गार्गी मिश्रा
12 वर्षीय निशिता को स्कूल में जब पहली बार मासिक धर्म आया तो क्लास के सभी स्टूडेंट्स ने उसका हंस कर खूब मजाक उड़ाया। निशिता पिछले दो महीने से अवसाद में जी रही है। एक छोटे से कस्बे की रहने वाली प्रियांशी जब पहली बार इस प्रक्रिया से अवगत हुई तो मन ही मन यह सोच कर सहम गई कि कैंसर जैसी किसी घातक बीमारी का शिकार हो गई है। हमारे समाज में न जाने ऐसी कितनी निशिता और प्रियांशी मिलेंगी, जो अपने शरीर में होने वाले इस सकारात्मक बदलाव के बारे में कुछ नहीं जानतीं और माहवारी को लेकर हीम भावना और गलत अवधारणाओं की शिकार रहती हैं। स्त्रियों के शरीर से जुड़ी प्रक्रिया जिसे मासिक धर्म, माहवारी या अंग्रेजी में मेन्सट्टयूरेशन कहते हैं, एक ऐसी प्रक्रिया है, जिससे हर एक स्त्री अपने जीवन काल में गुजरती है और यही उसके मातृत्व के परिचायक गुणों में प्रमुख एवं अनिवार्य है।
जब एक स्त्री माहवारी की प्रक्रिया से गुजरती है तो शर्मिंदगी के चलते लोगों की नहीं बता पाती कि उसे दर्द हो रहा है। उसे टेम्पॉन्स और नैपकिंस को छिपाना पड़ता है।
मासिक धर्म से जुड़ी वर्जनाएं स्त्रियों की मानसिक एवं शारीरिक स्वतन्त्रता के लिए एक बड़ा अवरोधक है। वैसे यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम किसी भी विचार को कब और कैसी दिशा देंगे। कई दशक पहले गाँव-देहात की महिलाओं को जहाँ रोजमर्रा के कामों में काफी शारीरिक श्रम करना पड़ता था, ऐसे में जिन दिनों वे मासिक धर्म से गुजरती थीं, उस समय उन्हें रसोई और घर के कामों से दूर रखा जाता था कि इस बहाने वे कुछ वक्त अपने शरीर को आराम दे सकें। लेकिन इस मानसिकता को हमारे समाज ने एक मानवतापूर्ण एवं वैज्ञानिक दिशा देने की अपेक्षा इस घटनाक्रम को स्त्री की पवित्रता और अपवित्रता से जोड़कर एक ‘सोशल टैबू’ का आकार दे दिया।
किन समस्याओं का सामना कर रही हैं स्त्रियाँ
मासिक धर्म से जुड़ी वर्जनाओं से सिर्फ भारतीय समाज की महिलाएं ही पीड़ित नहीं हैं, बल्कि विदेशों में भी मासिक धर्म से जुड़ी गलत अवधारणाओं को देखा गया है।भारत के बहुत से हिस्सों खासकर गाँवों और आदिवासी इलाकों में अब भी स्त्रियों को मासिक धर्म के दौरान एक अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए सैनेटरी नैपकिंस उपलब्ध नहीं हैं। वे इस प्रक्रिया से गुजरने के लिए कपड़े, रेत और पेड़ की पत्तियों का इस्तेमाल करती हैं, जो उनकी सेहत के लिए बेहद हानिकारक हैं। स्वास्थ्यकर न होने के कारण स्त्रियों और किशोरियों में किसी अन्य रोग के होने की आशंका बहुत ज्यादा बढ़ जाती है।
हमारे समाज में आज भी महिलाएं काफी हद तक पुरूषों पर निर्भर हैं। कई घरों में पुरूष घर की महिलाओं को मासिक धर्म में इस्तेमाल होने वाले सैनेटरी नैपकिंस खरीदने के लिए आर्थिक सहयोग नहीं करते ।
लड़कियां एवं महिलाएं किसी केमिस्ट की दुकान पर जाकर सेनेटरी नैपकिंस आसानी से नहीं खरीद पातीं। उन्हें बहुत ही संकोच के साथ अपनी आवश्यकता बतानी पड़ती है और सबसे छिपा कर उसे लाना होता है।
यदि महिलाओं को सैनेटरी नैपकिंस उपलब्ध हो भी जाते हैं तो हमारे समाज में बहुत-सी ऐसी स्त्रियां हैं, जो अपने ही शरीर से पूरी तरह से वाकिफ ही नहीं हैं और उन्हें सैनेटरी नैपकिंस इसेतेमाल करने के तरीके नहीं आते। उनकी परवरिश इतने पर्दे में की जाती है कि वे संकोच के चलते इसके सही इस्तेमाल के बारे में जानने का प्रयास भी नहीं करतीं। नतीजा, यह होता है कि उपलब्धता होते हुए भी वे परेशान रहती हैं और यही परेशानी अगली पीढ़ी को देती हैं।
क्या हैं मासिक धर्म से जुड़े टैबू
एक लड़की के मानसिक विकास के लिए बेहद जरूरी है कि वह अपने शरीर और उससे जुड़े परिवर्तनों के बारे में सकारात्मक सोच के तहत जागरूक हो। किन्तु यह दुखद है कि हमारे समाज में इसकी विपरीत स्थिति है। एक लड़की जब मासिक धर्म के चक्र से पहली बार अवगत होती है तो उसके मन में घर की स्त्रियों द्वारा ही कई तरह की भ्रान्तियां पैदा कर दी जाती हैं। उदाहरण के तौर पर….
