ठोस कूड़े का निपटान

डॉ. ए.के. भट्टाचार्य

 

भारत की आबादी 1947 में 34.2 करोड़ थी जो 1991 में बढ़कर 84.6 करोड़ में से 22 करोड़ लोग करीब 40,00 शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। शहरी जनसंख्या के 40 प्रतिशत लोग बेहद गरीब हैं और झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों अथवा पटरियों पर रहते हैं। सुरक्षित पेयजल और सफाई की सुविधाएँ इनकी पहुँच से बाहर हैं।

 

अनुमान है कि सन 2000 तक भारत की जनसंख्या एक अरब से भी ज्यादा हो जाएगी। सन 2015 तक शहरी आबादी बढ़कर 47 करोड़ हो जाने की सम्भावना है। बीते वर्षों में शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में आवश्यक सेवाओं की उपलब्धता तथा जीवन स्तर में लगातार गिरावट आई है। बदलाव के इस दौर में शहरी इलाकों के गरीब लोगों पर सबसे बुरा असर पड़ा है। अगर विभिन्न क्षेत्रों में समन्वय और शहरी इलाकों में ठोस और द्रव दोनों तरह के कूड़े-कचरे को ठिकाने लगाने की उपयुक्त एवं अत्याधुनिक टेक्नोलाजी विकसित करने के लिए कदम नहीं उठाए गए तो जनसंख्या के बढ़ते घनत्व, सुरक्षित पेयजल की कमी और अपर्याप्त शहरी स्वच्छता के स्वास्थ्य तथा पर्यावरण सम्बन्धी दुष्परिणाम और भी गम्भीर हो जाने की आशंका है।

 

ठोस कूड़ा एक सामान्य शब्द है जिसका इस्तेमाल उत्पादन प्रक्रिया के दौरान पैदा होने वाले अनुपयोगी सह-उत्पादों के साथ-साथ ऐसी बेकार वस्तुओं के लिए भी किया जाता है जिनकी उनके मालिकों के लिए कोई उपयोगिता नहीं है। भौतिक रूप में ठोस कूड़े का मतलब सिर्फ वस्तुओं से नहीं है बल्कि किसी पात्र या कंटेनर में बन्द तरल या गैसीय पदार्थ भी इसके अन्तर्गत आ जाते हैं। जहाँ अनुपयोगी गैसें वातावरण में छोड़ दिया जाता है, वहीं ठोस कूड़ा-करकट तथा बेकार वस्तुएँ आमतौर पर ही छोड़ दी जाती हैं। इन पर गैसों और तरल पदार्थों से अलग कानून लागू होते हैं।

 

म्युनिसिपल सालिड वेस्ट यानी शहरी ठोस कूड़े का अर्थ ऐसी ठोस बेकार वस्तुओं से है जिनको इकट्ठा करने और निपटाने की जिम्मेदारी नगरपालिकाओं या स्थानीय शहरी निकायों की होती है। शहरी ठोस कूड़े का समुचित प्रबंध स्थानीय निकायों के महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों में से एक है। ठोस कूड़े की ठीक तरह से सफाई न होने के कारण ही अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं। शहरी ठोस कूड़े की ठीक से सफाई न होने के एक मामले में 1998 में दिल्ली में हैजे और पेचिश से करीब एक सौ लोग मारे गए थे

 

हमारी न्यायिक प्रणाली के सर्वोच्च स्तर यानी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48-क में कहा गया है कि राज्य पर्यावरण के संरक्षण और उनमें सुधार के प्रयास करेगा। इसमें स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि “राज्य पर्यावरण के संरक्षण और उसमें सुधार तथा देश के वनों और वन्य जीवन की सुरक्षा के प्रयास करेगा।”

 

कूड़े-करकट को ठिकाने लगाना जन-स्वास्थ्य की बुनियादी शर्त है। इसलिए संविधान के इस अनुच्छेद में कूड़े के सही निपटान की जिम्मेदारी राज्य को सौंपी गई है।

 

