तेजी से बढ़ते शहरीकरण के खतरे

सुलभ-स्वच्छता एवं सामाजिक सुधार-आन्दोलन के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने कहा है कि ‘पारिस्थितिकी पर न रूक सकने वाले शहरी विकास का जो प्रभाव पड़ रहा है, उसके कारण डायरिया, वायरल, हेपेटाइटिस, मियादी बुखार, एच्.आई.वी./एड्स, तपेदिक और वेक्टर-जनित संक्रामक रोग, खासतौर पर डेंगू और चिकनगुनिया-जैसे रोग बढ़ रहे हैं। संयुक्त-राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार, दुनिया की कुल आबादी के साठ प्रतिशत लोग सन 2025 तक शहरी क्षेत्रों में निवास करने लगेंगे। परिणामत: स्वस्थ जीवन की चुनौतियाँ बढ़ जाएंगी।’


विश्व में स्वच्छता के क्षेत्र में एक बड़े विशेषज्ञ के रूप में मान्य डॉ. पाठक ने यह बात ‘इंजीनियरिंग, मटिरियल, इक्विप्मेंट और इंस्ट्रुमेंटेशन’ विषय पर आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में कही, जिसे लोक-स्वास्थ्य-अभियंत्रण(P.H.E.D.) की परियोजनाओं पर विशेष बल देते हुए आयोजित किया गया था। आयोजन ‘इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ इंजीनियर्स इण्डिया’ ने 19 अप्रैल और 20 अप्रैल को कोलकाता के साल्ट-लेक-स्थित रविन्द्र ओकाकरा-भवन में किया था।


इस अवसर पर डॉक्टर पाठक ने कहा की हमें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि 7 अप्रैल को विश्व-स्वास्थ्य-दिवस का समारोह विश्व-स्वास्थ्य-संगठन ने मनाया, उसमें उसके सदस्य, सर्वाधिक महत्वपूर्ण राष्ट्रों और भागीदारों ने स्वास्थ्य के एक अकेले मुद्दे पर अपना ध्यान दिया, जो था- ‘तेजी से हो रहे शहरीकरण और उसके सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और स्वास्थ्य के ऊपर प्रभाव, विशेषकर विकासशील देशों में।’


विश्व-स्वास्थ्य-दिवस 2010 का विशय था- ‘शहरीकरण और स्वास्थ्य।’ इस विषय का चुनाव इस स्थिति के कारण उत्पन्न खतरा था कि शहरी क्षेत्रों में किन विकट चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।


शहरी स्वास्थ्य के अनेक आयाम हैं। उनमें सम्मिलित हैं- स्वास्थ्य के अनेक निर्धारक, इसमें सामाजिक और आर्थिक निर्धारक तथा पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के मसले, यथा-जलापूर्ति, स्वच्छता, कचरा-प्रबन्धन, पर्यावरण-जन्य प्रदूषण-नियंत्रण इत्यादि। इनमें स्वस्थ-जीवन-शैली, खाद्यान्न की सुरक्षा और सुनिश्चितता, स्वास्थ्य, आवासीय व्यवस्था, यातायात और परिवहन-सुविधाएँ और उन सबसे ऊपर सामाजिक और साम्प्रदायिक सामंजस्य। इसलिए शहरी स्वास्थ्य की आवश्यक चिंताओं और समस्याओं पर विचार करते हुए हमें जरूरत है प्रभावकारी अंतरक्षेत्रीय समन्वय की, जिनमें समाज के सभी हिस्से शामिल हों।


डॉ. पाठक ने कहा कि ‘दक्षिण-पूर्व एशिया’ की कुल आबादी का 34 प्रतिशत भाग शहरी है। यह आबादी तेजी से बढ़ रही है और उसका बहुत गहरा दबाव सभी सेवाओं पर पड़ रहा है। इनमें परिवहन-व्यवस्था, जलापूर्ति, स्वच्छता और बिजली प्रमुख हैं। यू.एन. हैबिटाट के अनुसार, दक्षिण-एशिया में 40 प्रतिशत से अधिक आबादी मलिन बस्तियों में रहती है। अक्सर मजदूर कार्यस्थल के आस-पास या मलिन बस्ती के बीच में रहते हैं, उदाहरण के लिए सड़कों के किनारे या भवन-निर्माण-स्थल के पास। सुरक्षित पेयजल तथा स्वच्छता-सेवाओं के उपलब्ध न हो पाने तथा आस-पास के परिवहन, कारखानों और औद्योगिक परिसरों से पैदा होने वाले प्रदूषण मजदूरों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं। इसका प्रतिकूल असर पड़ता है आधारभूत पर्यावरण-सम्बन्धी सेवाओं-जैसे स्वच्छ हवा, जल और मिटटी पर।


