आशुतोष कुमार सिंह
हरिप्रसाद व्यास द्वारा 1963 में लिखित पुस्तक ग्राम स्वराज्य महात्मा गाँधी के विचारों पर आधारित है। ग्राम स्वराज्य में स्वच्छता के मसले पर गाँधीजी कहते हैं, “हमने राष्ट्रीय या सामाजिक सफाई को न तो जरूरी गुण माना और न उसका विकास ही किया। यूँ रिवाज के कारण हम अपने ढंग से नहा भर लेते हैं, परन्तु जिस नदी, तालाब या कुएं के किनारे हम श्राद्ध या वैसी ही दूसरी कोई धार्मिक क्रिया करते हैं और जिन जलाशयों में पवित्र होने के विचार से हम नहाते हैं, उनके पानी को बिगाड़ने या गन्दा करने में हमें कोई हिचक नहीं होती। हमारी इस कमजोरी को मैं एक बड़ा दुर्गण मानता हूँ। इस दुर्गुण का ही यह नतीजा है तालाबों की सफाई की याद बार-बार दिलाते रहे बापू कि हमारे गाँवों की और हमारी पवित्र नदियों के पवित्र तटों की लज्जानजक दुर्दशा और गंदगी से पैदा होने वाली बीमारियां हमें भोगनी पड़ती हैं।”
ग्रामीण भारत को साफ-सफाई का पाठ पढ़ाते हुए गांधी कहते हैं, “गाँवों में जहाँ-जहाँ कूड़े-कर्कट तथा गोबर के ढेर हों वहाँ-वहाँ से उनको हटाया जाय और कुओं तथा तालाबों की सफाई की जाय। यदि कांग्रेसी कार्यकर्ता नौकर रखे हुए है तो भी खुद सफाई का कार्य शुरू कर दें और साथ ही गाँव वालों को यह भी बतलाते रहें उनसे सफाई कार्य में शामिल होने की आशा रखी जाती है ताकि आगे चलकर अन्त में सारा काम गाँव वाले स्वयं करने लग जायें, तो यह निश्चित है कि आगे या पीछे गाँव वाले इस कार्य में अवश्य सहयोग देने लगेंगे।”
गाँधी आगे कहते हैं, “गाँवों के तालाब से स्त्री और पुरुष सब स्नान करने, कपड़े धोने, पानी पीने तथा भोजन बनाने का काम लिया करते हैं। बहुत से गाँवों के तालाब पशुओं के काम भी आते हैं। बहुधा उनमें भैंसें बैठी हुई पाई जाती हैं। आश्चर्य तो यह है कि तालाबों का इतना पूर्ण दुरुपयोग होते रहने पर भी महामारियों से गाँवों का नाश अब तक क्यों नहीं हो पाया है? यह एक सार्वत्रिक डॉक्टरी प्रमाण है कि पानी की सफाई के सम्बन्ध में गाँव वालों की उपेक्षा-वृत्ति ही उनकी बहुत-सी बीमारियों का कारण है।”
साभार : (व्यास, हरिप्रसाद 1963: ग्राम स्वराज्य महात्मा गाँधी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, पृ. 179-83)
/articles/taalaabaon-kai-saphaai-kai-yaada-baara-baara-dailaatae-rahae-baapauu