अगर जनसंख्या के बढ़ते घनत्व, सुरक्षित पेयजल की कमी और शहरी इलाकों में अपर्याप्त स्वच्छता जैसी बातों के स्वास्थ्य और पर्यावरण सम्बन्धी दुष्परिणामों को दूर करने के उपाय नहीं किए गए तो स्थिति और भी खराब हो सकती है। लेखक ने एक ऐसी राष्ट्रीय कार्ययोजना लागू करने की आवश्यकता पर जोर दिया है जिसमें सम्बन्धित विभाग एक-दूसरे के साथ तालमेल बना कर कार्य करें।

 

संघीय सरकार के स्तर पर ऐसा कोई कानून नहीं है जो ठोस कूड़े-कचरे के निपटान से सीधे सम्बन्धित हो। मगर भारत में पर्यावरण सम्बन्धी सभी कानून 1986 के पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत आते हैं। इस तरह ठोस कूड़ा-करकट भी इस कानून के दायरे में आ जाता है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम में विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले गन्दे पानी और धुएँ आदि की सीमा तय करने के साथ-साथ प्रदूषण सम्बन्धी कायदे-कानून तय कर दिए गए हैं। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम सिर्फ औद्योगिक कचरे तक सीमित है और इसमें शहरी ठोस कूड़े-करकट के लिए कोई प्रावधान नहीं है।

 

प्रत्येक राज्य का अपना जन स्वास्थ्य इंजीनियरी विभाग है जो पेयजल की आपूर्ती और स्वच्छता पर ध्यान देता है। ठोस कूड़े-करकट को ठिकाने लगाने की प्रणाली का संचालन आमतौर पर स्थानीय शहरी निकायों द्वारा किया जाता है। अक्सर स्थानीय निकाय कार्यक्रमों को लागू करने के लिए खुद पैसा नहीं जुटा पाते। इसलिए राज्य सरकारें उन्हें आर्थिक सहायता देकर इस कार्य में अपनी भागीदारी निभाती हैं।

 

ठोस कूड़े-करकट के निपटान के लिए स्थानीय स्तर पर तीन अलग-अलग संगठन हैं। पहला, जल आपूर्ती औऱ जल-मल बोर्ड। इस तरह के बोर्ड असम, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में गठित किए गए हैं। दूसरा, अलग नगरपालिका बोर्ड जिनका गठन बंगलौर, हैदराबाद और मद्रास में किया गया है। मुम्बई, दिल्ली और कलकत्ता जैसे बड़े महानगरों में निगम ठोस कूड़े-करकट के प्रबंध तथा इसी तरह के अन्य कार्यों की देखरेख करता है।

 

कुछ बड़े शहरों में ठोस कूड़े करकट के निपटान के लिए अलग से कानून बनाए गए हैं। मुम्बई नगरपालिका अधिनियम के सफाई और झाड़ू लगाने से सम्बन्धित अनुच्छेद में कहा गया है कि नगरपालिका निम्नलिखित वस्तुओं को फेंकने के लिए उपयुक्त किस्म के सार्वजनिक पात्र उपलब्ध कराएगी:

(क) धूल, राख, कूड़ा-करकट, बेकार वस्तुएँ

(ख) व्यवसायिक कूड़ा-करकट

(ग) मृत पशु और अन्य त्याज्य वस्तुएँ।

 

इसके साथ ही सभी इमारतों के रहने वालों और मालिकों को भी हिदायत दी गई है कि वे ऊपर बताई गई वस्तुओं में से (ग) को छोड़कर अन्य सभी चीजें अपनी इमारतों से इकट्ठा करके सार्वजनिक पात्रों में जमा करें। मुर्दा जानवरों को ठिकाने लगाने के लिए अलग अनुच्छेद है जिसमें उन्हें उठाने के लिए नगरपालिका को फौरन सूचना देने की व्यवस्था है। नगरपालिका को यह जिम्मेदारी भी सौंपी गई है कि वह समय-समय पर सार्वजनिक पात्रों से कूड़ा-करकट इकट्ठा कर उसे ठीक तरह से ठिकाने लगाए और पात्रों को ठीक हालत में रखे।

