पम्मी सिंह
दीवारों पर लिखी कुछ सूचनाएं या वाक्य बरबस हमारे दिमाग पर चोट करते हैं। लेकिन हम आगे बढ़ जाते हैं, कभी नजरअंदाज करते तो कभी उन पर खीझते हुए। लेकिन कभी ठहर कर सोचें तो उनमें छिपे मतलब दूर तक सोचने को मजबूर कर सकते हैं। अपने अपार्टमेंट से लगी सड़क से गुजरते हुए एक दीवार पर इन दिनों गाली के लहजे में कुछ लिखा दिखता है, जिसका अर्थ यही है कि वहां पेशाब करने की मनाही है। उसे पढ़ कर कुछ अजीब-सा भाव मन में आता है। इसलिए भी कि इन दिनों अपने देश में स्वच्छता का अभियान छिड़ा हुआ है। जहां तक मुझे याद है, उस वाक्य में कुछ नया नहीं है। जब से होश संभाला या पढ़ना आया, तब से ऐसे इश्तिहारों से सामना होता रहा है। जगह बदली, वक्त बदला, लेकिन वैसे वाक्य नहीं बदले। स्वच्छ भारत अभियान के दिनों में भी नहीं!
सवाल यहीं है कि इतने सालों में कुछ क्यों नहीं बदला? हर गली-मुहल्ले में गाली के अंदाज में पेशाब करने की मनाही लिखने का चलन आज भी जारी है। ध्यान दें तो लिखने वाले का सरोकार सिर्फ इतना होता है कि बस हमारी दीवार को बख्श दो। बाकी जहां चाहे जो करो। यानी यह किसी की चिन्ता नहीं है कि लोगों को अपनी प्राकृतिक आवश्यकता पूरी करने के लिए जहां-तहां खड़ा न होना पड़े। उन्हें वैसी दीवारों के सामने न जाना पड़े, जहां उन्हें कुत्ता, गधा या इससे भी बुरे शब्दों में संबोधित किया गया होता है। आखिर क्यों?
जवाब ढूंढ़ने की कोशिश करें, तो आप अपने शहरों के नियोजन (प्लानिंग) से लेकर अपनी सामाजिक संस्कृति तक पहुंच जाएंगे। जैसे हमारे वसुंधरा (गजियाबाद) को लीजिए। यह दिल्ली के उन करीबी इलाकों में है, जो गुजरे दशकों में देखते-देखते शहर में तब्दील हो गए। यहां मकान बने, हाउसिंग सोसायटियां बनीं, बाजार बने और लोगों के सुबह-शाम टहलने के लिए पार्क बने। अगर कुछ नहीं बना, तो वे हैं सार्वजनिक शौचालय। अगर कहीं हों भी, तो इतने गन्दे, बदबूदार हालत में होंगे कि उनमें जाने से बेहतर लोग गालियों से भरी दीवारों के पास जाना ही पसन्द करेंगे। पुरुष तो फिर भी गालियां सह कर वहां जा सकते हैं, लेकिन महिलाओं की मुसीबत की कल्पना कीजिए। अगर सार्वजनिक शौचालय होते और साफ-सुथरी हालत में, तो आखिर दीवारों पर ऐसी गालियां लिखने की क्या जरूरत पड़ती जो हर आते-जाते राहगीर का मन खराब कर देती हैं?
हकीकत यह है कि शौचालय हमारे सोच और संस्कृति का हिस्सा नहीं है। मनुष्य की यह कुदरती जरूरत है, यह बात तब हमारे मन में नहीं आती, जब हम कुछ बसाने की योजना बना रहे होते हैं। खुद मेरे अपार्टमेंट में पहले कोई सार्वजनिक शौचालय नहीं था। आखिर किसी के ध्यान में यह बात क्यों नहीं आई कि जब यहां लोग रहेंगे तो घरेलू काम करने वाली महिलाएं, ड्राइवर, सुरक्षा गार्ड या ऑफिस स्टाफ यहां घंटों गुजारेंगे और इन सबको शौचालय की जरूरत पड़ेगी? कुछ समय बाद शौचालय बना तो फिर उसकी साफ-सफाई का मुद्दा आ गया। घरेलू सहायिकाओं पर पाबन्दी लगाने की बात आई। शौचालय में ताला लगा तो यह शिकायत उठने लगी कि घरों में काम करने वाली महिलाएं छत पर जाकर पेशाब करती हैं। कुछ महिलाओं के नाम भी लिए गए। छत के दरवाजे पर ताला लगाने की बात उठी। मगर इस पर गौर करना जरूरी नहीं समझा गया कि जब सुबह से शाम तक घरेलू सहायिकाएं इसी अपार्टमेंट में रहेंगी, तो आखिर उन्हें शौच के लिए कहीं तो जाना होगा। गनीमत है कि बाद में यह बात लोगों को समझ आई तो एकमात्र सार्वजनिक शौचालय में जाने पर लगा प्रतिबंध हटाया गया।
यह मुद्दा सिर्फ हमारी सोसायटी का नहीं है। इसके अभाव के कारण भारत को निर्मल बनाने का पिछली यूपीए सरकार का अभियान अपने उद्देश्य की तरफ नहीं बढ़ पाया। कई सर्वेक्षणों से आमने आया कि हजारों गांवों में जिन घरों में इस योजना के तहत शौचालय बने, वहां गंदगी के कारण उनका इस्तेमाल लोग नहीं करते। सवाल है कि जहां शौच को लेकर अनेक पूर्वाग्रह और घिन्न की मानसिकता हो, वहां सफाई कौन करे? जातियों में बंटे पारंपरिक समाज में यह काम कुछ खास जातियों का तय कर दिया गया था। वह सोच आज तक नहीं टूटा है। इस संदर्भ में अक्सर ही फिल्म ‘गांधी’ का वह दृश्य याद आता है, जिसमें महात्मा गांधी का कस्तूरबा से विवाद होता है, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका के आश्रम में बनाए गए उस नियम को नहीं मानना चाहतीं कि सबको शौचालय साफ करना होगा। मुख्य मुद्दा यही है कि जो इस्तेमाल करते हैं, वे अगर सफाई को अपना कर्तव्य नहीं मानेंगे तो ऐसे शौचालय नहीं रहेंगे, जिनका उपयोग स्वेच्छा से हो सके। जाहिर है, इस समस्या का समाधान न तो दीवारों पर गालियां लिखना है, न हाई-प्रोफाइल मुहिम चलाना। बात सोच बदलने और समझ विकसित करने की है। यह कैसे होगा, लाख टके का सवाल है!
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