भारत

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नदियाँ, भाग-1
Posted on 18 Oct, 2013 03:40 PM इछामती और मेघना
महानंदा
रावी और झेलम
गंगा, गोदावरी
नर्मदा और घाघरा
नाम लेते हुए भी तकलीफ होती है

उनसे उतनी ही मुलाकात होती है
जितनी वे रास्ते में आ जाती हैं

और उस समय भी दिमाग
कितना कम पास जा पाता है
दिमाग तो भरा रहता है
लुटेरों के बाजार के शोर से।

1996

पुल
Posted on 18 Oct, 2013 03:39 PM नदी स्थिर है
पुल बह रहा है-

दोनों कुल जोड़ने वाला पुल
बह रहा है
ठीक नदी की विपरीत दिशा में

आत्महत्या करने जा रहा पुल
उद्गम-चट्टानों से कूदकर
टूट जाएगा

और पुल पर चढ़ा मैं
जो तुम तक पहुँचना चाहता हूँ
और मुझ जैसे दूसरे मैं
पुल के साथ

तब नदी बहेगी
पुल के टुकड़ों को वक्ष पर लादकर
खून की लकीरें उभारती?
नदियाँ मेरे काम आईं
Posted on 18 Oct, 2013 03:38 PM जहाँ भी गया मैं
नदियाँ मेरे काम आईं

भटका इतने देस-परदेस
देर-सबेर परास्त हुआ पड़ोस से
इसी बीच चमकी कोई आबेहयात
मनहूस मोहल्ला भी दरियागंज हुआ

पैरों के पास से सरकती लकीरें
समेटती रही दीन और दुनिया
काबिज हुई मैदानों, बियाबानों में
जमाने की मददगार
किनारे तोड़कर घर-घर में घुसती रही

सिरहाने को फोड़ती सुर सरिता
वहाँ तो अब भी इंद्रावती
Posted on 18 Oct, 2013 03:36 PM वहाँ तो अब भी इंद्रावती
शालवनों के लिए
गुनगुनाती हुई

सारी-सारी रात सुलगते पहाड़
पूरा धरती के बचपन को फिर से
सोचते हुए

और तमाम सागरतटों का शोर
इस रात को इस कदर
बेचैन करवटों में फेंकते हुए

यह कैसा शायर होना
चौकन्ना और डरा
अपने कल होने में
सारी रात छिपता हुआ।

1995

मूर्ति विसर्जन : इस रोक पर रजामंदी जरूरी
Posted on 18 Oct, 2013 12:38 PM परंपरागत तौर पर बनने वाली मूर्तियां मिट्टी, रूई, बांस की खप्पचियां
Statue immersion
पुनर्वास की परिभाषा साफ नहीं
Posted on 18 Oct, 2013 11:33 AM सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन से राज वाल्मीकि की बातचीत
कलंक ढो रही प्रथा
Posted on 18 Oct, 2013 11:22 AM भारत के कई राज्यों में अब भी मैला ढोने की प्रथा जारी है। दो बार कानून बनने और करोड़ों रुपए खर्च होने के बावजूद इस दिशा में पूरी सफलता नहीं मिल पाई। सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी इसे लेकर काफी चिंतित हैं। मामले की पड़ताल कर रही हैं सीत मिश्रा।

सरकार ने तमाम आंदोलन और जनदबाव के बाद 1993 में एक कानून बनाकर सिर पर मैला प्रथा को खत्म करने की कोशिश की थी, लेकिन वह कानून नाकाफी सिद्ध हुआ। इसमें मैला ढोने के तरीकों को स्पष्ट नहीं किया गया था। उसमें केवल शुष्क शौचालयों को शामिल किया गया था। जबकि मैला साफ करने के कई और तरीके हैं, जो बेहद अमानवीय हैं। ओपेन ड्रेन, सेप्टिक टैंक में सफाई, रेलवे ट्रैक पर बिखरे मल को साफ करना, सीवर की सफाई करना वगैरह। 1993 में बने कानून के बेअसर होने की वजह से सरकार एक बार फिर जनदबाव के सामने झुकी। ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में भारत एक महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहा है तब यह जानना कितना दुखद है कि देश में करीब डेढ़ लाख लोग अब भी सिर पर मैला ढोकर अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक इस प्रथा में लगे लोगों की संख्या इससे कहीं ज्यादा हैं। इस कुप्रथा को बनाए रखने में कई तरह की राजनीतिक और सामाजिक शक्तियां जिम्मेदार हैं। वैसे तो देश में कई राज्यों ने इस क्षेत्र में अच्छा काम भी किया है, लेकिन आठ से ज्यादा राज्य अभी भी इस शाप से मुक्त नहीं हो पाए हैं। सबसे ज्यादा खराब स्थिति हिंदी पट्टी के राज्यों की है। इसमें भी सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में आज भी सबसे ज्यादा लोग मैला प्रथा में लगे हैं। केंद्र सरकार ने निर्मल भारत अभियान के तहत जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके मुताबिक अकेले उत्तर प्रदेश में करीब डेढ़ लाख शुष्क शौचालय हैं। ये वे आंकड़े हैं जो स्वयं जिला प्रशासन ने सरकार को भेजे हैं। वे आंकड़े 2011 की जनगणना के आधार पर तैयार किए गए हैं।
मोनेक्स कार्यक्रम
Posted on 18 Oct, 2013 10:57 AM

मोनेक्स कार्यक्रम में पृथ्वी की ओर जाने वाले सौर विकिरणों तथा पृथ्वी से परावर्तित होने वाले विक

मानसून और लोकवाणी
Posted on 18 Oct, 2013 10:53 AM यह तथ्य है कि कृषि प्रधान देश भारत गाँवों में बसता है, जहां लोगों का मुख्य धंधा खेतीबाड़ी करना है। जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, कहावतों का अधिक प्रचलन गाँवों में है। इसलिए स्वाभाविक है कि कृषि संबंधी ऐसी अधिक कहावतें कही जाती हैं जिनका संदर्भ वर्षा अथवा सूखा से होता है। ऐसी अधिकांश कहावतें घाघ और भड्डरी के नाम से कही गई है। कई इलाकों में सिंचाई सुविधाओं के अभाव से वर्षा का महत्व अधिक बढ़ जाता
मौसम वैज्ञानिक यंत्र और उनका उपयोग
Posted on 17 Oct, 2013 10:09 AM सभ्यता के विकास के साथ पूरे विश्व में वैज्ञानिक प्रगति हो रही है। क
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