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मानव अस्तित्व और पर्यावरण
Posted on 21 Mar, 2016 01:19 PM

अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार कुल भू-भाग के कम से कम एक-तिहाई क्षेत्र में वन होने चाह

जुगाड़ तो देखिए, मिस्ड कॉल से सींच लेते हैं खेत
Posted on 21 Mar, 2016 01:03 PM
खरसाण के देवीलाल दो किमी दूर घर से ऑन-ऑफ करते हैं कुँए की मोटर, नहीं जाना पड़ता है खेतों तक
जाओ, मगर सानंद नहीं, जी डी बनकर - अविमुक्तेश्वरानंद
Posted on 20 Mar, 2016 04:27 PM


स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद -10वाँ कथन आपके समक्ष पठन, पाठन और प्रतिक्रिया के लिये प्रस्तुत है:

एक अभियान बने भारतीय जल दर्शन
Posted on 20 Mar, 2016 03:20 PM

22 मार्च, 2016 -विश्व जल दिवस पर विशेष



यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमेव सुखम।
भूमा त्वेव विजिज्ञासित्वयः।।


विश्व जल दिवसहम जगत के प्राणी जो कुछ भी करते हैं, उसका उद्देश्य सुख है। किन्तु हम यदि जानते ही न हों कि सुख क्या है, तो भला सुख हासिल कैसे हो सकता है? यह ठीक वैसी ही बात है कि हम प्रकृति को जाने बगैर, प्रकृति के कोप से बचने की बात करें; जल और उसके प्रति कर्तव्य को जाने बगैर, जल दिवस मनायें। संयुक्त राष्ट्र संघ ने नारा दिया है: ‘लोगों के लिये जल: लोगों के द्वारा जल’। उसने 2016 से 2018 तक के लिये विश्व जल दिवस की वार्षिक विषय वस्तु भी तय कर दी हैं: वर्ष 2016 - ‘जल और कर्तव्य’; वर्ष 2017 - ‘अवजल’ अर्थात मैला पानी; वर्ष 2018 - ‘जल के लिये प्रकृति आधारित उपाय’। अब यदि हम इन विषय-वस्तुओं पर अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहते हैं, तो हमें प्रकृति, जल, अवजल और अपने कर्तव्य को जानना चाहिए कि नहीं?

बेकार हो गई है सोन नहर
Posted on 19 Mar, 2016 04:06 PM
मध्य प्रदेश में अमरकंटक की पहाड़ियों से निकली सोन नदी उत्तर प
पर्वतीय क्षेत्र विकास आयोजना
Posted on 19 Mar, 2016 03:38 PM
पर्वतीय क्षेत्रों में वचनों की कटाई तथा भू-क्षरण का पर्यावरण पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। इन दोनों समस्याओं के कारण जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। बाढ़ में वृद्धि होती जा रही है, अनाजों की उत्पत्ति में गिरावट आ रही है। पशुओं द्वारा विशेष रूप से भेड़-बकरियों द्वारा चराई, भवनों, सड़कों, बाँधों, बड़े तथा मध्यम उद्योगों के अनियंत्रित निर्माण तथा खनन आदि कुछ अन्य कारण है जिनसे पर्वतीय क्षेत्रों में पर्याव
भारतीय वनों का समग्र मूल्यांकन
Posted on 19 Mar, 2016 01:08 PM
वन ‘आदि-संस्कृतियों’ के लिये वरदान थे इसीलिये भारत की प्राचीन संस्कृति को ‘अरण्य संस्कृति’ के नाम से भी जाना जाता था। वनों की गोद में उपजी और पर्यावरण के अति निकट-सहचर्य में पल्लवित तथा पुष्पित संस्कृति का स्वरूप आज इतना विकृत हो गया है कि पहाड़ों की पीठ पर उगे जंगल धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। जबकि वन जीवन के लिये अपरिहार्य हैं। लेखक का कहना है कि किसी भी देश की वन सम्पदा उस देश के
तब लुप्त नहीं होगी कोई सरस्वती
Posted on 18 Mar, 2016 01:32 PM
नदी संस्कृति के मामले में भारत कभी विश्व का सिरमौर था। संसार के किसी भी क्षेत्र की तुलना में सर्वाधिक नदियाँ हिमालय अधिष्ठाता शिव की जटाओं से निकलकर भारत के कोने-कोने को शस्य-श्यामला बनती रही हैं। तमाम नदियाँ करोड़ों लोगों की जीवन का सेतु और आजीविका का स्थायी स्रोत होने के साथ-साथ जैव विविधता, पर्यावरणीय और पारिस्थितिक सन्तुलन की मुख्य जीवनरेखा रही हैं।

ऋग्वेद में वर्णित सरस्वती नदी भी इनमें से एक थी। करीब पाँच हजार वर्ष पहले सरस्वती के विलुप्त होने के कारण चाहे कुछ भी रहे हों, लेकिन सरस्वती की याद दिलाने वाले इस पावन स्रोत को करोड़ों-करोड़ लोग आज भी गुनगुनाते हैं।
धरती के बढ़ते तापमान से संकट में है इंसानी अस्तित्व
Posted on 17 Mar, 2016 04:08 PM


इस साल जनवरी खत्म होते-होते मौसम ने अचानक तेवर बदल दिये। दिल्ली वाले इन्तजार ही करते रहे कि इस साल कड़ाके की ठंड व कोहरा कब पड़ेगा कि शरीर आधी बाँह की शर्ट के लिय मचलने लगा। और फिर मार्च शुरू होते ही जब उम्मीद थी कि अब मौसम का रंग सुर्ख होगा, फसल ठीक से पकेगी; उसी समय बादल बरस गए और ओलों ने किसानों के सपने धराशाही कर दिये।

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