अरुण कुमार त्रिपाठी
सफाई में पिछड़े और ढोंग में अगड़े भारतीय समाज में जैसे ही सफाई का अभियान चलता है वैसे ही यह चर्चा शुरू हो जाती है कि इसे कौन करेगा। सरकार या समाज? उसके बाद दूसरा ही सवाल यह दागा जाता है कि यह धर्म है या राजनीति? उसके बाद सब मिलजुल कर सफाई करने के बजाय यह चर्चा छेड़ देते हैं कि आखिर गंदगी कौन करता है? क्या इसका संबंध किसी धर्म से है या जाति से? किसी इलाके से है या किसी विश्वास से? गांव के लोग ज्यादा गंदे होते हैं या शहर के? इस तरह का विश्लेषण करने वाले दावा करते हैं कि वे समस्या का समाजशास्त्रीय विश्लेषण कर रहे हैं लेकिन वे इतने विभाजन पैदा कर देते हैं कि समाज में किसी अच्छे काम के लिए एकजुटता बनने के बजाय उस पर राजनीति शुरू हो जाती है। कुछ वैसा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से और उससे पहले यूपीए सरकार की तरफ से शुरू किए गए स्वच्छता अभियान के साथ हो रहा है। जबकि आज जरूरत उससे बचने की है।
इस बचाव की एक पहल ऋषिकेश में 29-30 नवंबर को परमार्थ निकेतन में गीवा यानी ग्लोबल इंटरफेथ वाश अलायंस की तरफ से हुई। गीवा की शुरुआत 25 सितंबर 2013 को नीदरलैंड और अमेरिका के सौजन्य से यूनिसेफ के मुख्यालय में हुई थी। गीवा के भारतीय चैप्टर के माध्यम से इस सम्मेलन में विभिन्न पंथों और धर्मों के आचार्यों ने जिस तरह से अपनी बातें रखीं वह भीतर तक जमने और मथने वाली हैं। परमार्थ निकेतन के स्वामी चिदानंद सरस्वती का कहना था कि सरकार भले इसका बिल भरेगी लेकिन हमें इस मामले पर लोगों का दिल बदलने की जरूरत है। उनका साफ कहना था कि हमें अब तक परमेश्वर के बारे में सफाई बरतना सिखाया जाता रहा है लेकिन अब हमें उसकी रचना यानी जीवों की सफाई पर ध्यान देना होगा, क्योंकि परमात्मा की रचना को साफ रखना उसके प्रति सच्ची आराधना होगी। मौलाना कल्बे सादिक का जोर था कि अब हर मस्जिद से सफाई की आवाज उठनी चाहिए। मौलाना लुकमान तारापुरी का कहना था कि हर धर्म में सफाई पर जोर है और धर्म के उस मर्म को सभी को समझाने की जरूरत है। जबकि दक्षिण अफ्रीका के आर्च बिशप थाबो मकगोबा का कहना था कि तमाम बीमारियों की जड़ें सफाई न होने यानी गंदगी में हैं। इसलिए धर्मगुरुओं की यह जिम्मेदारी है कि वे अपने अनुयायियों में सफाई की आस्था पैदा करें।
यही नहीं इस सम्मेलन में सफाई न होने से औरतों और बच्चों पर पड़ने वाले कुप्रभावों की चर्चा विस्तार से हुई। खुले में शौच से बच्चों की बीमारियां ही नहीं बढ़ती बल्कि शिशु मृत्यु दर का इससे समानुपाती संबंध है। विशेषकर औरतों में मासिक धर्म संबंधी दिक्कतें और उन्हें होने वाले तमाम संक्रमण का भी सफाई से सीधा संबंध है। सफाई और औरतों के स्वास्थ्य पर अलग सत्र का आयोजन हुआ और महिला धर्मगुरुओं ने स्त्री केंद्रित सफाई चेतना के विस्तार का संकल्प लिया। इस चेतना के विस्तार से पहले हमें सफाई से जुड़े तमाम मिथकों को दूर किए जाने की जरूरत है। जिन्होंने भी स्लम डॉग मिलेनियर फिल्म देखी है उन्हें फिल्म का वह मशहूर दृश्य याद होगा जिसमें बच्चे मलकुंड में डूब कर निकलते हैं। इसे देखकर कहा जा सकता है कि शहर के विपन्न हिस्से में सफाई की स्थिति गांवों से ज्यादा दयनीय है। दूसरी तरफ तमाम अध्ययन यह बताते हैं कि भारतीय गांवों में खुले में शौच की मजबूरी और हाथ न धोने की आदत बच्चों और औरतों पर बहुत बुरा असर डाल रही है। संयुक्त राष्ट्र के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में महज 31 प्रतिशत आबादी के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह सफाई के मानकों के अनुरूप अपना जीवन जीती है। हमारी 59.4 करोड़ आबादी खुले में शौच करती है। देश की 44 प्रतिशत माताएं ऐसी हैं जो अपने बच्चों का मल खुले में फेंकती हैं। यह ऐसी आदत है जो बच्चों में डायरिया और सांस के संक्रमण की खतरनाक स्थितियां पैदा करती हैं और जिसके चलते बच्चे बीमार पड़ते हैं और स्कूल जाने से वंचित रह जाते हैं। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि भारत के गांवों में पांच साल से कम उम्र के महज छह प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो शौचालय का प्रयोग करते हैं। बाकी की आबादी खुले में शौच कर डायरिया, हैजा, टायफाइड, सांस और त्वचा की बीमारियों को आमंत्रित करती है। इसके बावजूद हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा ऐसा है जो मानता है कि खुले में शौच करना सफाई की ज्यादा गुंजाइश पैदा करता है। सफाई के बारे में यह भी मिथक है कि मुस्लिम आबादी ज्यादा गंदी रहती है और हिंदू आबादी ज्यादा साफ रहती है।
