‘स्वच्छ भारत’ और इसके ‘ब्राण्ड एम्बैसेडर’ कहाँ हैं

हरिजय सिंह

 

नर्स: “डॉक्टर-डॉक्टर, डेंगू का केस आया है।

डॉक्टर: पर इस बिजी टाइम में कौन लाया?

नर्स: झुग्गी-झोंपड़ी से गरीब का बच्चा।

 

डॉक्टर: हमारे पास बैड नहीं, साँस लेने के सैट नहीं। कहीं और जाए या सी.एम. से डेंगू सर्टीफिकेट ले आए।”

 

सी.एम. कार्यालय: ‘डेंगू मच्छरों को गिरफ्तार करो।’ हमने पुलिस को आर्डर दे दिए हैं। करोड़ों रुपए के विज्ञापन दिए हैं।

 

क्लर्क: सर मच्छर तो अनपढ़ हैं!

सी.एम.कार्यालय: तो हम क्या करें? गृहमन्त्री राजनाथ मच्छर-पकड़ बेड़ियाँ पुलिस को दें।

सी.एम.केजरीवाल: मन मेरा बैचेन, हम सुप्रीम कोर्ट में जाएँगे।

 

इस व्यंग्य प्रकरण में गवर्नेंस की वी.वी.आई.पी आधारित प्रणाली की विडम्बनापूर्ण संवेदनहीनता को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। यह प्रणाली आम आदमी को प्रत्येक प्रवेशद्वार से ही वापस मोड़ देती है।

 

अविनाश रावत (7), अनन्त शर्मा (5), अंकित (11) और मेनका (11) के हृदय विदारक मामले लम्बे समय से चली आ रही वी.वी.आई.पी. संवेदनहीनता और प्राइवेट अस्पतालों की किसी भी कीमत पर कमाई करने की मानसिकता का सटीक उदाहरण हैं। ऐसा लगता है कि न केवल प्रशासन की पहुँच असंतुलित है, बल्कि वह लगातार नीचे की ओर फिसलता जा रहा है। सार्वजनिक सेवाओं के परिचालन में से मानवीय संवेदना पूरी तरह गायब है।

 

इसके साथ ही प्रभारी व्यक्तियों में से ईमानदारी और जवाबदारी भी पंख लगाकर उड़ चुकी है। प्रत्येक स्तर पर ‘सब चलता है’ वाली मानसिकता व्याप्त है। दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में डेंगू मच्छरों का घातक डंक तबाही मचा रहा है। फिर भी इन इलाकों में सड़कों, गलियों और कूचों पर गन्दगी के ढेर लगे हैं और खुले सीवरों में से उठने वाली बदबू नाक में दम कर देती है।

 

खेद की बात है कि व्यवस्था में जहाँ-जहाँ भी कमजोरियाँ हैं, वहाँ पर स्वार्थी और घटिया किस्म के लोग भरे पड़े हैं, जिन्हें सामान्य लोगों के दुख-तकलीफों और भूख-प्यास से कोई वास्ता नहीं। जहाँ तक सरकार की बात है, उसकी ओर से नारों और आकर्षक जुमलों की कोई कमी नहीं लेकिन इनसे लोगों के मनों में झूठी आशाएँ जाग रही हैं।

 

 

‘स्वच्छ भारत’ और इसके बाण्ड एम्बैसेडर कहाँ है? ब्राण्ड एम्बैसेडर तो केवल दिखावे के खिलौने मात्र हैं। ऐसा लगता है हर कोई समाचार चैनलों और अखबारों के लिए प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री और बॉलीवुड हस्तियों के साथ फोटो खिंचवाने के लिए काम कर रहा है।

 

 

 

 

कीर्तिमान बनाए जाते हैं। साफ-सुथरे सम्भ्रान्त मोहल्लों में झाड़ू लगाया जाता है, जहाँ केवल सूखे पत्ते ही बिखरे होते हैं और उन्हें बहुत ही स्टाइलिश ढँग से झाड़ू लगाते हुए बिना किसी खास प्रयास के इकट्ठा कर दिया जाता है। इसके बाद वी.वी.आई.पी. लोग अपने झाड़ू एक कोने में लगाकर मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाते हैं। किसी को सफाई कर्मचारियों की चिन्ता नहीं। न तो उनके दुखों-तकलीफों और मानवीय गरिमा की किसी को चिन्ता है और न ही उन्हें सफाई के आधुनिक उपकरणों से लैस करने की।

 