 

एक महत्वपूर्ण बात जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, यह है कि ग्रामीण जनसंख्या के मुकाबले भारत की शहरी आबादी काफी कम है। 1991 की जनगणना के अनुसार भारत के 84.4 करोड़ लोगों में से 21.7 करोड़ यानी कुल आबादी का 25.7 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में रहता है। हालाँकि शहरी आबादी में साल-दर-साल बढ़ोतरी हो रही है लेकिन भारत के हर चार लोगों में से केवल एक व्यक्ति शहरी इलाके में रहता है। ग्रामीण क्षेत्रों में ठोस कूड़े-करकट के निपटान सम्बन्धी आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए इन क्षेत्रों के बारे में गैर-संख्यात्मक विश्लेषण ही दिया जा सकता है।

 

कूड़े-करकट की उत्पत्ति

 

राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान, नागपुर के डाक्टर ए.डी. भिड़े ने घरों के कूड़े के साथ-साथ गलियों के कूड़े-करकट की भी शहरी ठोस कूड़े में गिनती की है। उन्होंने इसके अंतर्गत इन वस्तुओं को शामिल किया है:

 

1. प्राकृतिक कूड़ा: बेकार पड़ी जमीन से उड़ी धूल, मृत और सड़े-गले पेड़-पौधे, सड़कों और उनके आस-पास के इलाकों से उड़ कर आए बीज।

2. सड़क यातायात का कूड़ा: सड़कों की सतह और वाहनों की टूट-फूट तथा घिसावट से पैदा हुआ कूड़ा। विकासशील देशों में इस तरह के कूड़े में मिट्टी, वाहनों को खींचने वाले मवेशियों का गोबर और लीद, पेट्रोल, तेल और वाहनों में लदा सामान शामिल है।

3. आदतन कूड़ा: पैदल चलने वालों और मोटर-वाहनों के यात्रियों द्वारा फेंका गया कूड़ा।

 

नगरपालिकाओं द्वारा उठाए जाने वाले ठोस कूड़े-करकट में काफी बड़ी मात्रा इन वस्तुओं की भी होती है:-

(क) गलियों का कूड़ा: धूल, रेत, पत्थर, पत्तियाँ तथा मृत पेड़-पौधे।

(ख) बाजार का कूड़ा: दुकानों और बाजारों से निकलने वाले रद्दी कागज, गत्ते और स्ट्रा की बेकार पैकेजिंग सामग्री, सड़े-गले फल, सब्जियाँ तथा इसी प्रकार की बेकार चीजें।

(ग) अन्य: अस्पतालों, स्कूलों, आफिसों, छोटे/ कुटीर उद्योगों आदि से उत्पन्न ठोस कूड़ा।

 

भारत में आमतौर पर प्रति व्यक्ति कूड़ा उत्पादन 350 ग्राम माना जाता है परन्तु यह मात्रा 500 ग्राम से 300 ग्राम के बीच हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा महाराष्ट्र और गुजरात के कई शहरों में कराए गए अध्ययन के अनुसार शहरी ठोस कूड़े का प्रति व्यक्ति दैनिक उत्पादन 330 ग्राम से 420 ग्राम के बीच है। इस अध्ययन से एक महत्वपूर्ण बात यह सामने आई है कि शहरों और कस्बों के अलग-अलग आकार के बावजूद प्रति व्यक्ति उत्पादन में काफी समानता है। करीब दस लाख की आबादी वाले मुम्बई और सिर्फ 25 हजार आबादी वाले सानंद में प्रति व्यक्ति कूड़े के उत्पादन में सिर्फ 38 ग्राम का अन्तर है।

 

