सोच, शौच और बलात्कार

नीलम गुप्ता

 

वह जनवरी की सर्द शाम थी। समय यही कोई सात बजे। अचानक हम बहनों को घर के सबसे भीतर के कमरे में भेज दिया गया औऱ मुख्य द्वार को बन्द कर दिया गया। हमें हिदायत दी गई कि जब तक कहा न जाए कोई बाहर नहीं आएगी। शाम की चहल-पहल एकाएक गहन खामोशी में बदल गई। वातावरण सहमा-सहमा और हम सभी भयभीत। पता नहीं क्या हो गया है। करीब एक घण्टे बाद हमें कमरे से बाहर निकाला गया। जो हुआ था, उसे समझने के लिये हम सभी काफी छोटी थीं। फिर भी जो सुना वह यह कि गाँव में कुछ बदमाश आ गए थे। उन्होंने हमारे स्कूल की चपरासन के साथ उस समय गलत काम किया, जब वह गाँव के बाहरी इलाके में शौच के लिये गई थी। उसे जिला अस्पताल ले जाया गया और बदमाशों को उसी की हिम्मत से पकड़ कर थाने में बन्द करा दिया गया।

 

 

उत्तर प्रदेश के बदायूँ जिले के कटरा शहादतगंज में शौचालय के लिये घर से बाहर गई दो बहनों से बलात्कार और फिर हत्या बताती है कि 50 साल में खुले में शौच व यौन हिंसा के सन्दर्भ में कुछ नहीं बदला। हालात जस के तस हैं। बल्कि बदतर हुए हैं।

 

इस बात को करीब 50 साल हो गए। पर वह सर्द शाम, वह खामोशी और कमरे में डरी-सहमी हम चारों बहनों के चेहरे मुझे आज भी याद हैं। वह चपरासन भी जिसे हम रोज स्कूल में देखती थीं, लम्बी-चौड़ी, गोरी-चिट्टी। लम्बे दाँत। हमेशा मुस्कुराती हुई। उस घटना के बाद करीब साल भर तक वह स्कूल नहीं आई। और जब आई तो गोरा रंग काला पड़ चुका था। आँखे धंसी हुई और लम्बे दाँत जो पहले उसके चेहरे की खूबसूरती को बढ़ाते थे अब हँसी गायब हो जाने से भद्दे लगने लगे थे।

 

उत्तर प्रदेश के बदायूँ जिले के कटरा शहादतगंज में शौचालय के लिये घर से बाहर गई दो बहनों से बलात्कार और फिर हत्या बताती है कि 50 साल में खुले में शौच व यौन हिंसा के सन्दर्भ में कुछ नहीं बदला। हालात जस के तस हैं। बल्कि बदतर हुए हैं। बिहार में महिलाओं पर हिंसा का अध्ययन करते हुए मैंने पाया कि पाँच महीने में यौन हिंसा की कुल वारदातों में से 33 प्रतिशत वारदातें उस समय हुई जब महिलाएँ या लड़कियाँ शौच के लिये बाहर गईं। अपहरण की 40 प्रतिशत वारदातें भी तभी हुईं। इनमें से कुछ के साथ बाद में बलात्कार किया गया और कुछ को बलात्कार के बाद मार दिया गया। यह अध्ययन नवम्बर-दिसम्बर 2002, 2012 व जून 2013 में पटना से प्रकाशित हिन्दी अखबारों में छपी खबरों का था। दस साल में यौन हिंसा की वारदातों में तो बढ़ोतरी हुई ही, शौच के दौरान यौन हिंसा की वारदातें भी बढ़ीं। 2012 का कमजोर वर्ग पर यौन हिंसा का आँकड़ा देखा तो हैरानी हुई। सामंती होने के बावजूद राज्य 12वें स्थान पर था। फील्ड स्टडी में कमजोर वर्गों की महिलाओं ने दबंगों द्वारा यौन हिंसा पर खुलकर बोला था। ऐसे में यह आँकड़ा विश्वसनीय नहीं लगा। खोज की तो पता लगा लालू राज में यादवों की जो दबंगई बढ़ी थी, यौन हिंसा के मामले में वह आज तक जारी है और उनके खिलाफ रिपोर्ट मीडिया या जनता के दबाव में ही लिखी जाती है। खासतौर पर अपराध अगर कमजोर वर्ग की महिला, युवती या बच्ची के खिलाफ है तो।

