स्वच्छता अभियान कहीं जाया न चला जाए

शुभागतो दासगुप्ता

 

भारत में यह दौर साफ-सफाई के क्षेत्र में ऐतिहासिक बदलाव का है। प्रधानमन्त्री ने स्वच्छ भारत अभियान को “देश को साफ-सुथरा बनाने के लिए व्यापक जनान्दोलन” कहा है और यह अपील देश के बड़े तबके में अपना असर दिखा रही है। मजबूत केन्द्र सरकार का जोर साफ-सफाई और स्वच्छ वातावरण पर है। यह इस सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों की घोषणा से भी जाहिर है जिसमें स्वच्छ भारत अभियान (ग्रामीण), स्वच्छ भारत अभियान (शहर), अटल मिशन फॉर रीजूवेनेशन एण्ड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (अमृत), राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन और नेशनल रिवर कंजर्वेशन प्लान वगैरह प्रमुख हैं। नीतिगत संवादों में साफ-सफाई को महत्व मिलने से कॉर्पोरेट क्षेत्र, राज्य सरकारों, स्थानीय निकायों, मीडिया और सामुदायिक संगठनों के बीच साफ-सफाई और स्वच्छ वातावरण के लिए नए-नए तरीकों को आजमाने की कोशिशें चल पड़ी हैं।

 

हालाँकि साफ-सफाई के सकारात्मक नतीजों के पक्ष में बने माहौल को अगर कारगर नतीजों तक पहुँचना है और सही दिशा में ले जाना है तो हमें कचरा प्रबंधन की समस्या, उसकी चुनौतियों और अवसरों के लिए बेहतर समझ विकसित करनी होगी। इसके अलावा हमें सेहत तथा वातावरण के लिए नुकसानदेह कचरे पर अंकुश लगाने के लिए काफी सोच-विचार कर अपना रास्ता चुनना होगा।

 

भारतीय शहरों में साफ-सफाई और कचरा प्रबंधन के लक्ष्य को हासिल करने का केन्द्र सरकार का सपना तभी पूरा हो सकता है जब समुदायों को साथ लिया जाए और नवाचार को जगह दी जाए।

 

देश में शहरी ठोस कचरा (एमएसडब्ल्यू) तेजी से बढ़ रहा है और इसके और भी ज्यादा बढ़ने की सम्भावना है। एक आकलन के मुताबिक, 2012 में देश में शहरी कचरा प्रतिदिन करीब 13,376 करोड़ टन हुआ करता था। इसमें हर साल 5 फीसदी की दर से बढ़ोतरी की सम्भावना जताई गई है, जिससे 2031 तक शहरी ठोस कचरे के 45,013.2 करोड़ टन हो जाने की सम्भावना है। इस भारी बढ़ोतरी की वजह यह है कि शहरी आबादी भी तेजी से बढ़ रही है और शहरी खपत में भी भारी इजाफा हो रहा है।

शहरी विकास मन्त्रालय की शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर और सेवाओं के मामले में 2011 में गठित एक उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समिति ने शहरी कचरा प्रबंधन सेवाओं के सकल संचालन और रख-रखाव के खर्च और निवेश का आकलन किया था। शहरी कचरा प्रबंधन के लिए 2012-31 तक कुल पूँजी निवेश 48,587 करोड़ रु का अनुमान लगाया गया, जबकि इसी अवधि में इन सुविधाओं के संचालन और रख-रखाव के लिए अतिरिक्त 2,37,906 करोड़ रु. की जरूरत होगी।

हालाँकि यह भी असलियत है कि जो वित्तीय संसाधन (2005 में शुरू किए गए जवाहरलाल नेहरू शहरी पुनर्नवीकरण योजना या जेएनएनयूआरएम के तहत) उपलब्ध कराए गए, उनसे 26,208 करोड़ रु. की लागत वाली मंजूरशुदा 177 परियोजनाओं में सिर्फ 52 ही पूरी हो पाईं।