1. मासिक धर्म की अवधि के दौरान उन्हें परिवार के पुरूषों से दूर रहना है, जिसमें उन्हें पानी और भोजन परोसने से लेकर उनके कपड़ों और रोजमर्रा की चीजों को छूना मना किया जाता है।
2. मासिक धर्म के दौरान एक स्त्री दूषित या अपवित्र होती है। इसलिए पूजा एवं हवन के कार्यों से दूर रखा जाता है। यह एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से हमारे मन्दिरों में महिलाओं को पुजारी को तौर पर नहीं देखा जाता, क्योंकि मासिक धर्म के दौरान वे अपवित्र मानी जाती हैं।
3. रसोई में भोजन बनाने अथवा किसी भी तरह के काम जो रसोई से जुड़े हों, उनसे भी मासिक धर्म की अवधि के दौरान स्त्रियों को वर्जित रखा जाता है। ऐसे रूढ़िवादी विचार सिर्फ गाँव-देहातों में नहीं, बल्कि शहरी माहौल मे भी पाए जाते हैं।
4. प्राचीन समय में स्त्रियों के मासिक धर्म के दौरान उन्हें अपने घर से दूर अलग किसी झोपड़ी में रहने के नियम कायम थे। आज भी कई घरों में लड़कियों के बिस्तर और उनकी जरूरत की चीजों को घर के किसी एक कोने में रखा जाता है, जिससे वे पूरे घर को ‘अपवित्र’ करने से बची रहें।
दुनिया ने सुनी रूपी की आवाज
स्त्री किसी भी मूल या प्रान्त की हो, चाहे कैसी भी शिक्षा प्राप्त कर रही हो, अगर वह अपनी सोच से, अपने कर्मों से समाज में फैली रूढ़ियों को तोड़ने का प्रयास करे तो उसे इस प्रयास को जन-जन तक पहुँचाने से कोई नहीं रोक सकता। इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, कनाडा में रहने वाली भारतीय मूल की रूपी कौर।
हाल ही सोशल मीडिया पर एक तस्वीर ने खलबली मचाई और तस्वीर जिस विषय से जुड़ी थी, वह है हमारे समाज में फैले मासिक धर्म के नाम पर रूढ़ियाँ। रूपी कौर ने अपनी यूनिवर्सिटी के प्रोजेक्ट ‘पीरियड्स’ को पूरा करने के लिए बहन प्रभा कौर के साथ माहवारी के दौरान अपने कपड़ों और बिस्तर की तस्वीरें लीं। जिसे उन्होंने इंस्टाग्राम पर शेयर किया और उसका नतीजा यह हुआ कि इंस्टाग्राम ने उस तस्वीर को यह कह कर हटा दिया कि वह तस्वीर उनकी कम्युनिटी गाइडलाइन्स का उल्लंघन कर रही है।
रूपी ने वेबसाइट के इस फैसले को चुनौती दी और फिर वेबसाइट की अथॉरिटीज ने रूपी से माफी माँग कर कहा कि रूपी ने इस तस्वीर को पोस्ट कर के किसी भी गाइडलाइन का उल्लंघन नहीं किया है। रूपी के इस कदम से उन्हें जान से मार देने की धमकियाँ भी मिलीं, लेकिन वक्त के कुछ पहरों में ही रूपी की यह तस्वीर पूरी दुनिया में वायरल चुकी थी। माहवारी की तस्वीर साझा करने के पीछे रूपी का जो बयान सामने आया जो कि हर स्त्री, लड़की और महिला के लिए एक प्रेरणास्रोत है और साथ ही माहवारी की रुढ़ियों से ग्रसित समाज पर गहरा कटाक्ष भी। रूपी अपनी वेबसाइट भी बना चुकी हैं।
झिझक हर जगह
