डॉ. बिन्देश्वर पाठक
‘वर्ष 2015 और उसके आगे दृष्टि डालते हुए लगता है कि हम लोग अपने महान लक्ष्य की प्राप्ति और गरीबी का उन्मूलन कर सकते हैं। लगभग हर मामले में हमारा अनुभव रहा है कि आगे बढ़ने के मार्ग में पहले किये गए समझौते सहायक और सही हुए हैं। दूसरे शब्दों में, हमें क्या करना है, इसकी जानकारी रही है। परंतु निस्संदेह इसके लिए सामूहिक दीर्घकालीन और निश्चित प्रयास अपेक्षित होगा।’ -बान की मून, महासचिव, सयुक्त राष्ट्र
वैश्विक विकास की मुख्य चुनौतियों का सामना करने के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों की श्रेणी में आठ लक्ष्य को प्रमुखता के साथ रखा गया है, जिन्हें 2015 तक प्राप्त करने की योजना बनाई गई है। सितंबर 2000 में संयुक्त राष्ट्र सहस्त्राब्दि शिखर सम्मेलन में 189 देशों के 147 राष्ट्राध्यक्षों ने इस योजना पर सहमति जताई और इस पर हस्ताक्षर किए। सहस्त्राब्दि घोषणापत्र के लक्ष्यों और कार्यक्रम के अनुसार, उक्त आठ सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों के तहत् 21 विशिष्ट लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, जिनके साठ सूचक बताए गए हैं। वे आठ मुख्य लक्ष्य इस प्रकार हैं-
आठ लक्ष्य :
1 . अत्यधिक गरीबी और भूख को समाप्त करना,
2 . सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा,
3 . लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण,
4 . शिशु मृत्यु दर में कमी लाना,
5 . माता के स्वास्थ्य में सुधार लाना,
6 . एचआईवी एड्स, मलेरिया एवं अन्य बीमारियों से बचाव,
7 . सतत् पर्यावरणीय सुधार (जल एवं स्वच्छता) और
8 . विकास के लिए वैश्विक सहभागिता।
सन् 2001 में विश्व के बड़े नेताओं के निवेदन पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने सहस्त्राब्दि घोषणा को लागू करने का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य 1990 के दशक में हुए विश्व शिखर सम्मेलनों में प्रस्तुत किए गए वायदों और लक्ष्यों का ही प्रतिनिधित्व करता है। विश्व के सामने विकास की मुख्य चुनौतियों और समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों में गरीबी दूर करने, शिक्षा को बढ़ावा देने, मातृ स्वास्थ्य, लैंगिक समानता और शिशु मृत्यु दर को घटाने के साथ-साथ एचआईवी एड्स एवं अन्य बीमारियों से बचाव और स्वच्छता एवं पेयजल उपलब्ध करवाने के कार्यक्रम शामिल है।
डायरिया जैसी मामूली बीमारी से लाखों लोग हर साल मरते हैं
जल और स्वच्छता से संबद्ध सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों के अंतर्गत स्वास्थ्य आयाम - जीवन और विकास के लिए स्वच्छ जल, स्वच्छता एवं स्वास्थ्य विषयक जानकारी अत्यंत आवश्यक है। किंतु एशिया एवं अफ्रीका के विकासशील देशों में आज भी गरीब लोग इन आधारभूत सुविधाओं से वंचित है। विश्व के 1.1 अरब लोगों को पेयजल उपलब्ध नहीं है। लगभग 2.6 अरब लोगों के पास स्वास्थ्यकर शौचालय की अनुपलब्धता है। स्वास्थ्य के लिए इन आवश्यक सुविधाओं को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। प्रतिवर्ष