सीत मिश्रा

सीत मिश्रा
कलंक ढो रही प्रथा
Posted on 18 Oct, 2013 11:22 AM
भारत के कई राज्यों में अब भी मैला ढोने की प्रथा जारी है। दो बार कानून बनने और करोड़ों रुपए खर्च होने के बावजूद इस दिशा में पूरी सफलता नहीं मिल पाई। सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी इसे लेकर काफी चिंतित हैं। मामले की पड़ताल कर रही हैं सीत मिश्रा।

सरकार ने तमाम आंदोलन और जनदबाव के बाद 1993 में एक कानून बनाकर सिर पर मैला प्रथा को खत्म करने की कोशिश की थी, लेकिन वह कानून नाकाफी सिद्ध हुआ। इसमें मैला ढोने के तरीकों को स्पष्ट नहीं किया गया था। उसमें केवल शुष्क शौचालयों को शामिल किया गया था। जबकि मैला साफ करने के कई और तरीके हैं, जो बेहद अमानवीय हैं। ओपेन ड्रेन, सेप्टिक टैंक में सफाई, रेलवे ट्रैक पर बिखरे मल को साफ करना, सीवर की सफाई करना वगैरह। 1993 में बने कानून के बेअसर होने की वजह से सरकार एक बार फिर जनदबाव के सामने झुकी। ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में भारत एक महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहा है तब यह जानना कितना दुखद है कि देश में करीब डेढ़ लाख लोग अब भी सिर पर मैला ढोकर अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक इस प्रथा में लगे लोगों की संख्या इससे कहीं ज्यादा हैं। इस कुप्रथा को बनाए रखने में कई तरह की राजनीतिक और सामाजिक शक्तियां जिम्मेदार हैं। वैसे तो देश में कई राज्यों ने इस क्षेत्र में अच्छा काम भी किया है, लेकिन आठ से ज्यादा राज्य अभी भी इस शाप से मुक्त नहीं हो पाए हैं। सबसे ज्यादा खराब स्थिति हिंदी पट्टी के राज्यों की है। इसमें भी सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में आज भी सबसे ज्यादा लोग मैला प्रथा में लगे हैं। केंद्र सरकार ने निर्मल भारत अभियान के तहत जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके मुताबिक अकेले उत्तर प्रदेश में करीब डेढ़ लाख शुष्क शौचालय हैं। ये वे आंकड़े हैं जो स्वयं जिला प्रशासन ने सरकार को भेजे हैं। वे आंकड़े 2011 की जनगणना के आधार पर तैयार किए गए हैं।
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