भारतीय शहरों में सेप्टेज मैनेजमेंट सुविधा भी नहीं है और जो गन्दा पानी भूमिगत सीवरेज नेटवर्क में नहीं जाता है, उसे शोधित किए बिना ही ऊपरी नालों में डाल दिया जाता है।

जल-मल के निस्तारण के हालात तो और बुरे हैं। जल-मल प्रबंधन में अभी फोकस सिर्फ बड़े सीवरेज और जल-मल शोधन संयंत्रों पर ही है, जिनमें भारी निवेश की जरूरत होती है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के 2013 में लगाए गए एक आकलन के मुताबिक एक लाख से अधिक आबादी वाले पहली श्रेणी के शहरों में 2013 में भूमिगत सीवरेज से प्रतिदिन 3,555.8 करोड़ लीटर जल-मल निकला, जो देश में कुल जल-मल का 93 फीसदी है। इन शहरों के जल-मल शोधन संयंत्रों की क्षमता 1,155.2 करोड़ लीटर प्रतिदिन की बताई जाती है, जो कुल जल-मल का महज 32 फीसदी है और घरों से निकलने वाले कुल गन्दे पानी का महज 10-12 फीसदी ही है जिसे शहरों में शोधित करने की जरूरत है। भारतीय शहरों में सेप्टेज मैनेजमेंट सुविधा भी नहींं है और जो गन्दा पानी भूमिगत सीवरेज नेटवर्क में नहीं जाता है, उसे शोधित किए बिना ही ऊपरी नालों में डाल दिया जाता है। सीपीसीबी ने यह भी पाया है कि वास्तविक जल-मल शोधन संयंत्र की कुल क्षमता से काफी कम मात्रा में होता है और इसकी वजह यह है कि जल-मल प्रवाह की व्यवस्था दुरुस्त नहीं होती औऱ शोधन यन्त्र का संचालन और रखरखाव भी सही ढंग से नहीं हो पाता है।

शहरी विकास मन्त्रालय की उच्चस्तरीय समिति ने 2009 की स्थिर कीमतों पर संचालन और रखरखाव के साथ शोधन संयंत्रों में पूँजी निवेश का आकलन किया था। इसमें यह मानकर चला गया था कि सभी शहरों की भूमिगत सीवेज व्यवस्था है और पूरे जल-मल का संग्रहण होता है। उस आकलन के मुताबिक 2031 तक 2,42,688 करोड़ रु का निवेश करना होगा और शोधन संयंत्रों के संचालन और रखरखाव में उसी अवधि में अतिरिक्त 2,36,964 करोड़ रु लगेंगे।

लेकिन ठोस कचरा प्रबंधन की तरह ही जल-मल शोधन के मामले में भी परियोजनाओं के क्रियान्वयन की दर बहुत कम है। इस मामले में भी 2005 में जेएनएनयूआरएम के तहत 2,37,923 करोड़ रु की लागत से मंजूरशुदा 310 परियोजनाओं में से सिर्फ 86 ही मार्च 2014 तक पूरी हो पाई हैं।

शौचालयों की उपलब्धता के मामले में भी काफी कम प्रगति हुई है। वैसे, तो शहरी भारत दुनिया की शहरी आबादी के मुकाबले महज 11 प्रतिशत ही है, लेकिन 2014 तक 50 फीसदी से अधिक शहरवासियों को शौचालय की सुविधा नसीब नहीं थी और वे खुले में शौच करने को अभिशप्त थे। इसी वजह से स्वच्छ भारत अभियान में निजी, सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालयों पर फोकस स्वागतयोग्य है और यह शहरी भारत को खुले में शौच से मुक्ति दिलाने के लिए बेहद जरूरी है। भारत साफ-सफाई के मामले में अपने सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया है और मोटे तौर पर इस नाकामयाबी के लिए वह खुद दोषी है।