हालांकि कुछ जगहों पर मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों ने अपने आवासीय और रहन-सहन की स्थिति में सुधार किया है, जैसे कि पानी की उपलब्धता। लेकिन अधिकतर लोग पर्यावरणीय खतरे को झेलते हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता है। पर्यावरण को सर्वाधिक दूषित करनेवाली बीमारियाँ (अतिसार, साँस-सम्बन्धी-संक्रमण, चोट, जिसमें सड़क-यातायात के कारण लगी चोट शामिल है।) शहरी मजदूरों खासतौर पर उनके बच्चों पर बुरा असर डालती हैं।


इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि व्यापक स्तर पर होने वाले शहरी-विकास और पर्यावरणीय औद्योगिकीकरण अपने साथ जल-स्रोतों के गम्भीर प्रदूषण लाते हैं। जल की गुणवत्ता-सम्बन्धी एक बड़ी समस्या है-माइक्रोबायोलॉजी-सम्बन्धी-प्रदूषण जल-मल के दूषित जल का सीवेज में मिलना और वहाँ से टूटे जल-पाइपों के जरिए प्रदूषण पैदा करना। यह एक नमूना भर है। लगभग 76 प्रतिशत शहरी जनसंख्या को उन्नत स्वच्छता-सुविधाएँ उपलब्ध हैं, लेकिन शहरों में अधिकतर सीवेज-प्रणाली पुरानी है और उसपर अधिक-से-अधिक दबाव है।


‘हालांकि कोलकाता बहुत पहले यानी सन 1870 में विश्व में सीवरेज-व्यवस्था से जुड़ने वाला तीसरा शहर था, लेकिन आज देश के 5,161 शहरों और उपनगरों में सिर्फ 232 में सीवेज-व्यवस्था है और वह भी आंशिक रूप में। बहुत-से सीवेज-शोधन-प्लांट या तो ठीक तरीके से काम नहीं करते या बन्द हैं। अशोधित या अंशत: शोधित जल-मल जल-स्रोतों में मिल जाता है। काठमाण्डू, नेपाल में जलापूर्ति-निगम द्वारा संचालित 5 अपजल-शोधन-प्लांटों में सन 2008 में सिर्फ एक कारगर ढंग से काम कर रहा था।


‘दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र के शहरी इलाकों में लगभग साढ़े चार करोड़ लोग अभी भी खुले में शौच करते हैं, उससे भी जल-प्रदूषण होता है। इसी के साथ औद्योगिक अपजल, कृषिजन्य कीटनाशकों और गड्ढेनुमा या खाली जगहों में कचरा-भराव से रासायनिक प्रदूषण फैलता है।


देवियो और सज्जनों! मुझे डर है कि जल-प्रवाही सीवरेज-व्यवस्था भारत के शहरी क्षेत्रों में स्वच्छता की समस्या का एक उपयुक्त मॉडल नहीं हो सकती। वह न केवल अत्यंत खर्चीली है, वरन उसमें जल की बहुत बड़ी बर्बादी है। हमें जरूरत है एक टिकाऊ और विकेन्द्रित अपजल-निस्तारण-व्यवस्था की, जिसे मौके पर ही सफाई हो जाने की व्यवस्था से जोड़ा जा सके। ऐसी व्यवस्था को सुलभ ने विकसित किया है। इस बिन्दु पर मैं यह भी कहना चाहूँगा कि सुलभ ने देश के शहरी क्षेत्रों में स्वस्थ पर्यावरण के लिए जो योगदान दिया है, उसे रेखांकित किया जाना चाहिए।


सन 1970 में स्थापित सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन एक देश-व्यापी स्वयंसेवी लाभनिरपेक्ष संगठन है, जो इस वक्त पर्यावरण-सम्बन्धी स्वच्छता के क्षेत्र में देश के 25 राज्यों और चार केन्द्र-शासित क्षेत्रों के 1,499 शहरों और उपनगरों के स्थानीय निकायों में काम कर रहा है। इसने निजी घरों में अबतक 12 लाख से अधिक ट्विन-पिट-पोर-फ्लश कम्पोस्ट शौचालय-परिसर निर्मित किए हैं। 7,500 से अधिक सुलभ सार्वजनिक शौचालय-परिसरों का निर्माण किया गया है और पूरे देश में उनका रख-रखाव किया जा रहा है। सुलभ-द्वारा निर्मित शौचालयों का प्रतिदिन 1 करोड़ से अधिक लोग इस्तेमाल कर रहे हैं।