एडवर्टाइजिंग जगत में भी सैनेटरी नैपकिंस के इस्तेमाल को लेकर झिझक-सी दिखाई देती है। विज्ञापन में पैड पर ब्लू लिक्विड को दिखाना इसका प्रमाण है। साल 2010 में ऑलवेज एडवर्टाइजिंग कम्पनी ने पहली बार एक सैनेटरी नैपकिन के विज्ञापन में मासिक धर्म को दर्शाने के लिए छोटे रेड स्पॉट को दिखाया था। बाद में लिओ बर्नेट द्वारा बनाए गए इस विज्ञापन का काफी विरोध किया गया। मॉय गर्ल, ओन्ली येसर्टडे और कैरी जैसी विदेशी फिल्मों में भी मासिक धर्म से जुड़े दृश्य दिखाए गए हैं, जिनमें लड़की को इस प्रक्रिया से जुड़ी नकारात्मक अवधारणाओं का सामना करते देखा गया है।
महिलाओं के लिए वरदान है मासिक धर्म
10 से 15 साल की लड़की के अण्डाशय हर महीने एक विकसित अण्डा उत्पन्न करना शुरू कर देते हैं। वह अण्डा अण्डावाहिनी नली या फैलोपियन ट्यूब के द्वारा नीचे जाता है जो कि अण्डाशय को गर्भाशय से जोड़ती है। जब अण्डा गर्भाशय में पहुँचता है तो उसका अस्तर रक्त और तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि यदि अण्डा उर्वरित हो जाए तो वह बढ़ सके और शिशु के जन्म के लिए उसके अस्तर में विकसित हो सके। यदि उस अण्डें का पुरुष के शुक्राणु से सम्मिलन न हो तो स्राव बन जाता है जो कि योनि से निष्कासित हो जाता है। इसी स्राव को मासिक धर्म या माहवारी या मेन्सट्टयूरल साइकल कहते हैं। मासिक धर्म की प्रक्रिया एक स्त्री के शारीरिक विकास और अच्छे स्वास्थ्य की सूचक है। हमें यह समझने की जरूरत है कि एक स्त्री के लिए जितना महत्वपूर्ण मातृत्व सुख है, उतना ही जरूरी मासिक धर्म भी है।
क्यों मचा हंगामा
रूपी कौर के मुताबिक, ‘मैं यही देखते-समझते हुए बड़ी हुई हूँ कि हल्के रंग की पैंट पर मासिक धर्म के निशान दिख जाने से बड़ी शर्मिंदगी एक स्त्री के लिए कुछ भी नहीं है। लोग बहुत-सी ऐसी चीजें आसानी से देख लेते हैं, जिसमें खून बहा हो लेकिन एक स्त्री के मासिक धर्म चक्र के दौरान ‘लीक’ हुए धब्बे को देखकर असहज हो जाते हैं। अगर हमारे साथ कोई चीज हो रही है तो हम उसके बारे में झूठ क्यों बोलें। मेरी मंशा थी कि मैं महिलाओं के मासिक धर्म से जुड़ी वर्जनाओं को तोड़ने की कोशिश करूँ। जिस तस्वीर को लेकर इतना हंगामा हुआ वो मैंने अपने कोर्स के तहत प्रोजेक्ट के लिए तैयार की थी। मेरे सभी साथियों को यह बेहद पसन्द आईं लेकिन मैं समझना चाहती थी कि असल दुनिया में लोग इस पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। तब मैंने इसे इंस्टाग्राम और टंबलर पर डाला। जैसे ही मैंने यह तस्वीर पोस्ट की तो हंगामा मच गया। मुझे ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी। इस सब के बावजूद मैं अपनी बात पर कायम हूँ। मैंने अपनी बात रख दी है। अब दूसरी महिलाओं को आगे आकर आवाज बुलन्द करने की जरूरत है।’
उठने लगी है आवाज