पूरे भारत में कुल कितना ठोस शहरी कूड़ा-करकट पैदा होता है इसका अनुमान लगाना असम्भव सा है। भारत में इस बारे में व्यापक प्रबंधकीय सर्वेक्षण केन्द्रीय लोक स्वास्थ्य और पर्यावरण अनुसंधान संस्थान ने 1971-73 में किया था। यह संस्थान राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान का पूर्ववर्ती है। यह सर्वेक्षण देश के 43 शहरों में किया गया और 22 प्रतिशत आबादी इसमें शामिल की गई। 20 साल से भी अधिक पहले किए गए इस सर्वेक्षण के नतीजे काफी पुराने पड़ चुके हैं लेकिन इस बारे में कोई अन्य आँकड़े उपलब्ध न होने के कारण इसी सर्वेक्षण के आँकड़े यहाँ इस्तेमाल किए जा रहे हैं।

 

अलग-अलग शहर में प्रति व्यक्ति ठोस कूड़े का उत्पादन अलग-अलग है। भारत में आमतौर पर प्रति व्यक्ति कूड़ा उत्पादन 350 ग्राम माना जाता है परन्तु यह मात्रा 300 ग्राम से 500 ग्राम के बीच हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा महाराष्ट्र और गुजरात के कई शहरों में कराए गए अध्ययन के अनुसार शहरी ठोस कूड़े का प्रति व्यक्ति दैनिक उत्पादन 330 ग्राम से 420 ग्राम के बीच है। इस अध्ययन से एक महत्वपूर्ण बात यह सामने आई है कि शहरों और कस्बों के अलग-अलग आकार के बावजूद प्रति व्यक्ति उत्पादन में काफी समानता है। करीब दस लाख की आबादी वाले मुम्बई और सिर्फ 25 हजार आबादी वाले सानंद में प्रति व्यक्ति कूड़े के उत्पादन में सिर्फ 38 ग्राम का अंतर है। इस तरह शहर के आकार का कूड़े के प्रति व्यक्ति उत्पादन से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है।

 

अगर प्रति व्यक्ति शहरी ठोस कूड़े का राष्ट्रीय औसत 350 ग्राम मान लें तो 21.7 करोड़ की शहरी आबादी वाले भारत में हर रोज कुल 7.6 करोड़ टन शहरी ठोस कूड़ा-करकट पैदा होता है।

 

सुरक्षित प्रबंध: पर्यावरण संरक्षण और नागरिकों के स्वास्थ्य के लिहाज से शहरी ठोस कूड़े को ठिकाने लगाने का कार्य एक अनिवार्य सेवा है। अतः इसके सुचारू संचालन के लिए कम लागत वाली सबसे उपयुक्त टेक्नोलाजी के लिए धन उपलब्ध कराया जाना चाहिए। शहरी ठोस कूड़े की ठिकाने लगाने के कार्य में नागरिकों, उद्योगों, अस्पतालों और गैर-सरकारी संगठनों को नगरपालिका अधिकारियों से पूरा सहयोग करना चाहिए।

 

प्लास्टिक, काँच, धातु और कागज जैसे फिर से उपयोग में लाए जा सकने वाले अकार्बनिक पदार्थों को शुरू में ही कूड़े से अलग कर लेने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। प्रत्येक घर से इन वस्तुओं को अलग-अलग पात्रों या थैलियों में एकत्र कराने के हर सम्भव प्रयास किए जाने चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो ठोस कूड़े को हर रोज प्रत्येक घर से इकट्ठा किया जाना चाहिए। घरों/ सामुदायिक कूड़ादानों से ठोस कूड़ा इकट्ठा करने के कार्य में निजी एजेंसियों/ गैर-सरकारी संगठनों, कूड़ा बीनने वालों अथवा उनकी सहकारी समितियों को भागीदार बनाया जाना चाहिए।

 

घर-घर जाकर कूड़ा इकट्ठा करने के लिए उपयुक्त आकार की तिपहिया साइकिलों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। घरों से कूड़ा इकट्ठा करने वाली गाड़ियों से कूड़े को सीधे बन्द वाहनों में स्थानांतरित करने की प्रणाली से इन वाहनों को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी और यह प्रणाली किफायती साबित होगी। कूड़े को रोजाना इकट्ठा कराना तथा निपटान वाली जगह तक पहुँचाना बेहद जरूरी है।

