा है इसको बड़े श्रम से वन,पर्वत,घाटी,नदियाँ,झरने सभी रंग भरते हैं इसमें सतरंगी समय के साथ इसकी सुन्दरता बढ़ती ही जा रही थी असीम
Posted on 22 Aug, 2013 11:45 AM हिमखंडों के पिघलने से ताज़ा पानी की विशाल मात्रा समुद्र में नमक की मात्रा कम करती है जिससे समुद्री तूफान पैदा होते हैं। साथ ही, ब