मदन झा
केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल-द्वारा 31 मार्च, 2010 तक सर पर मैला ढोने की कुप्रथा को समाप्त करने की समय-सीमा के निर्धारण के सन्दर्भ में सुलभ इन्टरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन ने टोंक की 63 स्कैवेंजर महिलाओं को पुनर्वासित कर सरकार के इस निर्णय में एक महत्वपूर्ण उदाहरण पेश किया। ये वे महिलाएँ हैं, जो अभी हाल तक अस्पृश्य समझी जाती थीं और राजस्थान के टोंक-जैसे शहर में मैला ढोने के कार्य में संलग्न थीं। हाथ से मैला साफ करने और ढोने की सैकड़ों वर्ष पुरानी कुप्रथा को राज्य के टोंक जिले से पूर्णत: समाप्त कर दिया गया। इस सन्दर्भ में सुलभ-स्वच्छता एवं सामाजिक सुधार-आन्दोलन के संस्थापक डॉक्टर पाठक ने जानकारी देते हुए कहा कि ‘टोंक अब मैला ढोने की प्रथा से पूर्णत: मुक्त हो गया है।’ सुलभ इन्टरनेशनल ने इन पुनर्वासित महिलाओं को स्वरोजगार-कार्यक्रम में शामिल कर लिया है, जो इस गैर-सरकारी संगठन-द्वारा संचालित किया जाता है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने के लिए अधिनियम बनाए जाने के बावजूद आज भी तथाकथित निम्न जाति की अनुमानत: पाँच लाख लड़कियाँ और महिलाएँ मैला ढोने का कार्य कर रही हैं।
हाथ से मैला साफ करने और ढोने को गैर-कानूनी घोषित कर सन् 1993 में ही प्रतिबन्धित कर दिया गया था। उसी समय कमाऊ शौचालय पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया था। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने 31 मार्च, 2010 तक इसे पूर्णत: समाप्त करने की तिथि निर्धारित की थी।
डॉक्टर पाठक ने बताया कि ‘टोंक में अब कोई महिला या पुरूष शौचालय साफ करने के कार्य में नहीं लगा है। मैला ढोनेवाले सभी पूर्ववर्ती ‘अस्पृश्य’ नहीं समझे जाते हैं और वे सभी अब समाज की मुख्यधारा में शामिल हो गए हैं।’
यह भले ही विचित्र प्रतीत हो, लेकिन सुलभ के प्रयास से हाथ से मैला ढोने की अमानवीय सामाजिक कुरीति से इस जिले ने अपने-आपको मुक्त करा लिया है।
उल्लेखनीय है कि सुलभ ने अब-तक दस लाख से अधिक मैला ढोनेवालों को मुक्त कर पुनर्वासित कराया है। लगभग छह वर्ष पहले इसने अलवर और टोंक जिलों में सघन अभियान चलाया और अब जाकर इसे सफलता मिली है। सुलभ ने अभी तक टोंक में 288 और अलवर में 115 महिलाओं का पुनर्वास किया है। दूसरों की तरह ये महिलाएँ भी हाल तक अलवर और टोंक जिलों के विभिन्न भागों में इस घृणित कार्य में संलग्न थीं। कुछ ही दिनों पूर्व 19 नवम्बर, 2009 को अलवर को भी मैला ढोने की प्रथा से मुक्त होने की घोषणा कर दी गई थी।
अपने अभियान की एक और सफलता पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए डॉक्टर पाठक ने बताया, ‘मैं अपने ढंग से सन् 1968 से मैला ढोनेवाले व्यक्तियों को मानवीय अधिकार और सम्मान दिलाने के महात्मा गाँधी के सपने को पूरा करने में लगा हूँ। भारत की स्वतन्त्रता से पहले मैला ढोनेवाले इनलोगों को ‘अस्पृश्य’ समझा जाता था। उन्हें सामाजिक जाति-व्यवस्था के सबसे निचले स्तर पर रखा गया था, किन्तु आज वक्त ने करवट ली है। हम उनका सम्मान वापस दिलाने में सफल हुए हैं।’
डॉक्टर पाठक ने इसके आगे कहा कि महात्मा गाँधी हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करना चाहते थे। सुलभ-द्वारा स्कैवेंजरों का पुनर्वास करना गाँधी जी का एक सपना पूरा करना है।
‘हाथ से मैला साफ करने के कार्य को समाप्त करने के लिए किसी तकनीकी समाधान की जरूरत थी। मैंने ट्विन-पिट पोर-फ्लश शौचालय का आविष्कार किया। यह एक महत्वपूर्ण खोज साबित हुई, क्योंकि यदि यह नहीं होता तो मानव-मल को हाथ से साफ करने और ढोने की प्रथा के उन्मूलन की दिशा में आगे बढ़ने की आशा बहुत कम थी। वजह यह कि सेप्टिक-टैंक या सीवर-प्रणाली से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं था। दोनो ही अत्यन्त खर्चीले हैं और जिनमें पानी की खपत भी अधिक होती है’,सुलभ के संस्थापक ने कहा।
स्कैवेंजरों के पुनर्वासन के लिए सुलभ इन्टरनेशनल-द्वारा संचालित किए जा रहे व्यावसायिक प्रशिक्षण-केन्द्रो की चर्चा करते हुए डॉक्टर पाठक ने पत्रकारों और मीडियाकर्मियों से कहा, ‘इस प्रकार मैंने मैला ढोनेवालों की मुक्ति के द्वार खोल दिए हैं। यदि वे अपने पहले वाले कार्य में ही संलग्न होते तो कोई भी उनके साथ बैठने, खाना खाने अथवा बात तक करने के लिए तैयार नहीं होता। उनकी मुक्ती (स्वतन्त्रता) और सम्मानजनक व्यवसाय में उनका पुनर्वासन मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। मैंने उनके लिए शैक्षणिक और प्रशिक्षण-कार्यक्रमों की शुरुआत की, ताकि वे स्वावलम्बी बनकर जीविकोपार्जन कर सकें और अपने पैरों पर खड़े हो सकें।’
साभार : सुलभ इण्डिया जून 2014
/articles/taonka-maailaa-dhaonae-kai-parathaa-sae-maukata