 

फल-सब्जियों की मण्डी से रोजाना कम-से-कम दो बार कूड़ा-कचरा इकट्ठा करके खाद बनाने वाले स्थानों को भेजा जाना चाहिए। बड़े बाजारों और मण्डियों के पास ही अपशिष्ट पदार्थों के प्रसंस्करण और निपटान की सुविधाएँ विकसित की जानी चाहिए जिनमें पशुओं के आहार और बायोगैस का उत्पादन किया जा सकता है। बड़े होटलों और रेस्तरां को अपनी प्रसंस्करण तथा निपटान सुविधाएँ (जैसे विशाल बायो-डाइजेस्टर, कम्पोस्टिंग प्रणाली और पशु-आहार संयंत्र) लगाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

 

ठोस कूड़े-कचरे को शहरी वार्ड से निपटान वाली जगह तक ले जाने वाले वाहन उचित आकार के और कूड़े की किस्म के मुताबिक होने चाहिए। इस तरह के वाहनों में कूड़े को शीघ्रता से उतारने के लिए हाइड्रोलिक प्रणालियों की व्यवस्था भी होनी चाहिए। कूड़ा-करकट ले जाने वाले वाहन अच्छी तरह से बन्द होने चाहिए ताकि ले जाते वक्त कूड़ा सड़कों पर बिखरने न पाए और वायु प्रदूषण भी न फैले।

 

शहरी ठोस कूड़े-करकट का निपटान

 

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कूड़े का निपटान

 

प्रमुख महानगरों और छोटे कस्बों में शहरी ठोस कूड़े को सेनेटरी लैंडफिल्स में फेंका जा सकता है लेकिन लैंडफिल भरते समय वर्धनशील दृष्टिकोण अपनाना अधिक दूरदर्शितापूर्ण होगा। इसमें बेहतर संचलनात्मक नियंत्रणों के साथ लैंडफिल क्षेत्रों का क्रमशः विकास करना होगा। पर्यावरण संरक्षण के उपाय अपनाकर स्वास्थ्य और पर्यावरण सम्बन्धी खतरों को कम किया जा सकता है।

 

प्रमुख शहरी तथा महानगर क्षेत्र विकास प्राधिकारणों को जमीन के उपयोग सम्बन्धी अपनी योजनाओं में कूड़ा-करकट फेंकने के लिए क्षेत्रीय आधार पर लैंडफिल के लिए उपयुक्त भूमि का प्रावधान करना चाहिए। छोटे और मझोले शहरों तथा कस्बों को नगरपालिका से बाहर भूमि निपटान सुविधाओं का मिलजुल कर उपयोग करना पड़ सकता है। इस तरह की सुविधाओं का प्रबंध महानगर विकास प्राधिकरणों या किसी अन्य उपयुक्त क्षेत्रीय प्रबंध प्राधिकरण द्वारा किया जाना चाहिए।

 

घर-घर जाकर कूड़ा इकट्ठा करने के लिए उपयुक्त आकार की तिपहिया साइकिलों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। घरों से कूड़ा इकट्ठा करने वाली गाड़ियों से कूड़े को सीधे बन्द वाहनों में स्थानांतरित करने की प्रणाली से इन वाहनों को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी और यह प्रणाली किफायती साबित होगी। कूड़े को रोजाना इकट्ठा कराना तथा निपटान वाली जगह तक पहुँचाना बेहद जरूरी है।

 

ठोस कूड़े-करकट के निपटान का अगला कम्पोस्ट बनाना और कम्पोस्ट न बनाए जा सकने वाले कूड़े को जमीन पर निपटान हो सकता है। शहरी ठोस कूड़े-करकट के 20-25 प्रतिशत (कार्बनिक भाग) को इस तरह निपटाया जा सकता है। शहरों के आकार और जनसंख्या के अनुसार कम्पोस्ट संयंत्रों में उपयुक्त स्तर पर यन्त्रों और उपकरणों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसमें एरोबिक और एनारोबिक विधियों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। छोटे कस्बों में अधिक श्रमिकों की आवश्यकता वाले कम लागत के ‘विंड-रो’ किस्म के कम्पोस्ट संयंत्र इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं जिनमें कम से कम यन्त्रों और उपकरणों का उपयोग होता है।

