डॉ. बिन्देश्वर पाठक
अछूतों को मैला ढोने की कुप्रथा से निकालने के लिए न कोई भगवान् चाहिए, न कोई त्याग-तपस्या, सिर्फ एक फ्लश शौचालय चाहिए। -महात्मा गांधी
यह हर्ष का विषय है कि भारत-सरकार ने शौचालय की महत्ता को समझा है और यह माना है कि स्वच्छ, स्वस्थ और सुखी रहने के लिए शौचालय का स्थान देवालय से भी अधिक है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के दौरान और उसके बाद भी शौचालय को देवालय से अधिक दर्जा दिए जाने की बात स्वीकार की है और यही कारण है कि वर्तमान सरकार के अभिभाषण में माननीय राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘हम ऐसी अपमानजनक स्थिति को सहन नहीं करेंगे किघरों में शौचालय न हों और सार्वजनिक स्थान गंदगी से भरे हों। देश-भर में स्वास्थ्यकर परिस्थितियां (हाइजिन), कचरा-प्रबंधन और ‘स्वच्छ भारत मिशन’ चलाया जाएगा।..’
संसद में पहली बार शौचालय पर चर्चा
भारत की संसद ने अपने संसदीय कार्यकाल में सबसे पहली बार शौचालय की चर्चा की है और इसे प्रमुख स्थान दिया है। मैं इसे ऐतिहासिक घटना मानता हूं। भारत को स्वच्छ रखने के लिए स्वच्छता के अन्य उपायों के अलावे हर घर में शौचालय होने चाहिए और सार्वजनिक स्थानों, जैसे- रेलवे स्टेशन, बस अड्डे व स्टॉप, धार्मिक और तीर्थ-स्थल एवं राष्ट्रीय राजमार्गों पर साफ-सुथरे सार्वजनिक शौचालय तथा पेशाब-घर होने चाहिए। वहां महिलाओं के लिए अलग शौचालय की भी व्यवस्था होनी चाहिए। फिलहाल इसका नितांत अभाव है।
बुद्ध ने ईंट की चिनाई वाले शौच की बात कही है
खुले में शौच करने एवं अस्पृश्यों द्वारा सिर पर मानव-मल ढोने जैसी दोनों प्रथाओं के बारे में यह जगह-जगह वर्णित है कि घर के आस-पास शौच नहीं करना चाहिए, इसलिए खुले रूप में शौच की प्रथा जारी रही। बुद्धकालीन साहित्य में एक प्रसंग आया है कि भगवान् बुद्ध के शिष्य आनंद ने भगवान् से पूछा है कि शौच और पेशाब कहां करने चाहिए और शौच तथा पेशाब के स्थान पर यदि मिट्टी धंस जाती हो, तो क्या उपाय करना चाहिए। भगवान् ने दोनों जगहों पर ईंट की चिनाई की व्यवस्था दी है। ब्रिटिश काल के आने तक दोनों प्रथाएं जारी रहीं, किसी शासक का ध्यान इस ओर नहीं गया।
सीवरेज सिस्टम सबसे पहले कोलकाता में
ब्रिटिश काल में सन् 1870 में भारत में सबसे पहली बार सीवरेज-प्रणाली की व्यवस्था कोलकाता शहर में की गई,
ब्रिटिश काल में सन् 1870 में भारत में सबसे पहली बार सीवरेज-प्रणाली की व्यवस्था कोलकाता शहर में की गई, लेकिन 144 वर्षों के बाद आज भी देश के 7,935 शहरों में सिर्फ 160 शहरों में ही सीवरेज-प्रणाली लगाई गई है और केवल 270 सीवेज ट्रीटमेंट-प्लांट लगाए गए हैं।
लेकिन 144 वर्षों के बाद आज भी देश के 7,935 शहरों में सिर्फ 160 शहरों में ही सीवरेज-प्रणाली लगाई गई है और केवल 270 सीवेज ट्रीटमेंट-प्लांट लगाए गए हैं। इस प्रणाली को लगाना और चलाना दुष्कर ही नहीं अपितु इसमें खर्च होनेवाले पानी की मात्रा इतनी अधिक होती है कि यह प्रणाली गांवों की बात तो छोड़ ही दें, शहरों तक भी नहीं पहुंच पाई है। ब्रिटिश-सरकार ने ही जहां-तहां सेप्टिक टैंक भी लगाने का प्रयास किया, लेकिन लागत-व्यय अधिक होने के कारण यह भी सभी लोगों द्वारा अपनाया नहीं जा सका।
‘मैला ढोने की कुप्रथा के अंत के लिए एक फ्लश शौचालय चाहिए’
