राजेश्वरी
स्वच्छता मानव विकास की मूलभूत पहचान है। यह उसकी सामर्थ्य का प्रतीक है तथा उसकी प्रगति का पैमाना भी है। स्वच्छता एक मूलभूत मौलिक अधिकार व दायित्व दोनों है। 21वीं शताब्दी में जहाँ तकनीकी विकास व खुशहाली के नये आयाम खोजे जा रहे हैं, वहीं विश्व के किसी भाग में या समाज के किसी हिस्से में अस्वच्छ जल व अस्वच्छता जनित कारणों से बड़े पैमाने पर मृत्यु होना एक विडम्बना ही है। ‘स्वच्छता’ क्या है? यह एक वृहत शब्द है जिसमें व्यक्तिगत सफाई, मनुष्य व पशुओं के मल का समुचित निपटान, कूड़ा-करकट का उचित प्रबन्धन, जल निकासी का उचित प्रबन्ध व आरोग्य युक्त जीवन में सहायक साफ-सुथरा निर्मल वातावरण आदि सम्मिलित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, “स्वच्छता का अभिप्राय मनुष्य के स्वस्थ निर्वहन को प्रभावित करने वाले भौतिक पर्यावरण के उचित प्रबन्धन से है।” अतः मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि स्वच्छता में मानव व्यवहार तथा वातावरण को साफ-सुथरा बनाए रखने के लिए भौतिक सुविधाएँ, जैसे शौचालयों की व्यवस्था, बहते पानी की समुचित निकासी सम्बन्धी व्यवस्था आदि शामिल हैं।
स्वच्छता की आवश्यकता: मानव विकास का सीधा सम्बन्ध उसकी रोगरहित दीर्घायु से है। अस्वच्छता मानव स्वास्थ्य व उसके विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। यह अनेक बीमारियों की जन्मदाता है। समय व बारम्बार रोगों से ग्रस्त रहने से न केवल व्यक्तिगत व पारिवारिक परेशानियाँ बढ़ती हैं अपितु उसकी असमर्थता से आर्थिक उत्पादकता भी घटती है। इसके अतिरिक्त छोटी उम्र में रोगों से उनके समस्त शारीरिक विकास, मानसिक विकास आदि पर भी असर पड़ता है। इस प्रकार मानव विकास में खलल डालने वाला यह चक्र एक दुश्चक्र के रूप में पूरे समाज व राष्ट्र की उन्नति को प्रभावित करता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख लोगों की मानव मल जनित बीमारियों से मृत्यु हो जाती है तथा इनमें 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या अधिक है। विकासशील देशों में यह स्थिति अधिक दयनीय है। डायरिया से होने वाली कुल मृत्यु का एक चौथाई भाग अकेले भारत में है। पोलियो जैसी बीमारी का विकसित देशों में नामोनिशान तक नहीं है। जबकि विश्व के आधे पोलियो ग्रस्त लोग भारत में हैं। यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि विश्व में लगभग 200 करोड़ जनसंख्या शौच सुविधाओं के बिना जीवनयापन करती है तथा उसकी एक बड़ी तादाद यानी 63 करोड़ लोग भारत में हैं। बिना शौच सुविधाओं के रहना अर्थात अपने आस-पास के वातावरण को दूषित करना या ऐसे वातावरण में रहना जहाँ हवा में लगातार कीटाणु हों व गन्दगी में उन कीटाणुओं को पनपने के अवसर देना, लोगों का उनके सम्पर्क में आना तथा न चाहते हुए भी संक्रामक बीमारियों के घेरे में रहना इसका परिणाम है। शोध बताते हैं कि बहुत हद तक कुपोषण भी अस्वच्छता का परिणाम है। ऐसा इसलिए कि संक्रमित जल तथा अस्वच्छता से उत्पन्न आँत के कीड़ों के विषाणु भोजन के पोषक तत्वों को शरीर में अवशोषित नहीं होने देते, जिससे रोग अवरोधकता कम हो जाती है। परिणामस्वरूप बच्चों का भौतिक विकास नहीं हो पाता। भारत में विश्व की 19 प्रतिशत बाल जनसंख्या है तथा कुपोषण से पीड़ित कुल बालकों का एक चौथाई भाग भी भारत में ही है।
इस प्रकार इस सम्पूर्ण दुश्चक्र की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी स्वच्छता है। यह कड़ी सबसे कमजोर भी है क्योंकि कम लागत यानी कुछ बुनियादी सुविधाओं तथा व्यवहार में बदलाव से इसको तोड़ा जा सकता है तथा इन बीमारियों के पूरे चक्र को खत्म किया जा सकता है। शोध दर्शाते हैं कि केवल शौचालय की उपलब्धता व उपयोग से सक्रांमक बीमारियों में लगभग 80 प्रतिशत तक की कमी लाई जा सकती है। यह भी ध्यान रहे कि भारत में इन सक्रंमित बीमारियों से हुई मृत्यु लगभग 16 प्रतिशत है।
