काका कालेलकर

काका कालेलकर
मूल त्रिवेणी
Posted on 21 Oct, 2010 10:26 AM
ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों मिलकर जिस तरह दत्तात्रेय जी बनते हैं, उसी तरह अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी मिलकर गंगामैया बनती हैं। ये तीनों गंगा की बहनें नहीं हैं, बल्कि गंगा के अंग हैं।ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों मिलकर जिस तरह दत्तात्रेय जी बनते हैं, उसी तरह अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी मिलकर गंगामैया बनती हैं। ये तीनों गंगा की बहनें नहीं हैं, बल्कि गंगा के अंग हैं। भागीरथी भले गंगोत्री से आती हो, तो भी मंदाकिनी का केदारनाथ और अलकनंदा का बद्रीनारायण भी गंगा के ही उद्गम है।
ब्रह्मकपाल से होकर जो अलकनंदा बहती है और वहां एक बार श्राद्ध करने से जो अशेष पूर्वजों को एक साथ हमेशा के लिए मुक्ति देती है उस अलकनंदा का उद्गम स्थान क्या गंगोत्री से कम पवित्र है?
यमुना रानी
Posted on 20 Oct, 2010 10:06 AM
एक काव्य-हृदयी ऋषि वहां यमुना के किनारे रहकर हमेशा गंगास्नान के लिए जाया करता था। किन्तु भोजन के लिए वापिस यमुना के ही घर आ जाता था। जब वह बूढ़ा हुआ-ऋषि भी अंत में बूढ़े होते हैं-तब उसके थके मांदे पांवों पर तरस खाकर गंगा ने अपना प्रतिनिधि रूप एक छोटा-सा झरना यमुना के तीर पर ऋषि के आश्रम में भेज दिया। आज भी वह छोटा सा सफेद प्रवाह उस ऋषि का स्मरण कराता हुआ बह रहा है।हिमालय तो भव्यता का भंडार है। जहां-तहां भव्यता को बिखेरकर भव्यता की भव्यता को कम करते रहना ही मानो हिमालय का व्यवसाय है। फिर भी ऐसे हिमालय में एक ऐसा स्थान है, जिसकी ऊर्जस्विता हिमालय वासियों का भी ध्यान खींचती हैं। यह है यमराज की बहन का उद्गम-स्थान।

ऊंचाई से बर्फ पिघलकर एक बड़ा प्रपात गिरता है। इर्द-गिर्द गगनचुंबी नहीं, बल्कि गगनभेदी पुराने वृक्ष आड़े गिरकर गल जाते हैं। उत्तुंग पहाड़ यमदुतों की तरह रक्षण करने के लिए खड़ें हैं। कभी पानी जमकर बर्फ बन जाता है, और कभी बर्फ पिघलकर उसका बर्फ के जितना ठंडा पानी बन जाता है। ऐसे स्थान में जमीन के अंदर से एक अद्भुत ढंग से उबलता हुआ पानी उछलता रहता है। जमीन के भीतर से ऐसी आवाज निकलती है।
गंगा मैया
Posted on 20 Oct, 2010 09:10 AM
हिन्दुस्तान में अनगिनत नदियां है, इसलिए संगमों का भी कोई पार नहीं हैं। इन सभी संगमों में हमारे पुरखों ने गंगा-यमुना का यह संगम सबसे अधिक पसन्द किया है, और इसीलिए उसका ‘प्रयागराज’ जैसा गौरवपूर्ण नाम रखा है। हिन्दुस्तान में मुसलमानों के आने के बाद जिस प्रकार हिन्दुस्तान के इतिहास का रूप बदला, उसी प्रकार दिल्ली-आगरा और मथुरा-वृन्दावन के समीप से आते हुए यमुना के प्रवाह के कारण गंगा का स्वरूप भी प्रयाग के बाद बिलकुल बदल गया है। गंगा कुछ भी न करती, सिर्फ देवव्रत भीष्म को ही जन्म देती, तो भी आर्य-जाति की माता के तौर पर वह आज प्रख्यात होती। पितामह भीष्म की टेक, भीष्म की निःस्पृहता, भीष्म का ब्रह्मचर्य और भीष्म का तत्त्वज्ञान हमेशा के लिए आर्यजाति का आदरपात्र ध्येय बन चुका है। हम गंगा को आर्यसंस्कृति के ऐसे आधारस्तंभ महापुरुष की माता के रूप में पहचानते हैं।

