शौचालय से बदलती सोच

अधिकतर देशों में शौचालय के बारे में बात करना संकोच का विषय माना जाता है। लेकिन हम यह नहीं समझते कि जब तक इस बारे में बात नहीं करेंगे, तब तक इसमें सुधार आने की कोई गुंजाइश नहीं है। इस एजेंडे की वर्जना को तोड़ने के लिए ‘वर्ल्ड टॉयलेट ऑर्गेनाइजेशन’ और ‘वर्ल्ड टॉयलेट समिट, मीडिया’ और राजनीतिक वैधता की शक्ति को जुटाने का काम कर रही है। जब लोग अधिकारिक तौर पर यह महसूस करने लगेंगे कि यह वर्जना नहीं है, तब वे इस बारे में बात करना शुरू करेंगे, सकारात्मक तौर पर कार्य करेंगे और सही सफाई व्यवस्था के लिए मांग भी करेंगे।


स्वच्छ वातावरण से होगा विकास


जब लोग हाइजेनिक और स्वच्छ वातावरण में रहेंगे, तभी उस देश के लोग उत्पादक और विकसित होंगे। एक बीमार राष्ट्र कभी भी सही तरीके से विकास नहीं कर सकता है। कई आंकड़े बताते हैं कि विकासशील देशों के अस्पतालों में कुल रोगियों में से 50 फीसद रोगी सेनिटेशन (सफाई-व्यवस्था) और गंदे पानी से हुई बीमारी के कारण भर्ती रहते हैं। यही वजह है कि 1065 में अस्पतालो में निवेश को कम करने के लिए सिंगापुर ने ‘उपचार से बेहतर बचाव’ को ध्यान में रखकर सफाई व्यवस्था में निवेश पर काम किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान पर काम करके भारत भी सिंगापुर जैसी सफलता प्राप्त कर सकता है। इस बार के ‘वर्ल्ड टॉयलेट सम्मिट’ का भागीदार देश भारत है,  जिस वजह से शहरी विकास मंत्रालय इससे गंभीरता से जुड़ा है।


धार्मिक स्थल ज्यादा हैं, पर शौचालय कम


भारत जैसे धार्मिक देशों में लोग मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर के निर्माण के लिए कुछ भी कर जाते हैं, लेकिन बात जहाँ घरों में शौचालय बनवाने की आती है, लोग इसे नजरअंदाज कर देते है। ऐसा गावों में अधिक देखा जाता है। शायद यही वजह है कि भारत के गांवों में हर गली में एक मंदिर तो है, लेकिन हर घर में शौचालय नहीं। शौचालय से सोच बदलने की कहानी भारत को अपने गावों से शुरू करनी होगी। गांवों में खुले में शौच करना बेहद आम है। खुले में शौच से भारत में प्रतिसाल हजारों बच्चों की मृत्यु होती है। बाकी बच्चों को खुले में शौच करने से कई तरह की बीमारियां हो जाती हैं, जो उनके विकास में बाधा उत्पन्न करती है। जिन बच्चों का सही तरीके से विकास नहीं हो पाता है, वे बडे होकर आर्थिक तौर पर आंशिक उत्पादक बन जाते हैं। इनका आर्थिक तौर पर मजबूत ना होना केवल उनकी नहीं बल्कि पूरे देश की समस्या है। सिंगापुर में खुले में शौच करना कुछ ऐसा है, जिसके बारे में लोग सोच तक नहीं पाते। यही सोच सिंगापुर को आर्थिक तौर पर स्वतंत्र और स्वस्थ राष्ट्र के तौर पर आधार देती है।


अस्वस्थ वातावरण बनता है अशिक्षा का कारण


भारत जैसे देश में जहां करीब 40 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं। यहां सरकार के लिए आधारभूत सफाई की व्यवस्था को सुनिश्चित करना कोई आसान काम नहीं है। लेकिन वर्ल्ड टॉयलेट सम्मिट के भागीदार देश के तौर पर भारत इस कठिन लक्ष्य को पूरा करने में सफलता प्राप्त कर सकता है। इस बार के वर्ल्ड टॉयलेट सम्मिट का विषय बहद संवेदनशील है, जो भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। मुद्दा लड़कियों और उनके स्कूल के लिए शौचालय का है। यूनिसेफ के आंकड़े बताते हैं कि स्कूल को छोड़ने वाली लड़कियों की संख्या में खासा इजाफा आया है। स्कूल में सफाई व्यवस्था, सुविधाओं की कमी और अस्वस्थ वातावरण बच्चों को स्कूल जाने से न केवल रोकता है। बल्कि उनके शिक्षा ग्रहण करने और सीखने की क्षमता को भी नकारात्मक तौर पर प्रभावित करता है।


यदि स्कूल में शौचालय होगा तो स्कूलों में लड़कियों की संख्या में इजाफा होगा क्योंकि मासिक धर्म के समय स्कूलों मेंं शौचालय न होने से वे स्कूल जाना छोड़ देती हैं। सही तरीके से हाथ धोना, घर के अंदर बने और ढंके शौचालय में शौच के लिए जाना, गंदे पानी का सही तौर पर निकास जैसी बातें सुनने में बेहद आसान लगती हैं, फिर भी कई देशों में लोग ऐसा नहीं करते हैं। जबकि सच्चाई तो यह है कि खराब सफाई व्यवस्था के कारण विकासशील देशों के हाथ से प्रतिसाल हजारों अरब डॉलर निकलता जा रहा है। लोगों की बीमारी परिवार पर आर्थिक बोझ से कम नहीं और यह बोझ देश पर भी है क्योंकि यह उत्पादन में कमी लाता है और दवाईयों सहित स्वास्थ्य देख-रेख पर अनचाहे खर्च का कारण बनता है। यदि हम बीमारी और बीमारी के कारण उत्पादन में आई कमी को दूर कर पाते हैं, तो देश की अर्थव्यवस्था को फलने-फूलने का ज्यादा मौका मिलेगा।


जैक सिम (संस्थापक, वर्ल्ड टॉयलेट आर्गेनाइजेशन)


साभार : राष्ट्रीय सहारा 7 जनवरी 2015

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