प्रायः यह भी माना जाता है कि अस्वच्छता का प्रमुख कारण गरीबी है। गरीबी का दुश्चक्र व सुविधाओं का अभाव ही उपरोक्त बातों का मूल कारक है। लेकिन यह भ्रामक है। तथ्य यह है कि शौचालयों की उपलब्धता व इनके उपयोग का सम्पन्नता से अधिक सम्बन्ध नहीं है। विश्व स्तर पर भी यह देखा गया है कि कुछ राष्ट्र आर्थिक रूप से समृद्ध न होते हुए भी स्वच्छता में अग्रणी स्थान रखते हैं। भारत में भी सम्पन्न कहे जाने वाले प्रान्तों, जैसे गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, तमिलनाडु आदि के केवल 35 से 45 प्रतिशत घरों में ही शौचालयों की सुविधाएँ हैं। निश्चय ही स्वच्छता लोगों की जागरुकता, अवधारणा व आदतों से जुड़ी है। आश्चयर्जनक तथ्य यह है कि हरियाणा जैसे समृद्ध प्रान्त में भी 56 प्रतिशत घरों के लोग खुले में ही शौच जाते हैं। इससे उत्पन्न कीटाणु व वातावरण के दूषित होने की स्थिति का अनुमान ही भयावह है। अस्वच्छता की यह तस्वीर ग्रामीण व शहरी दोनों इलाकों में दयनीय है। यद्यपि ग्रामीण इलाकों में खुले स्थान अधिक होने और अशिक्षा, बीमारियों सम्बन्धी जागरुकता कम होने के कारण स्वच्छता को दरकिनार कर दिया जाता रहा है। लेकिन शहरों में भी बेइंतहा गन्दगी व्याप्त है, शहरों की स्थिति अपेक्षाकृत अधिक भयावह इसलिए भी है क्योंकि यहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक है, खुले स्थान न के बराबर हैं और ऐसे में थोड़ी लापरवाही से ही मलजनित बीमारियाँ महामारी का रूप ले सकती हैं। भारत निर्माण कार्यक्रम के तहत शक्तिशाली ग्रामीण भारत के विकास में स्वच्छता की महत्ता को समझा गया तथा इसके क्रियान्वयन में ग्राम पंचायतों की सक्रिय भागीदारी पर विशेष जोर डाला गया। इसके अतिरिक्त इसकी नीतियों में महिलाओं की भागीदारी, स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों के माध्यम से उनकी सहभागिता, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं तथा अन्य स्वयंसेवी समूहों द्वारा जनसंख्या को जागरूक करने आदि सम्बन्धी भागीदारी सम्मिलित है। इस अभियान की सफलता को पुरस्कृत निर्मल गाँव के रूप में देखा जा सकता है। राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित आठ राज्यों के लगभग 1,600 गाँव इस प्रयास के सफल उदाहरण हैं।
भारत निर्माण के तहत स्वच्छता अभियान की शुरुआत में विभिन्न राज्यों में सन् 2003-04 से हुई तथा 2005 में कुल 40 गाँवों को निर्मल गाँव घोषित किया गया जिसमें 26 गाँव महाराष्ट्र व तमिलनाडु के थे। सन् 2006 में सम्मानित गाँवों की संख्या 760 हो गई तथा इसमें भी 381 ग्राम पंचायतें महाराष्ट्र की थीं। सन् 2007 में 4,947 ग्राम पंचायतों को सम्मानित किया गया। इसमें महाराष्ट्र 1,974 ग्राम पंचायतों के साथ पहले, गुजरात 576, उत्तरप्रदेश 488 तथा पश्चिम बंगाल 475 निर्मल ग्राम पंचायतों के साथ दूसरे, तीसरे व चौथे स्थान पर थे। 2007 में हरियाणा के 60 ग्राम इस सन्दर्भ में राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किए गए। आज हरियाणा की लगभग 800 ग्राम पंचायतें इस स्वच्छता अभियान में सक्रिय भागीदारी व निर्मल ग्राम के रूप में पुरस्कृत हैं। यह सभी ग्राम पंचायतें इस बात की साक्षी हैं कि किसी कार्यक्रम की सफलता में आंगनबाड़ियों, स्कूलों, स्वयंसेवी समूहों आदि को एकजुट रखने के प्रयास व प्रशासनिक इच्छाशक्ति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। हरियाणा को अपने सभी आयामों में सम्पूर्ण विकास के लिए इन्हीं प्रयासों से सबक लेने की आवश्यकता है।
(लेखिका भूगोल विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में प्राध्यापक हैं।)
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साभार : योजना अगस्त 2010
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