अस्वच्छ जल और स्वच्छता की आधारभूत सुविधाओं की कमी के कारण 0-5 वर्ष तक के लगभग 16 लाख बच्चों की मृत्यु हो जाती है, जो सन् 2004 में एशिया में आए सुनामी के कारण मरने वाले लोगों की संख्या से आठ गुना अधिक है। डायरिया आदि बीमारियों से मरने वाले लोगों की संख्या और हुकवर्म, हैपेटाईटिस, ट्राकोमा जैसी बीमारियों के खतरे घटाने के प्रयास तभी सफल हो सकते है, जबकी लोगों को पेयजल और स्वास्थ्यकर शौचालय सुविधा प्राप्त हो।
स्वच्छता की आधारभूत सुविधाओं की कमी से स्कूल जाने वाले लाखों बच्चों की पढ़ने-लिखने की क्षमता पर कुप्रभाव पड़ता है, उनमें अधिकतर बच्चे आंत की बीमारियों (कीड़ों) से ग्रस्त रहते हैं। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों ने हम सबको गरीबी, असमानता, भूख और बीमारी को दूर करने की राह पर अग्रसर किया है। पूरे विश्व ने यह प्रतिज्ञा की है कि सन् 2015 तक स्वच्छ जल एवं स्वच्छता की आधारभूत सुविधाओं से वंचित लोगों की संख्या घटाकर आधी कर दी जाएगी। पेयजल एवं स्वच्छता के सहस्राब्दि लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उठाए गए कदमों से तीसरे विश्व के देश के लोगों के स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय कार्य दशकों (2005-2015) की चुनौतियां - 1970 के दशक में हुई मार डेल प्लाटा और आलमा आता सम्मेलनों की सिफारिशों पर सन् 1981-1991 में पेयजल एवं स्वच्छता का अंतरराष्ट्रीय दशक प्रारंभ किया गया। दुर्भाग्यवश दशक के लक्ष्य और उद्देश्य पूरे नहीं हो सके। इच्छा की कमी, संसाधनो की अनुपलब्धता और जल, स्वच्छता एवं स्वास्थ्य संबंधी जानकारी के बीच प्राथमिकता में सामंजस्य बिठा पाने में कमी इसके कुछ कारण थे। परिणामतरू इस दशक में जल एवं स्वच्छता के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सका।
आईडीडब्ल्यूएसएस से सीख लेकर 1990 के दशक में सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य की घोषणा हुई। अब हम उस कार्य के लिए नए अंतरराष्ट्रीय दशक में प्रवेश कर रहे हैं, जिसे ‘जीवन के लिए जल 2005-2015’ कहा गया है। इस दशक में हमें कुछ कठिन समस्याओं से जूझना होगा जिसे हम पेयजल और स्वच्छता के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें।
प्रतिवर्ष अस्वच्छ जल और स्वच्छता की आधारभूत सुविधाओं की कमी के कारण 0-5 वर्ष तक के लगभग 16 लाख बच्चों की मृत्यु हो जाती है, जो सन् 2004 में एशिया में आए सुनामी के कारण मरने वाले लोगों की संख्या से आठ गुना अधिक है। डायरिया आदि बीमारियों से मरने वाले लोगों की संख्या और हुकवर्म, हैपेटाईटिस, ट्राकोमा जैसी बीमारियों के खतरे घटाने के प्रयास तभी सफल हो सकते है, जबकी लोगों को पेयजल और स्वास्थ्यकर शौचालय सुविधा प्राप्त हो।