प्रसन्नता की बात है कि भारत सरकार स्कैवेंजिंग की प्रथा को समाप्त करने के लिए आगामी वर्ष-सत्र में एक नया विधेयक पेश करने के बारे में विचार कर रही है। नए विधेयक में सेप्टिक टैंक, नाले एवं सीवर व्यवस्था इत्यादि को दुरुस्त करने का प्रावधान है। इस विधेयक में ऐसे भी प्रावधान शामिल हैं, जिनके अंतर्गत उनलोगों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाएगी, जो इस अमानीवय प्रथा को समाप्त करने में बाधक होंगे। वस्तुतः सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अन्तर्गत बनने वाले इस नए कानून में पूर्व में बने कानून की अपेक्षा अधिक कठोर दंड का प्रावधान है। संभव है, इस अपराध को संज्ञेय श्रेणी का मानते हुए इसे गैर जमानती (नॉन बेलेबल) कर दिया जाए। सरकार द्वारा उठाए गए इस सकारात्मक कदम की हम सराहना करते हैं।
स्कैवेंजिंग की समस्या से मुक्ति पाने के लिए उपर्युक्त कानूनी कदम उचित तो है, किंतु इनके साथ ही सामाजिक कार्यक्रम चलाने की भी आवश्यकता है। सुलभ पिछले चार दशकों से स्कैवेंजर की मुक्ति, प्रशिक्षण एवं पुनर्वासन की दिशा में कार्यरत है। सुलभ की कार्यविधि के तीन लक्ष्य हैं- स्कैवेंजिंग से मुक्ति, प्रशिक्षण एवं पुनर्वासन तथा पुनर्वासित स्कैवेंजरों को समाज की मुख्यधारा में लाना।
स्कैवेंजिंग की दुर्दशा से द्रवित महात्मा गांधी इनकी मुक्ति के लिए कोई ठोस कदम उठाना चाहते थे, किंतु स्वतंत्रता-संग्राम-रूपी यज्ञ के साथ जुड़े रहने के कारण वे इस दिशा में कुछ अधिक नहीं कर पाए।
हजारों स्कैवेंजरों को नारकीय जीवन से दिलाई मुक्ति
स्कैवेंजर-मुक्ति के उनके इसी स्वप्न को पूरा करने का बीड़ा उठाया सुलभ-स्वच्छता एवं सामाजिक सुधार आंदोलन के संस्थापक डॉ. बिन्देश्वर पाठक ने। स्वतंत्रता के पश्चात् स्कैवेंजरों के कष्टों के निवारण के लिए अनेक समितियां एवं आयोग गठित किए गए। उन सभी ने सरकार को अपनी-अपनी रिपोर्ट भी सौंपी, किंतु किसी ने भी स्कैवेंजिगं के कार्य का विकल्प नहीं सुझाया। यह डॉक्टर पाठक ही थे, जो बिहार गांधी-जन्म-शताब्दी-समारोह-समिति से सन् 1968 में जुड़े थे, जिन्होंने टू-पिट पोर-फ्लश शौचालय का आविष्कार एवं विकास किया और इसका उपयोग कमाऊ शौचालयों को स्वच्छ जल-प्रवाही शौचालयों में परिवर्तित करने में किया। डॉक्टर पाठक द्वारा विकसति इस तकनीक को राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली। इस तकनीक के आधार पर सुलभ द्वारा अभी तक 1,20,000 से अधिक स्कैवेंजरों को मुक्त करवाया जा चुका है। स्कैवेंजरों द्वारा किए जा रहे घिनौने कार्य से मुक्ति से ही समस्या का समाधान नहीं होनेवाला था, क्योंकि जीविकोपार्जन के लिए यदि उन्हें किसी अन्य सम्मानजनक पेशे में नहीं लगाया गया तो इस बात की पूरी संभावना बनी रहती है कि वे पुनः इस पेशे से जुड़ जाएंगे। इस विचार से ही डॉक्टर पाठक द्वारा राजस्थान के अलवर तथा टोंक में व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए गए, ताकि पुनर्वासित स्कैवेंजरों को व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर किसी सम्मानजनक पेशे में लगाया जा सके।
सुलभ द्वारा अभी तक 1,20,000 से अधिक स्कैवेंजरों को मुक्त करवाया जा चुका है। स्कैवेंजरों द्वारा किए जा रहे घिनौने कार्य से मुक्ति से ही समस्या का समाधान नहीं होने वाला था, क्योंकि जीविकोपार्जन के लिए यदि उन्हें किसी अन्य सम्मानजनक पेशे में नहीं लगाया गया तो इस बात की पूरी संभावना बनी रहती है कि वे पुनः इस पेशे से जुड़ जाएंगे। इस विचार से ही डॉक्टर पाठक द्वारा राजस्थान के अलवर तथा टोंक में व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए गए, ताकि पुनर्वासित स्कैवेंजरों को व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर किसी सम्मानजनक पेशे में लगाया जा सके।