साफ-सफाई के दूसरे क्षेत्रों मसलन ड्रेनेज और नदियों के पुनर्जीवन के मामले में भी हाल बहुत कुछ ऐसा ही है। लिहाजा, इस दुशचक्र को तोड़ने के लिए चौखम्भा स्वच्छता क्रान्ति (चार स्तम्भों पर आधारित सफाई क्रान्ति) की बेहद जरूरत है।

नई तकनीक और सेवाओं के मॉडल का इस्तेमाल

ऊपर जिन तीन क्षेत्रों-ठोस कचरा प्रबंधन, सबको शौचालय सुविधा और जल-मल प्रबंधन का जिक्र किया गया है, उनमें महत्वपूर्ण नवाचार की गुंजाइश है जिस पर सरकार के मौजूदा प्रयासों में विचार नहीं किया जा सका है। ठोस कचरा प्रबंधन में जेएनएनयूआरएम जैसी योजनाओं में जिस मॉडल का पालन किया जाता है और अब स्वच्छ भारत मिशन (शहर) के तहत शून्य कचरा प्रबंधन के तीन मूल विचारों-घटाओ, फिर इस्तेमाल करो और पुनः उत्पादन की ओर ध्यान नहीं दिया गया है। प्रधानमन्त्री अक्सर इसे नजरअंदाज कर जाते हैं।

शौचालयों की उपलब्धता के मामले में भी काफी कम प्रगति हुई है। भारत साफ-सफाई के मामले में अपने सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य को हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया है और मोटे तौर पर इस नाकामयाबी के लिए वह खुद दोषी है।

इस क्षेत्र में नवाचार की सख्त जरूरत है, ताकि लोगों से फिर इस्तेमाल करने पर जोर देने के बदले इन्हें छोटे उद्योगों को इनका फिर इस्तेमाल करने पर जोर देने के बदले इन्हें छोटे उद्योगों को इनका फिर इस्तेमाल करके नया उत्पाद बनाने और फिर इस्तेमाल करने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। स्थानीय स्तर पर रीसाइक्लिंग और कम्पोस्टिंग के छोटे-छोटे उद्योग लैटिन अमेरिकी देशों और मिस्त्र में कारगर ढंग से चल रहे हैं। भारत में भी पुणे में स्वच्छ भारत मिशन (शहर) के तहत विभिन्न शहरों को ऐसी नई व्यवस्थाएँ अपनाने को प्रेरित करना चाहिए।

इसी तरह, जल-मल के क्षेत्र में भी सरकार का जोर अभी भी सीवरेज व्यवस्था पर है जिसमें लागत काफी ज्यादा आती है और उसका निर्माण और रख-रखाव काफी खर्चीला होता है। ब्राजील, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे कई देशों में सहकारी सीवेज, विकेन्द्रीकृत जल-मल प्रबंधन और सबसे बढ़कर नियमित सेप्टेज प्रबंधन सेवा जैसे वैकल्पिक उपाय कारगर साबित हो रहे हैं। ये उपाय देश के 5 लाख से कम आबादी वाले शहरों के लिए बेहद उपयोगी हो सकते हैं।

शौचालयों के निर्माण में भी कई तरह की नई तकनीक आ गई हैं। ऐसा ही एक मॉडल केरल के ईरम में अमल में लाया गया है। फिर, तिरुचिरापल्ली में ग्रामालय के सामुदायिक शौचालय या पुणे में स्पार्क और समग्र मॉडल भी काफी कामयाब रहा है। इन्हें स्वच्छ भारत मिशन (शहर) का जरूरी हिस्सा बनाया जाना चाहिए।

इसके साथ-साथ स्वच्छ भारत मिशन, अमृत, स्वच्छ गंगा मिशन जैसी योजनाओं में भी शोध, शहर विश्लेषण और क्षमता वृद्धि जैसे प्रयोग चलने चाहिए, जिससे संस्थाओं और एजेंसियों का टिकाऊ तन्त्र स्थापित हो सके।

