राणा प्रताप सिंह
मनुष्य के विकास मे स्वच्छता और प्रकृति से निकटता की संस्कृति आदि काल से ही रही है। स्वच्छता के होने वाले अनेक फायदे हैं, मसलन मन प्रसन्न होना, अच्छा लगना, सुन्दर दिखना, स्वस्थ रहना, अनको बीमारियों से बचे रहना आदि। इसलिए मनुष्य की सभ्यताओं के विकास के साथ ही दुनियाँ भर मे स्वच्छता के तरीकों का विकास भी हुआ होगा। भारत मे भी आदि कालीन सभ्यताओं और व्यवस्थाओं मे स्वच्छता स्वाभाविक रूप से विकसित हुई होगी। कहा जाता है, कि आदिकाल में जंगल में घर बना कर रहने वाले स्वाध्यायी ऋषि, मुनि खुरपे जैसे उपकरण लेकर शौच करने जाते थे, ताकि मल-मूत्र को गढ्ढे में दबा सकें। परम्पराएँ समय के साथ विकसित भी होती हैं, और क्षीण भी। बुद्ध, विवेकानन्द और गाँधी स्वच्छता की इस परम्परा के प्रमुख नायक रहे। गाँधी का युग तो हाल ही का इतिहास है, और उनके साहित्य, उनके ऊपर लिखे गए साहित्य और, उन पर बनी फिल्मों से उनके विचार बहुत बड़ी शहरी आबादी तक पहुँचे भी हैं। पर गाँव कही लगातार छूटते गए हैं। आजादी के पहले भी, और आजादी के बाद भी। तमाम विचारधाराओं, समूहों और राजनैतिक दलों के बीच गाँव भाषणों का प्रमुख मुद्दा तो रहे, परन्तु कार्य-क्षेत्र नहीं। फलतः धीरे-धीरे गाँव नशा, हिंसा और अशिक्षा के ‘हब’ बनते गए। सबसे ज्यादा गाँवो की और, गरीबों की बातें हुई। गाँव और गरीबी के मुद्दों पर राजनैतिक दलो और लोगो ने बरसो शासन किया। पर न तो गाँवो की सांस्कृतिक विरासतों के अच्छे पक्ष बचाए जा सके, न प्रकृति, न खेत-खलिहान, न सामूहिक गायन, नृत्य। विकास ने गाँवो को जो दिया, उससे अधिक ले लिया। जमींदार और अंग्रेज गए, तो पटवारी और पुलिस वाले आ गए। चोरों के मन में खाकी का भय तो नहीं बना, पर गरीबों के मन में खाकी का भय जरूर बन गया। औरतों के नाम पर अब भी उनके पति और पुत्र पंचायती राज के नुमाइन्दे हैं। आखिर इक्कीसवी सदी में भी औरतें इतनी बेबस वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रवाद को एक नया स्वर दिया है। स्वच्छता और सुशासन का। इस दिशा में शासन-प्रशासन का बिगड़ा हुआ तन्त्र कितना चल पाएगा,क्यों हैं?
वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रवाद को एक नया स्वर दिया है। स्वच्छता और सुशासन का। इस दिशा में शासन-प्रशासन का बिगड़ा हुआ तन्त्र कितना चल पाएगा, यह कहना तो मुश्किल है, परन्तु एक ताकतवर प्रधानमन्त्री की पहल ने कम से कम शहरी इलाको में स्वच्छता और सुशासन के पक्ष में माहौल बनाना शुरू कर दिया है।
बड़े अफसोस की बात है, कि दुनिया मे खुले में शौच करने में भारतीय पहले नम्बर पर हैं , ऐसा संयुक्त राष्ट्र संघ के आँकड़े बताते हैं। इन आँकड़ो के अनुसार भारत में लगभग 59.7 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार दुनिया भर की कुल आबादी का छठा हिस्सा, मतलब लगभग एक अरब लोग खुले में शौच करते हैं, जिनमें से करीब 82.5 करोड़ लोग सिर्फ 10 देशों में रहते हैं। इनमें से पहले स्थान पर है भारत। यहाँ 59.7 करोड़ लोग शौचालय का इस्तेमाल नहीं करते जो देश की कुल आबादी का लगभग 47 प्रतिशत है। दूसरे नम्बर पर इंडोनेशिया (5.1 करोड़), पाकिस्तान (4.1 करोड़) तीसरे, चौथे पर नेपाल (1.1 करोड़) और चीन (1 करोड़) पाँचवे नम्बर पर है।
गाँव अब भी छूटे हुए हैं। गाँवो की संस्कृति, आर्थिक और सामाजिक जटिलताएँ, शहरो से अधिक उलझी हुई हैं। वे अच्छी-बुरी परम्पराओं, तथा आधुनिकता और बाजार के बीच उलझे धागों को, सुलझा नहीं पा रहे हैं। उन्हें बाहर से मदद की दरकार है। सरकारी भी, गैर-सरकारी भी। सांस्कृतिक भी, आर्थिक भी और सामाजिक भी। खेती का नफा-नुकसान, छोटे दुकानदारों को वैश्विक बाजार की चुनौतियाँ, बच्चों के लिए उचित शिक्षा, बीमारो की उचित चिकित्सा, सामूहिकता और सामाजिक-आर्थिक समरसता के क्षीण होते जाने की चुनौतियाँ। बुजुर्गों की अपनी ठसक और परम्पराओं के साथ जीने की चेष्टा में संतानो से असहजता तथा अकेलापन। नौजवानो में श्रम और शिक्षा के प्रति उदासीनता और निराशा। जल्दी से जल्दी सब तरह की सहूलियतें और धन हासिल करने की तीव्र इच्छा और इसके न पूरा हो पाने की निराशा में नशे का आदी हो जाना। ये तमाम जानी-अनजानी चुनौतियाँ हैं, जिनसे गाँव आज भी जूझ रहे हैं। गाँवो के विकास के लिए तय सरकारी तन्त्र, मोटे तौर पर इन चुनौतियों का सामना नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि इस तन्त्र का एक बड़ा तबका सरकारी योजनाओं के लिए आवंटित धन में से अधिक से अधिक हिस्सा अपने लिए निकालने की जुगत में लगा रहता है। एक तरफ अविकसित बाजारवाद की चुनौतियाँ हैं, तो दूसरी तरफ गाँवो के हित के लिए तैनात शासन-प्रशासन की अराजकता है। तीसरी ओर ज्ञान की कमी और शोषण की परम्पराएँ, जो गाँवो की एक खराब विरासत रही है, वह हैं, और चौथी ओर, जगह, जमीन, सड़क, पानी, बिजली, कच्चे पक्के, आधे-अधूरे, झाड़ झंखाड़ और फसलों के बेतरतीब पड़े अवशेष, खेती के बेतरतीब साधन,पशुओं और मनुष्यो के मल-मूत्र का बेतरतीब विसर्जन एवं प्रबन्धन। चौतरफा समस्याओं से घिरे गाँवों के ऊपर और नीचे की दशा तथा दिशाएँ भी समस्याग्रस्त हैं। पुरानी परम्पराओं और मूल्यों से नए विचारों एवं वैश्विक शिक्षा से उपजे सवालों की सीधी टकराहट है। अलग-अलग पीढ़ियों की अलग तरह की इच्छाएँ और नैतिकताएँ हैं। कहीं पैरो के नीचे की जमीन दरकी हुई है, तो कहीं सिर के ऊपर का आसमान उजड़ा हुआ है। ऐसे दौर में हमने गाँव के पक्ष में खड़ा होने का कठिन फैसला किया है। आगे क्या होता, पता नहीं पर ‘हारिए न हिम्मत, बिसारिये न राम नाम’ के मन्त्र के साथ चल पड़े हैं। ’आगे देखी जायेगी’ वाली मुद्रा में।
मेरे एक परम हितैषी, परम आदरणीय मित्र हैं, स्वनामधन्य डाॅ. वेदप्रकाश पाण्डेय। उनका किसी सन्दर्भ में फोन आया, तो मैने अति उत्साह से बताया, कि हम हजारो ग्रामीण लाइब्रेरियों की योजना बना रहे है। उन्होंने स्नेहिल डाँट के साथ कहा, कि योजना बनाने से पहले, बड़े भाई से पूछते नहीं हो। बाद में फँस जाने पर पूछोगे। उनका मानना है, कि लाइब्रेरियों से ज्यादा जरूरी है, कि गाँव में शौचालय बनवाएं जाएँ। मैं ऐसा नही मानता। गाँवो में शौचालय बनवाने के पहले हमें यह अध्ययन करके समझना पड़ेगा, कि अधिकांश गाँवो के अधिकांश घरों मे शौचालय क्यों नहीं बने हैं। जो बने हैं, वे इस्तेमाल में क्यों नहीं आ रहे हैं ?