 

हमारे देश में शहरी ठोस कूड़े में ऊर्जा की मात्रा कम और नमी ज्यादा होती है। इसमें गैर-ज्वलनशील पदार्थों का प्रतिशत भी ज्यादा होता है। इन सब कारणों से यह ताप टेक्नोलाजी सम्बन्धी उपयोग के लिए आमतौर पर उपयुक्त नहीं है। मगर इनसिनेरेशन, पैलेटाइजेशन, काफीराइजिंग, पायरोलिसिस-गैसीफिकेशन जैसी टेक्नोलाजी के जरिए ऊर्जा प्राप्त करने में कूड़े-करकट के उपयोग के लिए अनुसंधान और विकास/ परीक्षण अध्ययन किया जाना चाहिए। अनुसंधान और विकास सम्बन्धी इस तरह के प्रयास निजी क्षेत्र/ नगर-पालिकाओं और ऐसी अनुसंधान संस्थाओं के संयुक्त प्रयासों में चलाए जाने चाहिए जिन्हें इन क्षेत्रों में विशेषज्ञता और अनुभव प्राप्त हो।

 

खतरनाक कूड़ा-करकट

 

शहरी विकास प्राधिकरणों/ राज्य प्रदूषण नियन्त्रण बोर्डों को खतरनाक ठोस कूड़ा उत्पन्न करने वाले उद्योगों, उनकी स्थिति, संख्या और उनके द्वारा पैदा किए गए कूड़े-कचरे की प्रकृति का पता लगाकर आँकड़ा प्रणाली तैयार करनी चाहिए। कुछ मौजूदा राष्ट्रीय संस्थान जैसे अखिल भारतीय स्वच्छता और जन स्वास्थ्य संस्थान (कलकत्ता), आईआरटीसी (लखनऊ), एनईईआरआई (नागपुर) और एनआईओएच (अहमदाबाद) को और सुदृढ़ किया जाना चाहिए ताकि वे रासायनिक उद्योगों की सूची तैयार करने वाले क्षेत्रीय केन्द्रों के रूप में कार्य कर सकें। इस तरह की सूची से जहरीले तथा जोखिम वाले कूड़े और औद्योगिक कूड़े के निपटान तरीकों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव की जानकारी देने वाले प्रणाली भी कायम की जा सकेगी।

 

इन केन्द्रों को ऐसे निगरानी केन्द्रों के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जो सम्भावित समस्याओं के बारे में शीघ्र चेतावनी दे सकें। इस तरह की चेतावनी से जहरीले अपशिष्ट पदार्थों का समुचित निपटान न होने से उत्पन्न स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरों को कम से कम किया जा सकेगा। इन केन्द्रों को अनुसंधान और विकास केन्द्रों के रूप में खतरनाक अपशिष्ट पदार्थों के प्रबंध की नई परियोजनाओं को लागू करने/ मूल्यांकन करने वाले अनुसंधान और विकास केन्द्रों के रूप में भी कार्य करना चाहिए।

 

खतरनाक ठोस कूड़ा पैदा करने वाले उद्योगों को प्रदूषण नियंत्रण कानूनों के दायरे में लाया जाना चाहिए।

 

जोखिम वाले ठोस औद्योगिक कूड़े-करकट को फेंकने से पहले रासायनिक प्रक्रियाओं के जरिए विषमुक्त करना उद्योगों की जिम्मेदारी होनी चाहिए। इस तरह के कूड़े को प्रसंस्करण के बाद ही लैंडफिल क्षेत्र में छोड़ा जाना चाहिए। लैंडफिल क्षेत्र का चयन बड़ी सावधानी से किया जाना चाहिए और पर्यावरण प्रदूषण सम्बन्धी सभी आवश्यक सावधानियों का ध्यान रखकर इनका संचालन किया जाना चाहिए।