स्थानीय निकायों का सशक्तीकरण

समूचे शहरी इलाकों में बुनियादी सेवाओं का स्तर सुधारने के लिए स्थानीय निकायों को अधिकारसम्पन्न बनाने की जरूरत है। इसके लिए राज्य सरकारों को अपने कुछ अधिकार स्थानीय निकायों को हस्तांतरित करने होंगे। मसलन, देश में ज्यादातर राज्यों में स्थानीय निकायों के जिम्मे जल-मल प्रबंधन का काम नहीं है। अक्सर सीवर व्यवस्था के निर्माण के बाद ही राज्य सरकारें इसे स्थानीय निकायों को सौंपती हैं और इसके संचालन के लिए न वित्तीय संसाधन मुहैया कराए जाते हैं और न ही प्रशिक्षित कार्यबल।

स्वच्छ भारत के सपने को साकार करने के लिए शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर के वित्तीय संसाधनों में नवाचार को बढ़ावा देना ही होगा।

स्थानीय निकायों के पास ऐसे योजनाकारों की सेवा लेने का अधिकार होना चाहिेए जो अपने शहर की मुख्य चुनौतियों को समझने के लिए अध्ययन-विश्लेषण करें, न कि दूसरे शहरों के समाधान की नकल करें। योजनाकारों के अधिकार क्षेत्र में कार्यान्वयन के लिए प्रशिक्षित कार्यबल और वित्तीय संसाधन भी होने चाहिए। स्थानीय निकायों की सेवाओं के लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। महाराष्ट्र में अपेक्षाकृत छोटे स्थानीय निकायों के पास दूसरे राज्यों के निकायों से ज्यादा अधिकार हैं, इसलिए आश्चर्य नहीं कि उनका कचरा प्रबंधन दूसरे राज्यों के मुकाबले बेहतर हैं।

इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश

शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश में नवाचार भी स्वच्छ भारत को मजबूत बनाने के लिए जरूरी हैं। स्वच्छ भारत मिशन, एनएमसीजी, अमृत सरीखी योजनाओं में निवेश के मामले में इन्फ्रास्ट्रक्चर में पूँजी निवेश के बदले उसमें ताउम्र लागत की गणना का हिसाब रखा जाना चाहिए, ताकि निवेश में नवाचार की सम्भावना बने। पहले एक कामयाब प्रयोग सड़क के क्षेत्र में केन्द्रीय सड़क कोष बनाकर किया गया है। साफ-सफाई और कचरा प्रबंधन पर फोकस के मद्देनजर नियमित राजस्व प्राप्ति की धारा से ही ऐसे ही ‘साफ-सफाई और शहरी वातावरण’ कोष का गठन किया जाना चाहिए। इसे पेट्रोल चालित कारों पर छोटा-सा शुल्क लगाकर या सरकारी खर्च के एक छोटे-से हिस्से को अलग करके गठित किया जा सकता है। यह कोष राष्ट्रीय स्तर पर भले बने लेकिन इसका प्रबंधन राज्य के स्तर पर होना चाहिए और इसमें शहर के सम्पत्ति कर का एक हिस्सा भी जोड़ा जा सकता है ‘साफ-सफाई और वातावरण’ कोष से शहर के इन्फ्रास्ट्रक्चर के साथ-साथ पीपीपी परियोजनाओं और विकास के अन्य सुविचारित मॉडल विकसित किए जा सकते हैं।