नदी को यदि कोई उपमा शोभा देती है, तो वह माता की ही। नदी के किनारे पर रहने से अकाल का डर तो रहता ही नहीं। मेघराजा जब धोखा देते हैं तब नदी माता ही हमारी फसल पकाती है। नदी का किनारा यानी शुद्ध और शीतल हवा। नदी के किनारे-किनारे घूमने जायें तो प्रकृति के मातृवात्सल्य के अखंड प्रवाह का दर्शन होता है। नदी बड़ी हो और उसका प्रवाह धीरगंभीर हो, तब तो उसके किनारे पर रहनेवालों की शानशौकत उस नदी पर ही निर्भर करती है। सचमुच नदी जन समाज की माता है।
सागर-सरिता का संगम
Posted on 19 Oct, 2010 11:11 AM
प्याज या कैबेज (पत्तागोभी) हाथ में आने पर फौरन उसकी सब पत्तियां खोलकर देखने की जैसे इच्छा होती है, वैसे ही नदी को देखने पर उसके उद्गम की ओर चलने की इच्छा मनुष्य को होती ही है। उद्गम की खोज सनातन खोज है। गंगोत्री, जमनोत्री और महाबलेश्वर या त्र्यंबक की खोज इसी तरह हुई है।छुटपन में भोज और कालिदास की कहानियां पढ़ने को मिलती थीं। भोज राजा पूछते हैं, “यह नदी इतनी क्यों रोती है?” नदी का पानी पत्थरों को पार करते हुए आवाज करता होगा। राजा को सूझा, कवि के सामने एक कल्पना फेंक दे; इसलिए उसने ऊपर का सवाल पूछा। लोककथाओं का कालिदास लोकमानस को जंचे ऐसा ही जवाब देगा न? उसने कहा, “रोने का कारण क्यों पूछते हैं, महाराज? यह बाला पीहर से ससुराल जा रही है। फिर रोयेगी नहीं तो क्या करेगी?” इस समय मेरे मन में आया, “ससुराल जाना अगर पसन्द नहीं है तो भला जाती क्यों है?” किसी ने जवाब दिया, “लड़की का जीवन ससुराल जाने के लिए ही है।”

मुला-मुठा का संगम
Posted on 19 Oct, 2010 11:05 AM
महाराष्ट्र की नदियों में तीन नदियों से मेरी विशेष आत्मीयता है। मार्कण्डी मेरी छुटपन की सखी, मेरे खेतिहर जीवन की साक्षी, और मेरी बहन आक्का की प्रतिनिधि है। कृष्णा के किनारे तो मेरा जन्म ही हुआ। महाबलेश्वर से लेकर बेजबाड़ा और मछलीपट्टम तक का उसका विस्तार अनेक ढंग से मेरे जीवन के साथ बुना हुआ है। नदियां तो हमारी बहुत देखी हुई होती हैं पर दो नदियों का संगम आसानी से देखने को नहीं मिलता। संगम काव्य ही अलग है।

जब दो नदियां मिलती हैं तब अक्सर उनमें से एक अपना नाम छोड़कर दूसरी में मिल जाती है। सभी देशों में इस नियम का पालन होता हुआ दिखाई देता है। किन्तु जिस प्रकार कलंक के बिना चंद्र नहीं शोभता, उसी प्रकार अपवाद के बिना नियम भी नहीं चलते। और कई बार तो नियम की अपेक्षा अपवाद ही ज्यादा ध्यान खींचते हैं। उत्तर अमरीका की मिसिसिपी-मिसोरी अपना लंबा-चौड़ा सप्ताक्षरी नाम द्वंद्व समास से धारण करके संसार की सबसे लंबी नदी के तौर पर मशहूर हुई है। सीता-हरण से लेकर विजयनगर के स्वातंत्र्य-हरण तक के इतिहास को याद करती तुंगभद्रा भी तुंगा और भद्रा के मिलने से अपना नाम और बड़प्पन प्राप्त कर सकी है।
कृष्णा के संस्मरण
Posted on 18 Oct, 2010 01:17 PM
कृष्णा का कुटुम्ब काफी बड़ा है। कई छोटी-बड़ी नदीयां उससे आ मिलती हैं। गोदावरी के साथ-साथ कृष्णा को भी हम ‘महाराष्ट्र-माता’ कह सकते हैं। जिस समय आज की मराठी भाषा बोली नहीं जाती थी, उस समय का सारा महाराष्ट्र कृष्णा के ही घेरे के अंदर आता था।एकादशी का दिन था। गाड़ी में बैठकर हम माहुली चले। महाराष्ट्र की राजधानी सातारा से माहुली कुछ दूरी पर है। रास्ते में दाहिनी तरफ श्री शाहु महाराज के वफादार कुत्ते की समाधि आती है। रास्ते पर हमारी ही तरह बहुत से लोग माहुली की तरफ गाड़ियां दौड़ा रहे थे। आखिर हम नदी के किनारे पहुंचे। वहां इस पार से उस पार तक लोहे की एक जंजीर ऊंची तनी हुई थी। उसमें रस्सी से एक नाव लटकाई गई थी, जो मेरी बाल-आंखों को बड़ी ही भव्य मालूम होती थी।