इसके द्वारा 10 लाख से अधिक स्कैवेंजरों को स्कैवेंजिंग और सर पर मैला ढोने जैसे घृणित और अमानवीय कार्य से मुक्त किया गया है। मुक्त स्कैवेंजरों को पर्याप्त सलाह और व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर अन्य दूसरे सम्मानजनक कार्यों में लगाया गया है। यानी पुनर्वासन। आज तक देश के 240 नगरों को स्कैवेंजिंग मुक्त किया जा चुका है। 130 मिलियन से अधिक जनदिवस पैदा किए गए हैं। देश के विभिन्न भागों में सुलभ सार्वजनिक शौचालयों से सम्बद्ध बायोगैस प्लांट लगाए गए हैं। काबुल नगरपालिका (अफगानिस्तान) के सहयोग से बायोगैस-सुविधा से सम्पन्न 5 सार्वजनिक शौचालय परिसर काबुल शहर में बनाए गए हैं। एक सार्वजनिक शौचालय परिसर भूटान में निर्मित किया गया है।


विभिन्न राज्यों की शहरी मलीन बस्तियों में रहने वाली 14 हजार से अधिक की स्त्रियों को स्वास्थ्य, शुचिता, सुरक्षित पेयजल, एच्.आई.वी. एड्स इत्यादि में प्रशिक्षित किया गया है। सुलभ शौचालय-परिसरों से सम्बद्ध दो स्वास्थ्य-केन्द्र दिल्ली की मलिन बस्तियों में रहनेवालों को चिकित्सा-सेवा उपलब्ध कराने के लिए खोले गए हैं। इनमें गरीबों के लिए बचाव से लेकर उपचार तथा पुनर्वास और डॉक्टरी देखभाल की व्यवस्था नाम-मात्र के खर्च पर की गई है। अस्पताल की सफाई और कचरा-प्रबन्धन का काम भी किया जाता है। भारत के विभिन्न राज्यों में सुलभ स्कूल सेनिटेशन क्लबों के माध्यम से स्कूल-स्वच्छता के कार्यक्रम भी चलाए जाते हैं।’


डॉ. पाठक ने कहा कि ‘इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ इंजीनियर्स, इण्डिया देश के पेशेवर लोक-स्वास्थ्य-अभियंताओं की एक अग्रणी संस्था है। मुझे उम्मीद है कि इसके द्वारा आयोजित इस राष्ट्रीय सम्मेलन में किए गए विचार-विमर्श के परिणाम-स्वरूप शहरी क्षेत्रों में रहने वाले, खासतौर से वंचित और गरीब लोगों के लिए ऐसी सिफारिश की जाएगी, जो शहरी पर्यावरण और शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लाखों-लाख गरीब लोगों के जीवन को बेहतर ढंग से स्वस्थ बनाए।’


स्वास्थ्य और स्वच्छता के क्षेत्र के जिन विशिष्ट लोगों ने इस सम्मेलन में भाग लिया, उनमें शामिल हैं- आई.पी.एच.ई के अध्यक्ष और ऑल इण्डिया इंस्टिट्यूट ऑफ हाइजीन एण्ड पब्लिक हेल्थ (भारत-सरकार) के पूर्व निदेशक प्रोफेसर के.जे.नाथ, पूर्व डी.जी.ओ, के.एम्.डी.ए और उपाध्यक्ष श्री बी.के सेन गुप्ता, के.एम.डी.ए के पूर्व मुख्य इंजीनियर श्री एस.के.पाल, डॉ. अनिरुद्ध कार, निदेशक, स्वास्थ्य-सेवाएँ, पश्चिम बंगाल-सरकार, कम्युनिटी मेडिसिन के.पी.सी. मेडिकल कॉलेज, कोलकाता, श्री सन्दीप चटर्जी, मुख्य इंजीनियर, परियोजना, डब्ल्यू.क्यू.एम. पी.एच.ई.डी., श्री एस.एस. चक्रवर्ती, सी.एस.डी. कंसलटिंग इंजीनियरिंग सर्विसेस लिमिटेड, श्री सुतनु घोष, प्रबन्ध-निदेशक, घोष-बोस एण्ड एसोशिएट्स प्राइवेट लिमिटेड, श्री जयन्त घोष (द टेलीग्राफ), डॉ अनिल कार, इंजीनियरिंग सर्विसेस इंटरनेशनल, डॉ निमिष शाह, निदेशक, सुरक्षा ई.ए.सी., डॉ मॉरिस वास्कर, हिन्दुस्तान यूनीलीवर रिसर्च लैब बेंगलुरू, प्रोफेसर अरुणाभा मजूमदार, एमेरेटस प्रोफेसर, जादवपुर विश्वविद्यालय इत्यादि।

 

साभार : सुलभ इण्डिया जून 2010

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