सुलभ संवाददाता
सभी राज्यों एवं केन्द्र-शासित प्रदेशों में दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र 93 प्रतिशत आच्छादन के साथ सर्वाधिक शहरीकृत है, इसके बाद चंडीगढ़ (89.8 प्रतिशत) एवं पुड्डुचेरी (66.6 प्रतिशत) का स्थान आता है। भारत के राज्यों में तमिलनाडु सर्वाधिक शहरीकृत राज्य है, जहाँ नगरीय क्षेत्रों में निवास करने वाली आबादी 43.9 प्रतिशत है। इसके बाद महाराष्ट्र (42.4 प्रतिशत) और गुजरात (37.4 प्रतिशत) आते हैं। शहरी क्षेत्रों में रहनेवाले व्यक्तियों की पूर्ण संख्या के मामले में महाराष्ट्र 41 मिलियन व्यक्तियों के साथ आगे है, जो देश की कुल आबादी का 14 प्रतिशत है। उसी तरह उत्तर प्रदेश में लगभग 35 मिलियन और तमिलनाडु में 27 प्रतिशत आबादी निवास करती है।
शहरीकरण में वृद्धि होती रही है, विश्व के 21 बड़े शहरों में से भारत के तीन शहर हैं-मुंबई (19), दिल्ली (15) और कोलकाता (14)।
वर्ष 1991 में 23 तथा वर्ष 2001 में 40 बड़े शहर थे। एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2017 तक नगरीय आबादी 500 मिलियन तक पहुँचने के आसार हैं। इनमें से 25 प्रतिशत गरीब शहरी निवासी हो सकते हैं। वर्ष 2017 तक अनुमानित स्लम आबादी 69 मिलियन होने की संभावना है। शहरीकरण आर्थिक विकास का दुष्प्रभाव नहीं है, यह इस प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा है। भारतीय शहरी क्षेत्रों का देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण सहयोग है। यद्यपि भारत की एक तिहाई से भी कम आबादी शहरों एवं नगरों में निवास करती है, ये क्षेत्र देश के सकल घरेलू उत्पाद का 2/3 भाग से अधिक उत्पादन करते हैं और सरकारी राजस्व के 90 प्रतिशत के लिए उत्तरदायी हैं।
लेकिन यह परिस्थिति चुनौतीपूर्ण है। कई शहरी सरकारों के पास आधुनिक नियोजन की रूपरेखा नहीं है, स्थानीय निकायों की बहुलता कुशल योजनाओं एवं भूमि उपयोग के कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न करती है। कठोर मास्टर प्लान और प्रतिबंधात्मक क्षेत्रण (क्षेत्रों में विभाजित करना) भवन एवं शहरों के लिए आवश्यक निर्माण के लिए उपलब्ध भूमि को सीमित करता है, जबकि बदलते परिवेश में आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक है। शहरी सरकारों द्वारा कई सेवाएँ प्रदान की जा रही हैं लेकिन उनकी जवाबदेही स्पष्ट नहीं है। आर्थिक और पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ सेवाएँ प्रदान करने की बजाय भौतिक बुनियादी सुविधाओं की ओर मजबूत झुकाव है। सेवा-प्रदाता इन प्रयोजनाओं एवं रख-रखाव की लागत वापस लेने में असमर्थ हैं और इस कारण धन के लिए सरकार पर निर्भर रहते हैं, स्वतंत्र नियामक अधिकारिगण शुल्क का निर्धारण और अनुदान पर फैसला करते है, किन्तु अधिकतर सेवा-कार्य ही नदारत रहती हैं, गुणवत्तापूर्ण सेवा की कल्पना तो दूर की बात है।