इस बारे में यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के माइकल जेरूसो और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के डीन स्पीयर्स का अध्ययन एकदम विपरीत निष्कर्ष पर पहुंचता है। उनका अध्ययन मुस्लिम मृत्यु दर की पहेली को हल करने की कोशिश करता है। क्योंकि भारत में मुस्लिमों में बाल मृत्युदर हिंदुओं के मुकाबले कम है जबकि वे ज्यादा गरीब और कम पढ़े लिखे हैं। यानी सफाई का गरीबी और साक्षरता से सीधा संबंध हो यह जरूरी नहीं है। वे यह सवाल पूछते हैं कि आखिर क्यों हिंदुओं और मुसलमानों में बाल मृत्युदर में 18 प्रतिशत का फर्क है। यानी हिंदुओं में यह 18 प्रतिशत ज्यादा है। वे इसके लिए मुस्लिम परिवारों में शौचालयों का होना और उसका प्रयोग करने की प्रवृत्ति को जिम्मेदार बताते हैं। उनका अध्ययन बताता है कि हिंदुओं में खुले में शौच करने की प्रवृत्ति मुस्लिमों के मुकाबले 40 प्रतिशत ज्यादा है। इसकी वजह उनकी धार्मिक, सामाजिक या सांस्कृतिक कोई भी मान्यता हो सकती है। नेपाल और भारत के गांवों के सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि घरों में शौचालय होने के बावजूद हिंदू उसका कम प्रयोग करते हैं और उसे औरतों और बीमारों के लिए ही उपयोगी मानते हैं। इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित डायना कैफी का 23000 घरों का सर्वेक्षण यह बताता है कि जहां शौचालय है वहां भी परिवार का एक सदस्य बाहर जाने में ही यकीन करता है। सन 2005 का सरकारी सर्वेक्षण बताता है कि हिंदुओं की 67 प्रतिशत ग्रामीण और शहरी आबादी का हिस्सा खुले में शौच जाता है जबकि उसकी तुलना में मुस्लिमों में ऐसा करने वाले सिर्फ 42 प्रतिशत हैं।
भारत सफाई के इस मोर्चे पर अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश और ब्रिक्स के अन्य सदस्य देशों के मुकाबले बहुत पीछे हैं। अगर भारत की आधी यानी 53 प्रतिशत आबादी खुले में शौच करती है तो बांग्लादेश और ब्राजील में ऐसी आबादी महज 7 प्रतिशत है। जबकि चीन में ऐसी आबादी मात्र चार प्रतिशत है। सवाल उठता है कि क्या स्वच्छ और सशक्त भारत इसी प्रवृत्ति पर चलकर बन पाएगा? उत्तर साफ है नहीं। हमें न सिर्फ सफाई के साधन बनाने होंगे बल्कि उसकी संस्कृति भी विकसित करनी होगी। क्योंकि यह महज अच्छा लगने का ही मामला नहीं है बल्कि हमारी अर्थव्यस्था से भी इसका गहरा संबंध है। वर्ष 2011 में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार अपर्याप्त सफाई का असर प्रति व्यक्ति आय पर 48 डालर और अर्थव्यवस्था (जीडीपी) पर 6.4 प्रतिशत पड़ता है।
आज जरूरत न सिर्फ शौचालय बनाने की बल्कि उसके उपयोग की आदत विकसित करने की है। जाहिर है कि यह काम सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को बदल कर ही हो सकता है। जिस देश के नब्बे प्रतिशत लोग धार्मिक हों वहां धर्मगुरुओं की इस मामले में बड़ी भूमिका बनती है और यही वजह है कि सफाई के मामले पर धर्म और जाति के मिथकों और विभाजनों से ऊपर उठकर एक सर्वधर्म समभाव की जरूरत है और हमें गीवा के कार्यक्रम की उस भावना को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। मानना होगा कि सफाई ऐसा कर्म है जहां सभी धर्म मिलते हैं और बांटने वाली राजनीति समाप्त होकर जोड़ने वाले सांस्कृतिक कर्म की शुरुआत होती है।
साभार : सर्वोदय प्रेस सर्विस
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