समाज में फैले मासिक धर्म से जुड़े अनेक टैबू हैं और उनका मूल कारण स्त्री का शरीर और उनमें होने वाली एक सहज घटना है, पर आशा की किरण यहाँ दिखाई देती है कि इस टैबू को खत्म करने के प्रयास में स्त्रियाँ अब अपनी आवाज उठा रही हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर लेख, तस्वीरों एवं विचारों के माध्यम से इस रूढ़ि को समाप्त करने की एक जागरूक मुहिम की लहर-सी दिखाई देती है।
जहाँ एक ओर हमारे समाज में मासिक धर्म को लेकर रूढ़ियाँ कायम की गई हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे ही समाज में ऐसी कई जनजातियाँ हैं, जिनमें लड़कियों के प्रथम मासिक धर्म को रूठू सदंगू नामक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। वार्षिक रूप से मनाए जाने वाला यह आठ दिवसीय उत्सव उन तमाम लड़कियों के लिए होता है, जो उस वर्ष कन्या से किशोरी या स्त्री बनने का प्रथम चरण पार करती हैं। इन पारिवारिक उत्सवों में माता-पिता दोनों ही पक्ष के लोग और उन लड़कियों की सहेलियाँ भी शामिल होती हैं। कुमकुम और आम के पत्तों से घर को सजाया जाता है। लड़की को हल्दी के विशेष जल से नहलाया जाता है और फिर सजाया जाता है। कुछ रीति-रिवाजों के बाद शृंगार के सभी प्रसाधन, वस्त्र, उपहार और पैसे लड़की को भेंट किए जाते हैं। यह लगभग उसी तरह का अनुष्ठान होता है, जैसे हमारे सभ्य समाजों में जन्मदिन मनाया जाता है। इन जनजातियों के लिए यह अवसर लड़की का दूसरा जन्म माना जाता है। इस उत्सव के माध्यम से यह मान लिया जाता है कि उनके समुदाय में एक और कन्या ने स्त्रीत्व के गुणों को प्राप्त कर लिया है। इसलिए वे अपने समुदाय की लड़कियों का धन्यवाद ज्ञापन करते हैं। भारत के बाहर मोरोक्को में भी इस प्रकार की प्रथा है। जापान में विशेष प्रकार के भोजन द्वारा पारिवारिक स्तर पर इसे स्वीकार किया जाता है।
साल 2009 में आई एलिसा स्टेन और किम की किताब ‘फ्लो’ और साल 2010 में आई क्रिस बॉबेल की किताब ‘न्यू ब्लड-थर्ड वेव फेमेनिज्म एण्ड पॉलिटिक्स ऑफ मेन्सट्यूरेशन’ में मासिक धर्म से जुड़े टैबू पर कड़ा कटाक्ष है।
मेन्सट्यूरल ऐक्टीविज्म के तहत कई फेमेनिस्ट्स ने मासिक धर्म से जुड़े टैबू पर आवाज उठाई है। फेमेनिस्ट शैला क्विंट ने एडवर्टाइजिंग जगत में फीमेल हाईजीन प्रोडक्टस को बिना किसी झिझक के दिखाने के लिए जॉइन एडवेन्चर्स को स्थापित किया। राशेल कॉडेर नालबफ ने अपनी किताब ‘मॉय लिटिल रेड बुक’ और जिओवाना चेस्लर ने अपनी डॉक्यूमेंट्री ‘पीरियड’ के माध्यम से समाज में मासिक धर्म से जुड़ी नकारात्मक अवधारणाओं को समाप्त करने का प्रयास किया।
हमारा समाज स्त्री और पुरुष नामक दो मजबूत व्यक्तित्वों से बना है। दोनों ही वर्ग में समानता और मनुष्यता कायम करने की जिम्मेदारी स्त्री और पुरुष दोनों की है। मासिक धर्म से जुड़ी रूढ़ियों को पूरी तरह से समाप्त करने का सपना तभी साकार किया जा सकता है, जब हर मनुष्य इस समस्या को जड़ से मिटाने की जिम्मेदारी ले
साभार : राजस्थान पत्रिका 8 अप्रैल 2015
/articles/yaha-sarama-kai-baata-nahain