 

संसाधनों की वसूली

 

कूड़े में से फिर से उपयोग में लाई जा सकने वाली सामग्री को स्रोत पर ही अलग कर लिया जाना चाहिए। इस समय सड़क के किनारे कूड़े के ढेरों और कूड़ा डालने के स्थानों से शहरों के गरीब लोगों द्वारा फिर से उपयोग में लाए जाने वाले पदार्थ बीन लिए जाते हैं। इसके स्थान पर वार्ड स्तर पर संकलन केन्द्र बनाए जाने चाहिए। ये संकलन केन्द्र स्थानांतरण केन्द्रों से सम्बद्ध होने चाहिए जहाँ प्राथमिक संग्रह गाड़ियों से इकट्ठा किए गए कूड़े को वाहनों में स्थानांतरित करने की व्यवस्था होनी चाहिए। ये संकलन केन्द्र सहकारी समितियों द्वारा संचालित किए जा सकते हैं। कूड़े में से फिर से उपयोग में लाए जा सकने वालों की मदद ली जा सकने वाले पदार्थों को निकालने के लिए कूड़ा बीनने वालों की मदद ली जा सकती है। कूड़े में फेंके गए कागज, प्लास्टिक, काँच और धातु आदि की रीसाइक्लिंग करने वाले उद्योगों को टेक्नोलाजी में सुधार के लिए आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए ताकि उनके द्वारा बनाई गई चीजें क्वालिटी के लिहाज से बेहतर और लागत की दृष्टि से किफायती हों और बाजार में आसानी से बिक सकें।

 

कूड़े की रीसाइक्लिंग की वर्तमान टेक्नोलाजी का मूल्यांकन किया जाना चाहिए और अनुसंधान तथा विकास/ परीक्षण अध्ययन के जरिए नई टेक्नोलाजी का विकास तथा वर्तमान टेक्नोलाजी में सुधार किया जाना चाहिए। रद्दी कागज, प्लास्टिक और काँच से बने पदार्थों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक कानूनी तथा प्रशासनिक उपाय किए जाने चाहिए। कूड़े का प्रसंस्करण और रीसाइक्लिंग करने वाले उद्योग को केन्द्र तथा राज्य सरकारों से कुछ प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए जैसे मशीनों/ संयंत्रों के लिए शुल्क तथा करों में छूट।

 

कानूनी तथा वित्तीय उपाय

 

शहरी ठोस कूड़े-करकट को स्वच्छ तथा सुरक्षित तरीके से इकट्ठा करने तथा ठिकाने लगाने के बारे में जनता में जागरूकता पैदा करनी बहुत जरूरी है। इससे कूड़े के सही निपटान की टिकाऊ व्यवस्था हो सकेगी। साथ ही इस व्यवस्था को विधायी उपायों के जरिए मजबूत किया जाना चाहिए। प्रत्येक राज्य को मौजूदा नगरपालिका विनियमों, नगर एवं ग्राम नियोजन अधिनियमों तथा अन्य सम्बद्ध कानूनों की समीक्षा करनी चाहिए। इससे कानूनों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कारगर तथा शीघ्र कार्रवाई के लिए कानूनी ढाँचे के भीतर ही समुचित व्यवस्था की जा सकेगी। छोटी नगरपालिकाओं को अपने ठोस कूड़े को ठिकाने लगाने के लिए विभिन्न सुविधाओं का मिल-बाँटकर उपयोग करना पड़ सकता है। इस सम्बन्ध में आवश्यक कानूनी और प्रशासनिक प्रावधान किए जाने चाहिए तथा केन्द्र/ राज्य सरकारों की ओर से आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

 

जागरुकता बढ़ाने के प्रयास

 