समीक्षात्मक मुद्दे- अधिकांश शहरी निकाय आधारभूत संरचना के नवीकरण के लिए राजस्व की उत्पत्ति पर ध्यान नहीं देते और न ही उनमें निधि उपलब्ध करने के लिए पूँजी बाजार का उपयोग करने की साख होती है। शहरी परिवहन-योजना को और भी अधिक समग्र होने की आवश्यकता है-भारतीय नगरों एवं शहरों में पैदल या साइकिल-द्वारा यात्रा करनेवाले असंख्य व्यक्तियों की जरूरतों को समझने की बजाय गतिशील वाहनों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। भारत की तेजी से बढ़ती आबादी की जरूरतों को वर्तमान समय एवं भविष्य में पूरा करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह एक नीतिगत मामला भी है। जिसपर ध्यान देने की आवश्यकता है। वे मुद्दे इस प्रकार हैं- अल्प वित्तीय स्थानीय प्रशासन, कमजोर वित्तप्रणाली, अनुपयुक्त योजनाएँ जिनकी वजह से आवास एवं कार्यलय क्षेत्रों के बढ़ते दाम, (कुछ भारतीय शहर विश्व के सर्वाधिक महँगे शहरों में शामिल हैं।), महत्त्वपूर्ण आधार-तंत्रों का अभाव तथा मूलभूत आवश्यकताओं जैसे-पानी एवं बिजली आपूूर्ति की कमी, अपर्याप्त परिवहन-प्रणालियों की दुःखद स्थिति और तेजी से बिगड़ता पर्यावरण। यदि उचित प्रबंधन नहीं किया गया तो शहरीकरण के फलस्वरूप गरीबी और स्लमों में वृद्धि होगी। जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए शहरों को तैयार रहने की जरूरत है, जिसमें स्लमों के विस्तार को कम किया जा सके। शहरीकरण केवल शहरों के लिए चुनौती नहीं है। नए शहरी एजेंडे सरकार के हर स्तर को सहयोग के नए प्रतिमानों पर ले जाएँगे। अनुमानतः 70 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन शहरों से होता है। शहरों के अनियोजित एवं तीव्रगति से विस्तार के कारण बड़ी संख्या में मनुष्यों एवं आर्थिक संपत्तियों पर जलवायु-परिवर्तन के दुष्प्रभावों एवं आपदाओं का असर हो रहा है।
सरकार शहरीकरण के कारण उत्पन्न समस्याओं से पूरी तरह अवगत है और इसके परिणाम-स्वरूप नगरों और शहरों में बढ़ती हुई आबादी के परिप्रेक्ष्य में अधिकाधिक विकास सुनिश्चित करने एवं योजना बनाने के लिए हेतु स्वीडेन से विशेषज्ञों की सहायता माँगी जा रही है।
शहरी विकास-मंत्रालय की तरफ से पी.पी.पी. (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप्स) के क्षेत्र में एक साथ मिलकर ‘विन विन’ समाधानों पर बेहतर काम करने के लिए (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप्स) पर चर्चा के लिए गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इस चर्चा में स्वीडेन के राजदूतावास के अधिकारियों, स्वीडिश अधिकारियों एवं अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण-प्रौद्योगिकी-सहयोग तथा सुलभ स्वच्छता आन्दोलन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने हिस्सा लिया।
इस अवसर पर देश के विभिन्न शहरों में बढ़ते शहरी फैलाव की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए डॉक्टर पाठक ने कहा, ‘पर्यावरण-स्वच्छता को नजरअंदाज करना ठीक नहीं, इस ओर असावधानी के फलस्वरूप गंभीर पर्यावरणिक एवं स्वास्थ्य-संबंधी खतरे हो सकते हैं। हालाँकि देश में 140 वर्ष पूर्व सीवरेज प्रणाली का आगमन हो चुका था, फिर भी भारत में मात्र 160 सीवेज उपचार-संयत्र हैं। वर्तमान दर से भारत के 7,933 शहरों एवं नगरों में सीवरेज सुविधाएँ उपलब्ध कराने में 3,000 साल लगेंगे।’ डॉक्टर पाठक ने समाज तथा शासन को सतर्क करते हुए कहा, ‘योजनाकारों को देश के विभिन्न शहरों एवं नगरों में गगनचुंबी इमारतों के निर्माण में अग्रसर होने की बजाय जागरूक होकर कुछ सार्थक कदम उठाने की जरूरत है।’
साभार : सुलभ इण्डिया, नवम्बर 2013
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