सूरजपाल चौहान की दो कविताएँ

मेरी माँ


भोर होने से पहले

सड़क पर

झाड़ू लगाती

मेरी माँ,

जैसे खरोंच रही हो

चुपचाप सीने को

फौलादी व्यवस्था को

अपने नाखूनों से।


उस पार जाती

सड़क के वह,

सिर पर बजबजाती गन्दगी

की टोकरी रखे

जैसे-उठाया हुआ हो

उसने एक शव

मरी हुई व्यवस्था का।



वह दिन जरूर आएगा


वह दिन जरूर आएगा

जब एक बाभन

अपने बाभन होने पर

शर्म से पानी-पानी होगा

भंगिन का बेटा

करेगा देश का नेतृत्व

पढ़ाएगा एकता का पाठ

और एकलव्य दूर खड़ा मुस्काएगा

अँगूठा दिखाते हुए एक दिन

वह जरूर आएगा...।

 

साभार : सुलभ इण्डिया मार्च 2015

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