सखी मार्कण्डी
Posted on 18 Oct, 2010 11:41 AM
आगे जाकर जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगा तब इम्तहान के बाद हमारी भैयादूज होती है। फसल काटने के दिन होते। दो-दो दिन खेत में ही बिताने पड़ते। तब मार्कण्डी मुझे शकरकंद भी खिलाती और अमृत जैसा पानी भी पिलाती। जब यह देखने के लिए मैं जाता कि रात को ठंड के मारे वह कांप तो नहीं रही है, तब अपने आइने में वह मुझे मृगनक्षत्र दिखाती।क्या हरएक नदी माता ही होती है? नहीं। मार्कण्डी तो मेरी छुटपन की सखी है। वह इतनी छोटी है कि मैं उसे अपनी बड़ी बहन भी नहीं कह सकता।

बेलगुंदी के हमारे खेत में गूलर के पेड़ के नीचे दुपहर की छाया में जाकर बैठूं तो मार्कण्डी का मंद पवन मुझे जरूर बुलायेगा। मार्कण्डी के किनारे मैं कई बार बैठा हूं, और पवन की लहरों से डोलती हुई घास की पत्तियों को मैंने घंटों तक निहारा है। मार्कण्डी के किनारे असाधारण अद्भुत कुछ भी नहीं है। न कोई खास किस्म के फूल हैं, न तरह-तरह के रंगों की तितलियां हैं। सुन्दर पत्थर भी वहां नहीं हैं। अपने कलकूजन से चित्त को बेचैन कर डाले ऐसे छोटे-बड़े प्रपात भला वहां कहां से हों? वहां है केवल स्निग्ध शांति।

गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति! नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
Posted on 25 Aug, 2010 10:42 AM

नदी, पहाड़, पर्वत श्रेणी और उसके उत्तुंग शिखरों से तथा इन सबसे ऊपर चमकने वाले तारों से परिचय बढ़ाकर हमें भारत-भक्ति में अपने पूर्वजों के साथ होड़ चलानी चाहिए। हमारे पूर्वजों की साधना के कारण गंगा के समान नदियां, हिमालय के समान पहाड़, जगह-जगह फैले हुए हमारे धर्म क्षेत्र, पीपल या बड़ के समान महावृक्ष, तुलसी के समान पौधे, गाय जैसे जानवर, गरुड़ या मोर के जैसे पक्षी, गोपीचंदन या गेरू के जैसी मिट्टी के प्रकार- सब जिस देश में भक्ति और आदर के विषय बन गये हैं, उस देश में संस्कारों की भावनाओं की समृद्धि को बढ़ाना हमारे जमाने का कर्तव्य है। हम अपने प्रिय-पूज्य देश को साहित्य द्वारा और दूसरे अनेक रचनात्मक कामों से सजाएंगे और नयी पीढ़ी को भारत-भक्ति की दीक्षा देंगे” (काका कालेलकर)

जीवन और मृत्यु दोनों में आर्यों का जीवन नदी के साथ जुड़ा है। उनकी मुख्य नदी तो है गंगा। यह केवल पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग में भी बहती है और पाताल में भी बहती है। इसीलिए वे गंगा को त्रिपथगा कहते हैं।

जो भूमि केवल वर्षा के पानी से ही सींची जाती है
कटि –मेखला, विंध्य-सतपुड़ा
Posted on 19 Feb, 2011 01:26 PM
विंध्य और सतपुड़ा नर्मदा के बलवान् रक्षक है। इन दोनों ने मिलकर नर्मदा को उसका जल भी दिया है और उसका रक्षण भी किया है। ये दोनों पहाड़ नर्मदा के अति निकट होने के कारण नर्मदा को न अपना पात्र बदलने का मौका मिला है, न अपने पानी के आशीर्वाद से दूर-दूर तक खेती करने की जमीन उसे मिली है।
सरिता संगम-संस्कृति
Posted on 28 Feb, 2010 07:48 AM
जो भूमि केवल वर्षा के पानी से ही सींची जाती है और जहां वर्षा के आधार पर ही खेती हुआ करती है , उस भूमि को ‘देव मातृक’ कहते है, इसके विपरीत, जो भूमि इस प्रकार वर्षा पर आधार नहीं रखती, बल्कि नदी के पानी से सींची जाती है और निश्चित फसल देती है, उसे ‘नदी मातृक’ कहते हैं। भारतवर्ष में जिन लोगों ने भूमि के इस प्रकार दो हिस्से किए, उन्होंने नदी को कितना महत्व दिया था, यह हम आसानी से समझ सकते है। पंजाब का
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