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ के संयुक्त अर्जुनी सिक्के संगीत - मॉनीटरिंग कार्यक्रम द्वारा कुछ प्रमुख चुनौतियों का निर्धारण पूर्व में हुई प्रगति की समीक्षा के बाद किया जाता है। पेयजल और स्वच्छता के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों की उपलब्धि में दो मुख्य चुनौतियां निहित है- शहरीकरण की तेज गति जिससे वर्तमान पहुंच का स्तर बनाए रखना भी कठिन कार्य लगता है और ग्रामीण लोगों की बड़ी संख्या, जिन्हें मूलभूत स्वच्छता और सुरक्षित पेयजल की सुविधाएं अनुपलब्ध हैं। शहरी और ग्रामीण आबादी के इस बड़े फर्क को हटाने के लिए साधन स्रोतों की बड़ी आवश्यकता होगी। सबसे चिंता का क्षेत्र उप-सहारा अफ्रीका है। यह ऐसा इलाका है, जहां सन् 1990-2004 की अवधि में ऐसे लोगों की संख्या, जिनके पास पेयजल की सुविधा नहीं थी, 23 प्रतिशत बढ़ी और स्वच्छता सुविधा से वंचित आबादी 30 प्रतिशत बढ़ी। यदी सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों को पूरे किए जाने हैं, तो अस्पष्टतरू सभी भागीदारों को और अधिक प्रभावकारी तथा सशक्त कदम उठाने होंगे। सभी देशों को वास्तविक लक्ष्य और उपयुक्त तकनीकी निर्धारित कर व्यवहारिक कार्य योजना विकसित करनी होगी एवं इस कार्य के लिए पर्याप्त वित्तीय और मानवीय साधन स्रोत आवंटित करने होंगे। ऐसा करना न केवल मानवीय आधार पर आवश्यक होगा, बल्कि लोक स्वास्थ्य की सुरक्षा एवं फलस्वरूप आर्थिक तथा मानवीय विकास के लिए भी अनिवार्य होगा।
पेयजल लक्ष्य की प्राप्ति की समस्याएं और संभावनाएं - सन 2004 में कुल 5.3 अरब (दुनिया की आबादी का 83 प्रतिशत) लोग उन्नत स्रोतों से जल का उपयोग करते थे। सन् 1990 में यह संख्या 4.1 अरब (78 प्रतिशत) थी। आबादि-वृद्धि के कारण इन सुविधाओं से वंचित लोगो की संख्या सन् 1990 से कुछ खास नहीं खास नहीं बदली है। दुनिया की आबादी का 1ध्7 भाग (एक अरब) लोग सुरक्षित पेयजल की सुविधा से वंचित हैं। इनमें से 84 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं। कुछ विकासशील देशों में अत्यंत ही संकटपूर्ण स्थिति है। उप-सहारा अफ्रीका में सन् 1990 के 49 प्रतिशत की जगह सन् 2004 में 56 प्रतिशत के आंकड़े के बावजूद सन् 2015 तक निर्धारित 75 प्रतिशत का लक्ष्य पाने के लिए महत् प्रयास की आवश्यकता है।
यद्यपि एक अरब, 20 करोड़ लोगों को सन् 1990-2004 की अवधि में उन्नत स्रोतों से पेयजल की सुविधा उपलब्ध हुई, परंतु आबादी मे बढ़ोतरी के कारण विल्कुल वंचित लोगों की संख्या इससे केवल 11.8 करोड़ ही घटी। यदि ऐसा ही रहा तो ऐसी वंचित जनसंख्या 2015 तक अनुमानित 15 करोड़ से घटेगी। इस प्रगति के बावजूद उक्त वर्ष में 90 करोड़ वंचित आबादी, जिनमें से तीन चैथाई ग्रामवासी होंगे। उप-सहारा अफ्रीका में यद्यपि उन्नत पेयजल-स्रोतों की उपलब्धि वर्ष 1990-2004 के दौरान 7 प्रतिशत बढ़ी, किंतु उधर इस सुविधा से वंचित लोगों की संख्या 6 करोड़ से ऊपर पहुंच गई। जैसा कि वर्तमान में अनुमान है कि वर्ष 2015 तक उप-सहारा अफ्रीका में वंचित आबादी 4.7 करोड़ से बढ़ेगी। इससे स्पष्ट होता है कि अधिकतर देश पेयजल की सहस्त्राब्दि-लक्ष्य-उपलब्धि की दिशा में सही रास्ते पर हैं। फिर भी इसमें दो बड़ी और गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है रू शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच पहुंच के मामले में असमानता और विकासशील देशों में बढ़ती शहरी आबादी।