समुदाय की साझेदारी

देश के संघीय ढाँचे में साफ-सफाई और कचरा प्रबंधन में सुधार के लिए स्थानीय निकायों की भूमिका महत्वपूर्ण है। स्थानीय नेताओं को भी ‘बदलाव के नायक’ की भूमिका निभानी होगी और साफ-सफाई और कचरा प्रबंध में सुधार के लिए अपने समाज में सहमति बनानी होगी, ताकि लोग इसमें दिलचस्पी दिखाएँ और उसके रख-रखाव पर नजर रखें। ग्रामीण साफ-सफाई के मामले में एक मॉडल दुनिया भर में अपनाया जाता है जिसे अमूमन समुदाय संचालित पूर्ण सफाई कहा जाता है। इसके इस्तेमाल के कुछेक संवाद सम्बन्धी बदलावों के साथ इसे शहरी क्षेत्रों में भी लागू किया जा सकता है। इस मॉडल से केवल सामुदायिक एकता का ही भाव पैदा नहीं होता, बल्कि इसे लोगों को शौचालय बनाने की दिशा में प्रेरित भी किया जा सकता है। शहरी ठोस कचरा प्रबंधन के मामले में भी स्थानीय नेताओं या पार्षदों को बदलाव लाने की दिशा में नेतृत्व करना होगा। इस तरह हर दरवाजे से कचरा उठाने और स्थानीय रीसाइक्लिंग यूनिट बनाने को प्रोत्साहित किया जा सकता है।

देश में अगर वाकई सफाई क्रान्ति लानी है और दुनिया के मानकों पर हमें खरा उतरने के साथ अपने सहस्त्राब्दी लक्ष्य को हासिल करना है तो इन मुद्दों पर विचार करने की जरूरत है।

स्वच्छता से जुड़े कुछ तथ्य:

1. 2050 तक भारत की 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी शहरी हो जाएगी। लेकिन साफ-सफाई की हालत अब भी खस्ता बनी हुई है।

2. 4,041 वैधानिक शहरों में 80 लाख घर शौचालय की सुविधा से वंचित हैं।

3. 18.6 प्रतिशत शहरी घरों के परिसर में अपने शौचालय नहीं हैं।

4. शहरों में रहने वाले 12.6 प्रतिशत लोग खुले में शौच करते हैं। इनमें से 6 प्रतिशत सामुदायिक शौचालयों का इस्तेमाल करते हैं।

और हम नहीं जानते कि कचरे का प्रबंधन कैसे करें

1. 1.3 लाख मीट्रिक टन ठोस कचरा हमारे शहरों और कस्बों से निकलता है। इसमें से 0.91 लाख मीट्रिक टन या 68 प्रतिशत कचरा इकट्ठा किया जाता है।इसमें से 0.42 लाख मीट्रिक टन या 32 प्रतिशत कचरा प्रतिदिन सड़कों पर

 

या इस कचरे का निबटान किस तरह करें?

1. प्रथम श्रेणी के शहर यानी वे शहर जिनकी आबादी एक लाख से ज्यादा होती है। ऐसे हमारे यहाँ 498 शहर हैं। प्रतिदिन इन शहरों से 3,555.8 करोड़ लीटर जल-मल निकलता है। जबकि केवल 32 प्रतिशत शोधित होता है।

2. दूसरी श्रेणी के शहर, जिनकी आबादी 50,000 से ज्यादा पर एक लाख से कम है। ऐसे हमारे यहाँ 410 शहर हैं। प्रतिदिन इन शहरों से 269.6 करोड़ लीटर जल-मल निकलता है। जबकि सिर्फ 8 प्रतिशत शोधित हो पाता है।

3. भारत में पर्याप्त साफ-सफाई के लिए भी हर साल 4.44 लाख करोड़ रु. की जरूरत होगी।

5. जीडीपी का 6.4 प्रतिशत हिस्सा उत्पादन और आय में चला जाता है।

6. अच्छी साफ-सफाई से हर साल प्रति व्यक्ति आय में 6,000 रु. का इजाफा

7. साफ-सफाई अभियान को अभी लम्बा रास्ता तय करना बाकी है।

8. स्वच्छ भारत अभियान के क्रियान्वयन के लिए अनुमानित लागत है 62,009 करोड़ रु.

स्रोत: सीपीसीबी

 

शुभागतो दासगुप्ता दिल्ली के सेंटर फॉर रिसर्च में सीनियर फेलो हैं।

 

साभार : इण्डिया टुडे 26 अगस्त 2015

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