सकारात्मक पहल से सुधर सकती है शहर की फिजाँ

अतुल कुमार

 

आगरा शहर में बढ़ते प्रदूषण पर जब चर्चा होती है तो यहाँ की खास पहचान बन चुके पेठा और चमड़ा उत्पादों पर सबसे पहले नजर जाती है। सदियों से चले आ रहे इन दोनों उद्योगों से आगरा और आसपास के कई लाख लोगों को रोजगार मिलता है। इनमें निर्माण से लेकर बिक्री और अन्य गतिविधियाँ शामिल हैं। यहाँ से होकर देश के विभिन्न हिस्सों में जानेवाली रेलगाड़ियों के माध्यम से पेठा देश भर में प्रसिद्ध हो चुका है। लेकिन इसका सबसे नकारात्मक पहलू है कि इससे प्रेम के प्रतीक बन चुके शहर और आसपास का पर्यावरण बिगड़ रहा है। साथ ही यहाँ से बहने वाली यमुना बुरी तरह आहत हो चुकी है। आज जरूरत ऐसे प्रयासों की है जो यहाँ के पर्यावरण की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए रोजगार के इस बेहतर साधन को और बढ़ावा दें और बेहतर बनाएँ।

 

कारखानों से निकलने वाला कचरा और अशुद्ध जल बिना शोधन के ही शहर के नालों में डाला जाता है जो अंतत: यमुना को ही प्रदूषित कर रहा है। 1996 में सुप्रीम कोर्ट की ओर से टीटीजेड बनाकर इन कारखानों को यहाँ से अलग हटाने के आदेश के बाद इस उद्योग के लिए यमुना के कालिंदी कुंज इलाके में प्लाट दिए गए। लेकिन पेठा वालों का कहना है कि वहाँ के पानी का स्वाद पेठा के अनुकूल नहीं है। साथ ही कई प्रकार की मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं है।

 

शहर में पेठा बनाने के छोटे-बड़े करीब 400 कारखाने हैं। इसमें 2000 से अधिक मजदूर लगे हैं। हालाँकि प्रशासन इसकी संख्या 100 बताता है। ये कारखाने सिकंदरा, ताजगंज, नूरी दरवाजा इलाके में हैं। पेठा निर्माण में कोयले का उपयोग ईंधन के रूप मे होता है जिसका धुआँ आगरा तथा ताजमहल को नुकसान पहुँचा रहा है। इन कारखानों से निकलने वाला कचरा और अशुद्ध जल बिना शोधन के ही शहर के नालों में डाला जाता है जो अंतत: यमुना को ही प्रदूषित कर रहा है। 1996 में सुप्रीम कोर्ट की ओर से टीटीजेड बनाकर इन कारखानों को यहाँ से अलग हटाने के आदेश के बाद इस उद्योग के लिए यमुना के कालिंदी कुंज इलाके में प्लाट दिए गए। लेकिन पेठा वालों का कहना है कि वहाँ के पानी का स्वाद पेठा के अनुकूल नहीं है। साथ ही कई प्रकार की मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं है।

 

हालाँकि पेठा प्रदूषण पर काम कर रहे डी.के जोशी इसमें भ्रष्टाचार को मूल मुद्दा मानते हैं। उनके अनुसार, प्रशासनिक अधिकारियों की लापरवाही से कार्य नहीं किए जा रहे हैं। पानी का स्वाद अच्छा न होना गलत है। बकौल जोशी उद्योगों में कोयले के इस्तेमाल पर अदालती रोक के बावजूद अब भी आधी रात को पचासों कोयले के ट्रक बाहरी इलाके में आते हैं और इनका इस्तेमाल पेठा बनाने में होता है।

 

सामाजिक कार्यकर्ता देवाशीष भट्टाचार्य कालिंदी कुंज न जाने का मूल कारण भ्रष्टाचार और बिजली-पानी के अवैध उपयोग की सुविधा बताते हैं। दूसरे परम्परागत रूप से बने घर में नीचे कारखाना और ऊपर आवास भी पेठा कारोबारियों को घर न छोड़ने पर मजबूर करता है। ऐसा भी नहीं है कि इनका समाधान नहीं है। लेकिन इसके लिए प्रशासन में मजबूत इच्छा शक्ति और लोगों में ईमानदारी होना जरूरी है। अगर पेठा निमार्ताओं के अनुसार कालिंदी कुंज की जगह सिकंदरा सब्जी मण्डी के पीछे उन्हें भेज दिया जाए और अत्याधुनिक तकनीकी सुविधाओं पर कुछ सरकारी सब्सिडी मिले तो सैकड़ों व्यवसायी वहाँ चले जाएंगे। वहीं नागरिकों की जागरूकता और सजगता भी प्रदूषण रोकने में कारगर साबित हो सकती है। केवल कुछ लोगों का प्रयास इसके लिए काफी नही होगा।

 

साभार : कल्पतरु एक्सप्रेस 10 जून 2015

 

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