स्वच्छता-लक्ष्य की उपलब्धि-समस्याएं और संभावनाएं - वर्ष 2004 में विश्व की आबादी के मात्र 59 प्रतिशत को उन्नत स्वच्छता-सुविधा उपलब्ध थी। यानि 10 में से 4 लोग इससे वंचित हैं। या तो खुले में शौच करते हैं या अस्वास्थ्यकर तरीके अपनाते हैं, जिससे गंदगी से होने वाली बीमारियों का खतरा बढ़ता जा रहा है। सन् 1990 के 49 प्रतिशत से आकड़े जरूर आगे बढ़े हैं फिर भी 75 प्रतिशत के सहस्त्राब्दि-लक्ष्य तक पहुंचने के लिए गंभीर प्रयास अपेक्षित है। स्वच्छता के आधारभूत ढांचे के लिए लंबी अवधि तक बड़ा निवेश अपेक्षित होगा, नीति निर्धारण से लेकर जन साधारण तक सेवा उपलब्ध कराने का समयांतराल भी घटाना होगा। विकासशील क्षेत्रों में 50 प्रतिशत आबादी तक उपलब्धता का अर्थ स्पष्ट है, दो में से एक ही व्यक्ति को उन्नत सवच्छता-सुविधा उपलब्ध है। पश्चिम एशिया का औसत आंकड़ा 84 प्रतिशत, पूर्वी का 45 प्रतिशत, दक्षिण का 38 प्रतिशत और उप-सहारा अफ्रीका का 37 प्रतिशत है।
अधिकतर विकासशील देशों के लिए सीवरेज-व्यवस्था और सीवेज-शोधन-प्लांट से जुड़े शौचालयों की संख्या बढ़ाना उपयुक्त विकल्प नहीं लगता। छोटे और मध्यम वर्ग के शहरों और देहाती इलाकों के लिए तत्स्थानीय स्वच्छता ही कीफायती और उपयोगी विकल्प है। इस संदर्भ में ज्ञातव्य है कि सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाईजेशन द्वारा टू-पीट पोर-प्लस कंपोस्टिंग तत्स्थानीय स्वच्छता-व्यवस्था वाली शौचालय-तकनीक विकसित की गई है, जिसमें प्रक्षालन के लिए केवल 1 से 1.5 लीटर जल की आवश्यकता होती है। इसमें मानव-मल कीटाणु-रहित होकर खाद बन जाता है। सुलभ द्वारा भारत में एक मिलियन से अधिक घरों में ऐसे शौचालय बनाए गए हैं और इसी डिजाइन का शौचालय राज्य सरकारों द्वारा 6 करोड़ घरों में बनाया गया है। आज भारत स्वच्छता के सहस्त्राब्दि-विकास-लक्ष्य-उपलब्धि की दिशा में अग्रसर हो रहा है।
शहरी स्वच्छता कार्यक्रम के लिए स्लमों में रहने वाले लोगों की स्थिति वस्तुतः चिंता का विषय है। बढ़ती हुयी आबादी स्वच्छता-सुविधाओं का अभाव, कूड़े-करकट के निपटान का अभाव और सुरक्षित पेयजल की कमी के कारण अतिसार रोगों का आसन्न संकट चिंता का दूसरा विषय है।
निष्कर्षतः मैं सयुक्त राष्ट्र के महासचिव श्री बान की मून के कथन से इस चर्चा का अंत स्वीकारात्मक ढंग से करना चाहता हूं- ‘वर्ष 2015 और उसके आगे दृष्टि डालते हुए लगता है कि हम लोग अपने महान लक्ष्य की प्राप्ति और गरीबी का उन्मूलन कर सकते हैं। लगभग हर मामले में हमारा अनुभव रहा है कि आगे बढ़ने के मार्ग में पहले किये गए समझौते सहायक और सही हुए हैं। दूसरे शब्दों में, हमें क्या करना है, इसकी जानकारी रही है। परंतु निस्संदेह इसके लिए सामूहिक दीर्घकालीन और निश्चित प्रयास अपेक्षित होगा।’
साभार : सुलभ इंडिया
/articles/sahasataraabadai-vaikaasa-lakasaya-jala-evan-savacachataa