सर्वप्रथम यह केंद्र अलवर में आरंभ किया गया एवं इस केंद्र का नाम ‘नई दिशा’ रखा गया। ये पूर्व स्कैवेंजर किस व्यावसायिक शिक्षा में प्रशिक्षण लेना चाहती हैं, इसका फैसला ये स्वयं करती हैं। इन्हें यहां खा़द्य-प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग), ब्यूटी केयर, सिलाई-कढ़ाई इत्यादि का प्रशिक्षण दिया जाता है। ये फ्रॉक सिलने, नाइट ड्रेस सिलने, रूमाल बनाने, बिछाने की चादरें तैयार करने, साड़ी की इम्ब्रॉयडरी बनाने इत्यादि के कार्य भी करती हैं। जिन महिलाओं ने ‘नई दिशा’ केंद्र से प्रशिक्षण लिया है, वे आज आत्मविश्वासपूर्ण हैं। ‘नई दिशा-केंद्र महिला-सशक्तीकरण का एक अनूठा उदाहरण है। इसके प्रयास के बेहद सफल परिणाम मिले हैं। आज कई पुनर्वासित स्कैवेंजर महिला सम्मानित पेशे से जुड़कर अपनी जीविका चला रही हैं। इनका सामाजिक स्तर काफी ऊपर उठ चुका है। आज ये स्वयं अपने उत्पाद बनाकर उन्हें बाजार में बेच रही हैं। आज इनके द्वारा उत्पादित पदार्थों का उपयोग समाज के प्रत्येक वर्गध्जाति के लोग कर रहे हैं। इसी आधार पर टोंक में भी एक केंद्र खोला गया और वहां भी इसी तकनीक पर कार्य किया जा रहा है।
व्यावहारिक कार्यक्रमों से ही बदलेगा जीवन
इन लोगों से संबद्ध एक अन्य कार्यक्रम के अंतर्गत जिसका महत्त्व उपर्युक्त वर्णित कार्यक्रमों से कम नहीं है, इन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ना एवं इनके प्रति समाज के व्यवहार में परिवर्तन लाना शामिल है। इस कार्यक्रम में इन लोगों को मंदिरों में ले जाया गया, जहां जाना इन लोगों के लिए सदियों से प्रतिबंधित था। इन्हें राजस्थान के उदयपुर के नाथद्वारा मंदिर में ले जाया गया, जहां इन्होंने रुढि़वादी ब्राह्मणों के साथ मिलकर ईश्वर की आराधना की। प्रार्थना के पश्चात् इन्होंने उन ब्राह्मणों के साथ भोजन भी किया। इसके बाद डॉक्टर पाठक सैकड़ों पुनर्वासित स्कैवेंजरों को अलवर के जगन्नाथ मंदिर में ले गए। वहां इन महिलाओं ने उनलोगों के साथ भोजन भी किया, जिनके घरों में ये कभी सिर पर मानव-मल ढोने का घृणित कार्य करती थीं। यह सब दो दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण था- पहला तो यह कि इससे ये लोग समाज की मुख्यधारा में जुड़ गए एवं दूसरा यह समाज में आ रहे वैचारिक परिवर्तन का परिचायक है। इस वैचारिक परिवर्तन की प्रासंगिकता अधिक है, क्योंकि जब ये लोग मैला साफ करते थे तो तथाकथित उच्च वर्ग के लोग इ्न्हें हेय दृष्टि से देखते थे, किंतु आज वे इनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं का उपयोग करते हैं। आज ये लोग समाज की मुख्यधारा में पूरी तरह से हिल-मिल गए हैं।
सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन यह अनुशंसा करना चाहेगा कि राजस्थान के अलवर एवं टोंक के अनुभव को पूरे देश में अपनाया जाना चाहिए। सुलभ द्वारा ‘नई दिशा’ के आधार पर कुछ और केंद्र स्थापित करने की योजना है और भारत सरकार को भी चाहिए कि स्कैवेंजरों की मुक्ति एवं पुनर्वासन की योजना के अंतर्गत इन उपायों को अपनी योजना में शामिल करे। भारत सरकार की योजना में शामिल करे। भारत सरकार की योजना के आधार पर ही राज्य सरकारों को भी इन योजनाओं का क्रियान्वयन करना चाहिए। सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन इसके लिए विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रशिक्षण दे सकता है एवं जानकारी दे सकता है कि किस प्रकार इन केंद्रों की स्थापना और कैसे इनके संचालन किए जा सकते हैं।
साभार : सुलभ इंडिया
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