आखिर कौन और किसको मूर्ख बना रहा है? जहाँ तक सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों का सम्बन्ध है, जितना कम कहा जाए, उतना ही अच्छा है। यदि प्राइवेट अस्पतालों को भूमि आबंटन रियायती दरों पर किया जाता है, तो क्या किसी को कोई परवाह है। अस्पतालों पर ऐसा उपकार करने वाले कई गुणा अधिक ‘कमाई’ के रूप में अपना हिस्सा हासिल कर लेते हैं। उसके बाद सब कुछ सामान्य कारोबार की तरह चलता रहता है- यानी कि पैसा दो और अपनी हित साधना करो।

 

संघर्षशील सामान्य मरीज का यदि बीमा न हुआ हो तो उसे इलाज का भारी खर्च वहन करना पड़ता है। वास्तव में हमारे अस्पताल दूसरों के दुख-तकलीफों का लाभ उठाते हुए अपनी स्वार्थपूर्ति और धन कमाने का मनहूस धन्धा बनकर रह गए हैं। यही हमारे जीवन की कड़वी वास्तविकता है।

 

सरकारी अस्पतालों की अपनी समस्याएँ हैं। उनके पास पर्याप्त तन्त्र नहीं है और जितने मरीज वहाँ आते हैं, उतनों से निपट पाना उनके बूते की बात नहीं। उनकी पूरी व्यवस्था बहुत भारी बोझ तले कराह रही है। प्रारम्भिक इलाज करने के बाद मरीजों को अगली सुविधाएँ उपलब्ध कराने का तन्त्र मौजूद नहीं।

 

दिल्ली का ‘एम्स’, चण्डीगढ़ का पी.जी.आई. और अन्य कई सार्वजनिक अस्पताल प्रोफेशनल तौर पर बहुत ही सक्षम संस्थान हैं और उनका इलाज भी आम मरीजों के बूते की बात है। लेकिन यहाँ भी मुख्य समस्या यह है कि सामान्य गरीब मरीजों के प्रति उपयुक्त रवैया नहीं अपनाया जाता। इसके अलावा नौकरशाही का रूप धारण कर चुके स्वास्थ्य विभागों द्वारा अपने तन्त्र का संवर्द्धन करने और मरीजों की उचित देखभाल करने की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है। मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे में हमें स्वास्थ्य प्रणाली को नई तर्ज पर ओवरहाल करके इसे प्रोफेशनल रूप प्रदान करना होगा। केन्द्र और राज्यों में वर्तमान में जिस तरह के मन्त्री तैनात हैं, वे इस मामले में अधिक काबिल नहीं है।

 

खेद की बात है कि व्यवस्था में जहाँ-जहाँ भी कमजोरियाँ हैं, वहाँ पर स्वार्थी और घटिया किस्म के लोग भरे पड़े हैं, जिन्हें सामान्य लोगों के दुख-तकलीफों और भूख-प्यास से कोई वास्ता नहीं। जहाँ तक सरकार की बात है, उसकी ओर से नारों और आकर्षक जुमलों की कोई कमी नहीं लेकिन इनसे लोगों के मनों में झूठी आशाएँ जाग रही हैं।

 

सभी के लिए स्वास्थ्य। हमारी वी.वी.आई.पी. आधारित प्रणाली में सबसे शीर्षस्थ वरीयता यही होनी चाहिए। ऐसा करने के लिए तत्काल सुधारों और व्यवस्था की सफाई की जरूरत है। लेकिन जब तक सरकार स्वयं सही दिशा में आगे नहीं बढ़ती और सामुदायिक सहयोग पर आधारित संरचना का विकास करते हुए प्रणालीगत सुधार नहीं करती व खुद को कठोर जवाबदेही की शर्तों से नहीं बाँधती, तब तक कुछ भी सुधरने वाला नहीं। सरकार को सामान्य मरीजों से सम्बन्धित अन्य कई त्रुटियों पर भी काबू पाना होगा। खासतौर पर उनके प्रति मानवीय प्रतिक्रिया की कमी को दूर करना होगा और उन्हें विश्वास दिलाने वाला ऐसा रवैया धारण करना होगा कि उन्हें लगे कि उनकी चिन्ता की जा रही है। इसी में ही हमारे भविष्य की आशाओं के बीज छिपे हुए हैं। प्रधानमन्त्री और मुख्यमन्त्री साहिबान, क्या आप सुन रहे हैं?

 

साभार: नवोदय टाइम्स 19 सितम्बर 2015

 

लेखक ईमाल: hari.jaisingh@gmail.com

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