महात्मा गांधी जब आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने आए तो समाज में फैली हुई बहुत-सी बुराइयों की ओर उनका ध्यान गया, जिनमें मैला ढोने की अमानवीय प्रथा एवं खुले रूप में शौच करने की प्रथा भी शामिल थी। महात्मा गांधी ने लिखा है कि जब-तक अस्पृश्य सिर पर मैला ढोते रहेंगे, तब-तक उनके साथ कोई खाना नहीं खाएगा। अतः गांधी जी एक ऐसे फ्लश शौचालय के ईजाद होने की बात सोच रहे थे, जो भारत की आर्थिक स्थिति के अनुरूप हो। ‘अछूत’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि अछूतों को मैला ढोने की कुप्रथा से निकालने के लिए न कोई भगवान् चाहिए, न कोई त्याग-तपस्या, सिर्फ एक फ्लश शौचालय चाहिए। महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद मैला ढोने की कुप्रथा समाप्त करने के लिए कई समितियां बनीं, जिनमें मलकानी समिति सबसे प्रमुख थी। यह सांसदों की समिति थी और इस समिति की रिपोर्ट सन् 1968 में प्रकाशित हुई, जिसमें उनलोगों ने स्कैवेंजर्स की तकलीफों को दूर करने एवं कल्याण की बात तो की, लेकिन कोई समाधान नहीं दे पाए।
गड्ढों वाले शौचालय का आविष्कार
मैं पटना-विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बनना चाहता था, लेकिन देव संयोग से सन् 1968 में बिहार गांधी-जन्म-शताब्दी-समारोह के दौरान ही गांधी जी के सपनों को साकार करने के लिए मैंने दो गड्ढे वाली सुलभ शौचालय-तकनीक का आविष्कार किया, जो स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त, उपयोग में आसान, सांस्कृतिक स्वीकार्य, पर्यावरण-हितैषी एवं लागत-प्रभावी है। इस शौचालय-तकनीक के द्वारा स्थानीय उपलब्ध सामानों से शौचालय का निर्माण और रख-रखाव किया जा सकता है। यह विभिन्न भौगोलिक स्थितियों में भी बनाया जा सकता है। इसकी सफाई में स्कैवेंजर की सेवा अथवा अधिक जल की आवश्यकता नहीं होती। अनेक राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय संस्थाओं ने सुलभ-तकनीक को मान्यता दी है। इसी तकनीक से उपर्युक्त दोनों समस्याओं का निदान हो सकता है। यह तकनीक सिर्फ भारत वर्ष में ही नहीं, दुनिया के जो 2 अरब, 50 करोड़ लोग हैं, जिनके घरों में शौचालय नहीं हैं, उनकी समस्याओं को दूर करने के लिए भी कारगर सिद्ध हो सकती है। हाल में बीबीसी वल्र्ड ने अपने ‘होराइजन्स’-कार्यक्रम के अंतर्गत सुलभ-शौचालय की तकनीक को दुनिया के पांच महत्वपूर्ण अविष्कारों में एक माना है।
सन् 1970 में जब बिहार-गांधी-जन्म-शताब्दी का कार्यकाल समाप्त हो गया, मैंने सुलभ-स्वच्छ-प्रशिक्षण-संस्थान की स्थापना की, जो अब सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन के नाम से जाना जाता है। घर-घर में शौचालय होना चाहिए, इसकी महत्ता को सभी स्वीकार करते हैं, लेकिन यह सभी लोगों तक कैसे पहुंचे, यह एक भागीरथ-प्रश्न है।
शौचालय क्रांति अधूरी न रह जाए!
राजाओं ने महल बनवाए और मंदिर भी। महल सभी ध्वस्त हो गए, लेकिन मंदिर आज भी चल रहे हैं। भारत में शौचालय सभी घरों में बने, उसका इस्मेमाल हो, कोई खराबी हो जाए तो ठीक करने की व्यवस्था हो और ऐसा करनेवालों को ‘स्वच्छता का दूत’ बनाया जाए और वे ही इन कार्यों को आगे बढ़ा सकते हैं। यह भी एक यक्ष-प्रश्न है। सरकार को चाहिए कि इन क्षेत्रों में जो अनुभवी लोग हैं, उनसे विमर्श करके इस कार्य को आगे बढ़ाया जाए। शौचालय-निर्माण के लिए ऋण प्रदान किया जाना चाहिए, अन्यथा इसके अभाव में शौचालय-क्रांति अधूरी रह जाएगी।
साभार : सुलभ इंडिया, जून 2014
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