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गंगा-दशहरा
Posted on 08 Sep, 2013 01:10 PM बाप ने बहल बनावाई थी
सैलानी सैर हेतु
(बैलगाड़ी भूसा-खाद-
लकड़ी ढोने में व्यस्त)
रंग-बिरंगी सुतलियों से
बिनी खटोलिया के
चारों ओर टनटनातीं
रशना-सी घंटियाँ,
बैलों की मरोड़ पूँछ
टिटकार करते ही
अंग-अंग लहराते
दचकों के दोला में।
बीघापुर स्टेशन से
उसी में बिठाकर तुम्हें
विदा करा लाया था।
माँ ने हर्षाश्रुओं से
नदी का रास्ता
Posted on 08 Sep, 2013 01:06 PM नदी को रास्ता किसने दिखाया?
सिखाया था उसे किसने
कि अपनी भावना के वेग को
उन्मुक्त बहने दे?
कि वह अपने लिए
खुद खोज लेगी
सिंधु की गंभीरता
स्वच्छंद बहकर?
इसे हम पूछते आए युगों से
और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी का;
‘मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने;’
‘बनाया मार्ग मैंने आप ही अपना;
‘ढकेला था शिलाओं को;
बोल मेरी धरती कितना पानी
Posted on 08 Sep, 2013 01:02 PM जल भंडारण की दृष्टि से हमें तालाब और बावड़ियों की तरफ विशेष ध्यान देना होगा, जो पहले हमारे यहां काफी बड़ी संख्या में होते थे, मगर
ऐ नदी...
Posted on 07 Sep, 2013 03:08 PM सच बताना ऐ नदी
क्यों उछलती आ रही हो
हिम पर्वतों से निकल
क्यों पिघलती जा रही हो
प्रकृति में सौन्दर्य है ...
उसी से मिलकर चली हो
निज चिरंतन वेग ले
माटी में उसकी सनी हो
राह में बाधाएं इतनी
फिर भी सदा नीरा बनी हो
अटल नियति है यही
अनवरत बहना तुम्हें है
पाप कोई जन करे
बोझ तो ढोना तुम्हें है
आज भी कितने मरूथल
पृथ्वी का बढ़ता तापमान – कुछ तथ्य
Posted on 07 Sep, 2013 03:04 PM रिकॉर्ड दर्शाते हैं कि 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद से पृथ
नर्मदा के चित्र
Posted on 07 Sep, 2013 12:49 PM नष्ट नहीं सौंदर्य कभी उनके लेखे,
जिनके प्राणों में एक सदृश-श्री-शक्ति है,
वैसे ही जैसे गुलाब का महकता
जीवन जीवित है बिखरे-भी दलों में।
नष्ट हुई चीजों के ऊपर एक कुछ
है प्रकाश ऐसा ही, जो जाता नहीं;
धुँधला है इतने प्रकाश की झलक है,
जितनी भरने और बहने के बीच में
देखी जाती है दुखिया की आँख में!
भिन्न भिन्न मिस हैं जिनसे निज रूप को
सुबह की नदी
Posted on 06 Sep, 2013 11:55 AM जी, हाँ,
सुबह हुई है,
पानी की देह में सूरज उगा है,
नदी का जीवन
जानदार हुआ है,
पत्थर चाटना
अब उसे अपने लिए
स्वीकार हुआ है,
तट का तोड़ना
अब दूसरों के लिए
दरकार हुआ है।

दोपहरी में नौका विहार
Posted on 06 Sep, 2013 11:52 AM कल जैसी दोपहरी बीती वैसी कभी न बीती!
यों तो जाने कैसी-कैसी दोपहरी हैं बीतीं,
कमरे में प्यारे मित्रों में हँसते-गाते बीतीं,
कल जैसी दोपहरी बीती वैसी कभी न बीती!
गंगा के मटमैले जल में छपछप डाँड़ चलाते,
सरसैया से परमठ होते, उलटी गति में जाते,
तन का सारा जोर जमाते-धारा को कतराते,
आसपास के जल-भ्रमरों से अपनी नाव बचाते,
गंगा महिमा
Posted on 06 Sep, 2013 11:50 AM (1)
भसम रमी है अंग रंग, रंग्यो अंग ही के,
संग माँहि भूत-प्रेत राखिबै की मति है।।
जहर जम्यो कंठ कठि मैं कोपीन कसी,
घाली मुंड माल उर औघड़ की गति है।.
सेवत मसान नैन तीन कौ विकट्ट रूप,
बैल असवारी करै अजुंबी सुरति है।।
कहत ‘बालेन्द्र’ ऐसे अंग सती रमतीं न,
जो पै देखि लेतीं नाहिं गंग लहरति है।।

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