 

उत्तर प्रदेश इसका अपवाद नहीं। यहाँ भी समाजवादी पार्टी के सत्ता में आने के साथ ही यादवों की दबंगई बढ़ गई थी और आज तक जारी है। यहाँ स्थिति और भी खराब इसलिए है कि खुद सरकार बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती है। उत्तराखण्ड आन्दोलनकर्मियों के दमन के लिये बलात्कार मुलायम सरकार की रणनीति का हिस्सा था। रामपुर तिराहे पर इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रही महिलाओं की तीन बसों में पुलिस ने जो गदर मचाया था, उसका दंश उत्तराखण्ड की महिलाएँ आज तक भोग रही है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने 15 महिलाओं/ लड़कियों से बलात्कार की पुष्टि की थी और बतौर संवाददाता मुझे भी कई महिलाओं ने उत्तर प्रदेश पुलिस के क्रूर व शर्मनाक अत्याचारों को बयाँ किया था। जो जनसत्ता अखबार में तीन किस्तों में छपे थे।

 

खोज की तो पता लगा लालू राज में यादवों की जो दबंगई बढ़ी थी, यौन हिंसा के मामले में वह आज तक जारी है और उनके खिलाफ रिपोर्ट मीडिया या जनता के दबाव में ही लिखी जाती है। खासतौर पर अपराध अगर कमजोर वर्ग की महिला, युवती या बच्ची के खिलाफ है तो।

 

इसलिए यह अकारण नहीं है कि जब भी मुलायम सिंह यादव की सपा सरकार सत्ता में आती है तो अनुसूचित जाति, जनजाति, दलित व अन्य कमजोर वर्गों की महिलाओं पर यादवों/ दबंगों के जुल्म बढ़ जाते हैं। नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे अखिलेश यादव को घिसा-पिटा बचाव करने की बजाय सोचना चाहिए कि आखिर क्यों यौन अपराधों के मामले में राज्य दूसरे राज्यों से आगे है। उन्हें यह भी सोचना चाहिए होगा कि जाति आधारित राजनीतिक दल को अगर जिन्दा रखना है तो यादवों को दबंगई नहीं अनुशासन सिखाना होगा। उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाना होगा। अभी तक उन्होंने पिता के इस बयान की निन्दा नहीं की कि लड़कों से गलतियाँ हो जाती है। बलात्कारी को माफ कर दिया जाना चाहिए। कम से कम बहू डिम्पल यादव को तो इसका खुलकर विरोध करने की हिम्मत जुटानी चाहिए थी।

 

पर इन सबका नजरिया बताता है कि यादव प्रधान इस पार्टी व सरकार का महिलाओं के प्रति नजरिया फिलहाल बदलने वाला नहीं। ऐसे में कमजोर वर्गों को ही एकजुट होना होगा और अपनी स्त्री वर्ग की अस्मिता को बचाना होगा। ‘निर्मल भारत अभियान’ एक तरह से उन्हीं के लिये है। उन्हें देखना होगा कि वे कैसे अधिक से अधिक इसका लाभ उठा सकें। इस अभियान की स्टार प्रचारक विद्या बालन जब कहती हैं- ‘जहाँ सोच वहाँ शौचालय’ तो उसका मतलब भी समझना होगा। बिहार के एक बहुत बड़े अधिकारी से जब मैंने पूछा यहाँ बड़ी-बड़ी हवेलियाँ हैं, पर उनमें शौचालय नहीं। औरते कहाँ जाती हैं। तो वे सोच में पड़ गए, फिर बोले- हाँ, आप कह तो ठीक रही हैं। ऐसा नहीं कि हम लोग बनवा नहीं सकते पर हमने कभी सोचा ही नहीं।

 