क्या शौचालय की आवश्यकता सिर्फ औरतों को है? और वह भी बहू-बेटियों को? बड़ी उम्र की महिलाओं को शौचालयों की जरूरत नहीं है, क्योंकि वे बाहर खेतों की ओर बिना शर्म और संकोच के जा सकती है?
गाँवो की स्वच्छता और शौचालय की जरूरत, मात्र आर्थिक मसला नहीं है बल्कि सांस्कृतिक और समाजशास्त्रीय मसला भी है। यह वर्ग भेद, उम्र भेद और लिंग भेद का मामला भी है। पुरूष के खुलेपन और औरतों के ढँकेपन की संस्कृति भी इससे जुड़ी है। कहीं अधिक खुला और निडर होना वर्चस्व का प्रतीक तो नहीं? तो इस वर्चस्व की परम्परा को चुनौती दिए बिना, शौचालयो के भरपूर उपयोग की परम्परा नहीं कायम की जा सकती है। मैंने डाॅ. पाण्डेय को कहा, कि पुस्तकालय की योजना मुझे आसान लगी, इसलिए फिलहाल इधर ध्यान गया। शौचालय की समस्या जटिल है, और उस पर शीर्ष शासन-प्रशासन की निगाह है, तो हम इस अभियान में कहाँ ठहरेंगे।
पर तब भी मुझे लगा, कि यह सही समय है, जब शौचालयों पर बात चलती रहनी चाहिए। इसकी जरूरत पर, इसके लिए धन की व्यवस्था पर, सरकारी सहयोग वाले शौचालयों के स्वरूप, तकनीकी, धन आवंटन और रिश्वत के हिसाब-किताब पर बात होनी चाहिए। क्या लोगों के साथ सवांद करके ऐसा माहौल तैयार किया जा सकता है, कि लोग स्वयं शौचालयों के, अपने अनुकूल, और अपने पास उपलब्ध धन के हिसाब से मॉडल बनाए। जैसे कमरे, बरामदे, रसोई और दालान के लिए धन जुटाते हैं, शौचालयों के लिए भी जुटाएँ। पता नहीं ऐसा माहौल तैयार करने में हमारी भूमिका कितनी कारगर हो सकती है परन्तु इस चर्चा के जरिए, मैं डाॅ. पाण्डेय को स न्देश देना चाहता हूँ, कि आपकी बात ने हम पर असर डाला। हम लोगो के बीच, अपनी संस्थाओ के बीच, अपने मित्रों के बीच कारीगरों और विद्वानों के बीच, अमीरों और सहयोग कर्ताओं के बीच इस समस्या को बार-बार उठाएंगे। आगे की प्रगति पर आपसे एवं अन्य मित्रों से रूबरू भी होते रहेगें। तब तक ग्रामीण लाइब्रेरी नेटवर्क और ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति आन्दोलन पर केन्द्रित कर रहे हैं। आप सबका सहयोग मिलेगा, ऐसी अपेक्षा है।
साभार : कहार जुलाई-दिसम्बर 2014
दैनिक जागरण 20 नवम्बर 2014
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