शहरी ठोस कूड़े-करकट को सुरक्षित तथा साफ-सुथरे तरीके से ठिकाने लगाने में जनता की भूमिका तथा उसके उत्तरदायित्व के बारे में आम लोगों, जनमत बनाने वालों, उद्योगपतियों, अस्पताल कर्मचारियों को जागरुक बनाना बहुत जरूरी है। ठोस कूड़े-करकट के निपटान में लोगों की भूमिका के बारे में जागरुकता पैदा करने के लिए बहु-माध्यम प्रचार में नगरपालिका अधिकारियों, गैर-सरकारी संगठनों को शामिल किया जा सकता है।

 

तालिका-2

कुछ देशों में मृत्युदर, स्वच्छ पेयजल और स्वच्छता की स्थिति

 

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स्रोत : दुनिया में बच्चों की स्थिति, यूनिसेफ, 1994

 

शहरी ठोस कूड़े-करकट को ठिकाने लगाने का कार्य कई विभागों के क्षेत्राधिकार में आता है। इस तरह के सभी प्रयासों में तालमेल, एकरूपता तथा समन्वय के लिए ठोस कूड़े के प्रबंध की राष्ट्रीय नीति तथा कार्ययोजना बनानी आवश्यक हैं।

 

इस बारे में सुझाई गई नीति में मुख्य जोर इन बातों पर दिया गया है:

1. कूड़े-करकट में कमी लाना।

2. स्रोत यानी घरों, अस्पतालों और उद्योगों में ही विभिन्न प्रकार के कूड़े को अलग-अलग करना।

3. कूड़े-करकट को रोजमर्रा की जिन्दगी में इस्तेमाल की उपयोगी सामग्री का रूप देने के लिए कूड़े से फिर से काम आने योग्य वस्तुओं को निकालना तथा उनकी रीसाइक्लिंग करना।

4. ठोस कूड़े को सुरक्षित तरीके से एकत्र करने उसके परिवहन तथा निपटान के लिए उपयुक्त टेक्नोलाजी का विकास।

 

शहरी ठोस कूड़े के निपटान की राष्ट्रीय कार्ययोजना की महत्वपूर्ण बातें ये हैं:

1. सभी स्तरों यानी उद्योगों, अस्पतालों तथा लोगों में जागरुकता पैदा करना।

2. कूड़ा ठिकाने लगाने के प्रयासों में मदद देना तथा उन्हें और सुदृढ़ बनाने के लिए कानूनी उपाय करना।

3. शहरी ठोस कूड़े के बेहतर निपटान के लिए मानव संसाधन विकास।

4. कूड़े के प्रबंध की उपयुक्त टेक्नोलाजी के विकास तथा मूल्यांकन के लिए अनुसंधान तथा विकास।

5. शहरी ठोस कूड़े के प्रबंध की सफल टेक्नोलाजी के उपयोग के लिए संयुक्त क्षेत्र में परीक्षण परियोजनाओं की शुरुआत।

6. शहरी ठोस कूड़ा प्रबंध से सम्बन्धित वर्तमान सेवाओं को सुदृढ़ करना।

7. गैर-कानूनी संगठनों के सहयोग से कूड़ा-करकट बीनने वालों की सहकारी समितियों की स्थापना।

 

राष्ट्रीय कार्ययोजना को लागू करने के लिए धन तथा भली-भाँति प्रशिक्षित श्रम शक्ति दोनों ही दृष्टि से पर्याप्त संसाधन जुटाना और विभिन्न क्षेत्रों के बीच तालमेल बढ़ाना बहुत जरूरी है। इस कार्य को मिशन के रूप में चलाई जाने वाली ऐसी परियोजना की तरह किया जा सकता है जिसमें विभिन्न विभाग आपस में सम्बद्ध कई ‘मिनी मिशन’ बना सकते हैं। मगर इस तरह की नीति अपनाने पर प्रतिस्पर्धी गतिविधियों के बीच उपयुक्त प्राथमिकता के निर्धारण में तथा पर्याप्त आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने में अड़चनें आ सकती हैं।

 

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान संस्थान में प्रोफेसर हैं।

 

साभार : योजना अगस्त 1997

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