भारत की 2001 की जनगणना के अनुसार, देश में 68 प्रतिशत लोग आज भी खुले में शौच जाते हैं। झारखण्ड में 91 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 87 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 85, राजस्थान में 80 व 78 प्रतिशत लोग खुले में जाते हैं। हैरान करने वाला राज्य पंजाब है जहाँ विकास की लहर के बावजूद 28 प्रतिशत लोग आज भी खुले में शौच जाते हैं। वहाँ न तो पानी की कमी है, न संसाधनों की। फिर भी ऐसा है तो वह क्या है? सोच? निःसन्देह। हरियाणा उन राज्यों में हैं जहाँ महिलाओं के प्रति जातिगत यौन हिंसा ज्यादा है और इसीलिए खुले में शौच के दौरान यौन हिंसा की घटनाएँ भी वहाँ ज्यादा है।

 

बिहार के एक बहुत बड़े अधिकारी से जब मैंने पूछा यहाँ बड़ी-बड़ी हवेलियाँ हैं, पर उनमें शौचालय नहीं। औरते कहाँ जाती हैं। तो वे सोच में पड़ गए, फिर बोले- हाँ, आप कह तो ठीक रही हैं। ऐसा नहीं कि हम लोग बनवा नहीं सकते पर हमने कभी सोचा ही नहीं।

 

मेरे गाँव की उस चपरासन की तरह और भी कई परिवारों की औरते, लड़कियाँ, बच्चियाँ खुले में शौच जाती थीं। मर्द तो जाते ही थे। पर मैं कभी समझ नहीं पाई, आज भी नहीं, कि इतने बड़े घर होने के बावजूद उनके घर में शौचालय क्यों नहीं थे। मेरी एक सहेली आर्थिक दृष्टि से सहज परिवार की थी और उसके घर में शौचालय नहीं था। तब मुझे लगता था शायद पैसा एक कारण होगा। पर आज सोचती हूँ तो वह कारण समझ नहीं आता। वे लोग किराए के एक बड़े से मकान में रहते थे और काफी जगह उसमें खाली थी। मकान मालिक या वे खुद चाहते तो शौचालय आसानी से बन सकता था। मगर नहीं, शादी होने तक वह और उसकी बड़ी बहन अपने पूरे परिवार के साथ खुले में ही शौच जाती रहीं। कभी-कभी मैं भी उनके साथ चल देती और खड़ी होकर निगरानी रखती कि कोई आदमी, लड़का आ तो नहीं रहा। आ रहा होता तो बताती और तब वे बीच में ही या तो खड़ी हो जाती या फिर मुहँ फेर लेतीं। आज उस स्थिति की कठिनाई समझ आती है पर उस समय इसमें कुछ असहज नहीं लगता था।

 

1984 में जब राजीव गाँधी प्रधानमन्त्री बने और उन्होंने कहा देश को 21वीं सदी में ले जाना है, तब न जाने क्यों वही दृश्य सामने आया और लगा अभी तो देश में लोगों के पास घरों में शौचालय तक नहीं है, औरतों को सड़क पर शौच के लिये जाना पड़ता है। वे हिंसा का शिकार होती है, ऐसे में देश 21वीं सदी में कैसे जा सकता है। फिर सूचना क्रान्ति हुई। लोगों के हाथ में मोबाईल आ गए और मैं तब भी सोचती रही, शौचालय कब बनेंगे! गाँवों-शहरों के पास रेलवे लाइन का सुबह-शाम का दृश्य कब बदलेगा।

 

पुलिस रिकार्ड में अभी तक शौच के दौरान यौन हिंसा का आँकड़ा अलग से नहीं रखा जाता। संयुक्त राष्ट्र ने दुनियाभर में खुले में शौच के  खिलाफ अभियान शुरू किया है। उसके पीछे स्वच्छता व रोगाणुओं पर काबू पाना तो एक कारण है ही, महिलाओं के प्रति हिंसा को रोकना भी एक बड़ा कारण है। बदायूँ की घटना के पीछे संयुक्त राष्ट्र के बयान का मुख्य कारण भी यही है। निःसन्देह उससे देश में एक माहौल बना है। उम्मीद करनी चाहिए कि इससे निर्मल अभियान गति पकड़ेगा। पर पाँच हजार रुपए में शौचालय नहीं बनता, यह सरकार को समझना होगा। उम्मीद नरेन्द्र मोदी के बतौर मुख्यमन्त्री दिए गए बयान ‘देवालय नहीं शौचालय’ पर जाकर टिकती हैं।

 

साभार : यथावत 16-30 जून 2014

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